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कब दूर होंगे निरक्षरता के अंधेरे

१ जुलाई २०१५

अपने वैभव के साए में भारत निरक्षरता की बुनियादी समस्या से जूझ रहा है. नियोजित विकास के 65 वर्ष होने के बावजूद यहां शत प्रतिशत साक्षरता नहीं है. साथ ही साक्षरता के मामले में शहर-गांव और स्त्री-पुरुष के बीच खाई बनी हुई है.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo

राष्ट्रीय सैंपल सर्वे संगठन, एनएसएसओ की एक ताज़ा रिपोर्ट के आंकड़े साक्षरता दर में बढ़ोतरी तो दिखाते हैं लेकिन उल्लेखनीय बात ये भी है कि बढ़े हुए आंकड़ों के बीच गांवों और शहरों और स्त्रियों और पुरुषों की साक्षरता की दरों में बड़ा फासला कायम है. इससे स्पष्ट है कि सामाजिक विभेद की खाई यहां कितनी ज्यादा गहरी है. पुश और पुल का समाजशास्त्रीय सिद्धांत यहां सक्रियता से काम कर रहा है और रोजगार की तलाश और शहरी चकाचौंध से आकर्षित होकर गांव-देहात से लोग लगातार शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं लेकिन गांव पिछड़े के पिछड़े हुए हैं. लगातार बढ़ती आबादी ने भी समस्या को जटिल ही बनाया है.

शहरी इलाकों में भले ही शिक्षा के विस्तार में निजी क्षेत्र का योगदान ज्यादा है लेकिन गांवों में अब भी शिक्षा सरकारी क्षेत्र पर निर्भर है. मगर निजीकरण की आंधी और मुक्त उदारवादी अर्थव्यवस्था के इस दौर में सामाजिक विकास में निवेश लगातार घटाया जा रहा है. ऐसे में हर किस्म के विभेद को घटाने की वास्तविक सुध पर भला कौन ध्यान देगा. ये हालत तब हैं जब लगातार इन मुद्दों पर शोध, अध्ययन, सर्वे और रिपोर्टे सामने आ रही हैं. चिंताओं को भी मानो सरकारों ने फाइलों का एक विशाल गट्ठर बनाकर किसी कोने में रख छोड़ा है.

इन आंकड़ों से कॉरपोरेट और बड़े निगमों द्वारा चलाए जा रहे कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी यानी सीएसआर की तमाम योजनाओं और सरकार की निजी क्षेत्र के साथ भागीदारी यानी पीपीपी मोड से संचालित तमाम संस्थाओं और अभियानों की सच्चाई भी पता चलती है. यदि उन्हें गहरी निष्ठा, पारदर्शिता और प्रतिबद्धता से चलाया जा रहा होता तो शायद तस्वीर इतनी फीकी न होती और शिक्षा तक समान पहुंच के आंकड़े अभी भी दूर की कौड़ी न नजर आते. डिजीटल इंडिया और डिजीटल गांव का नारा देने वाले मौजूदा नेतृत्व का ये दावा भीतर से कितना खोखला है, ये भी इसी बात से समझा जा सकता है कि ग्रामीण इलाकों में सिर्फ छह प्रतिशत लोगों के पास ही कंप्यूटर है. स्कूली इमारतों, कॉलेजों, शिक्षकों और अन्य शैक्षिक संसाधनों का अभाव भी किसी से छिपा नहीं है. ये देश आखिर कब तक अपनी एकतरफा रौनकों पर इतराता रहेगा?

चिंताएं भी अपार हैं उपाय भी खूब गिना दिए जाते हैं लेकिन फिर साक्षरता की गाड़ी की रफ्तार इतनी धीमी क्यों हैं? यानी सब कुछ होने के बावजूद कमी है तो सरोकार और प्राथमिकता की. वोट के लिए टूटी पड़ रही सत्ता-राजनीति ये कभी नहीं देखेगी कि ग्रामीण इलाकों में शिक्षा के विस्तार और सामाजिक विकास के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत कितनी ज्यादा है. जनता को भी बड़े पैमाने पर जागरूक किए जाने की जरूरत है. अक्सर देखा गया है कि एनजीओ मानसिकता के साथ अपनी ढपली अपना राग तो खूब बजाया जाता है लेकिन असली लड़ाई अधूरी रह जाती है. शहरों-देहातों के सामाजिक तानेबाने में कट्टरता और जातीय वर्चस्व का जो जहर घुसा हुआ है उसे निकालने की हिम्मत भी कम लोग कर पाते हैं. कम हैं लेकिन यकीनन ऐसे लोग जरूर हैं. सरकारों को चाहिए कि ऐसे लोगों को पर्याप्त सुरक्षा और संसाधन मुहैया कराए.

लड़कियों के प्रति हमारे समाज का नजरिया और रवैया बदलने के लिए सामाजिक कार्यक्रम तो चलाए ही जाएं, राजनैतिक दल और सरकारें भी इस काम में आगे बढ़ें. विज्ञापन छपवा देने, फिल्म निकाल देने और भाषण और मन की बात कर देने से हमारे इस सामाजिक परिवेश का यथार्थ नहीं टूटेगा. इसे तोड़ने के लिए एक अभूतपूर्व किस्म का अभियान चाहिए जिसकी मिसालें हमें दूसरे विकासशील देशों से भी मिल सकती हैं. शैक्षिक और सामाजिक अभियानों और कार्यक्रमों की प्रामाणिकता और सफलता को भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. विकास के टॉपडाउन अप्रोच को बदलकर ग्रासरूट स्तर पर लाना होगा. इस तरह विकेंद्रीकृत विकास से सामाजिक विभाजन की खाई को पाटा जा सकता है.

बेटियों के साथ सेल्फी खिंचाने और इसे एक विशाल मध्यवर्गीय मनोरंजन में तब्दील कर देने के उलट, काश, ऐसा होता कि गांवों देहातों से उन बच्चियों, लड़कियों और महिलाओं की मदद की जाती जिनका सपना पढ़लिख कर अपना मकाम हासिल करने का है, उन्हें मदद करने सेल्फी वीर निकलते और फिर उनकी मदद सुनिश्चित कर उनके साथ अपनी सेल्फी खिंचाते. वे सार्थक सेल्फियां होतीं.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी