कचरा बीनने वाले भी गए थे कोपेनहेगन
२१ दिसम्बर २००९दुनिया में लगभग डेढ़ करोड़ लोग कूड़े में से प्लास्टिक, पैकिंग, शीशा, बोतलें, कागज़, लोहा इत्यादि निकाल कर उसे बेच कर अपनी रोज़ी कमाते हैं. यह कचरा फिर रिसाइकल होता है. पर्यावरण सुरक्षा और ऊर्जा बचत में इसका बड़ा योगदान है.
1994 में जब 17 साल का संतू बिहार से दिल्ली आया, तब उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि 15 साल बाद वह कोपेनहेगन में अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन के दौरान दुनिया के नेताओं को कबाड़ी के काम की अहमियत के बारे में बताएगा. संतु खुद कूड़ा इकट्ठा करता था और आज 25 लोग उसकी प्लास्टिक रिसाइकलिंग फैक्टरी में काम करते हैं. हर महीने वह और उसके सफ़ाई सैनिक, दिल्ली में 3000 टन कूड़ा इकट्ठा करते हैं जिसमें से 30 प्रतिशत कूड़ा रिसाइकल किया जाता है. नई दिल्ली के महीपालपुर में संतू की छोटी सी रिसाइकलिंग फैक्टरी है जहां हर रोज़ एक टन प्लास्टिक को रिसाइकलिंग के लिए तैयार किया जाता है.
कोपनहेगन में संतू ने बेहिचक ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण संरक्षण पर बात की. वह गर्व से बताता है कि किस प्रकार वहां उसने विकसित देशों से आए लोगों को रिसाइकलिंग के बारे में बताया, ''विकसित देशों के लोग अपने में ही व्यस्त थे. उन्हें बस वेस्ट टू एनर्जी यानि कूड़े से ऊर्जा में दिलचस्पी थी. हमने उनसे पूछा कि हम 30 प्रतिशत कार्बन कम करते हैं लेकिन आप लोग कूड़ा जलाते हैं जिससे और ऊर्जा खर्च होती है. आप लोगों को कूड़ा अलग करने के लिए भी मशीनों की ज़रूरत पड़ती है. आपकी तरकीबों से हमारे रोज़गार पर तो असर पड़ेगा ही, क्लाइमेट चेंज भी ज्यादा होगा. तो कहां से पर्यावरण संरक्षण है ये? ''
आज अगर संतू क्लाइमेट और कार्बन फुटप्रिंट जैसे शब्दों का प्रयोग कर रहा है तो उसके पीछे गैर सरकारी संस्था चिंतन का योगदान है जिसके साथ वह 1999 से जुड़ा है. संस्था की मदद से उसने कूड़ा कबाड़ इकट्टा करने वालों का संगठन तैयार किया जो रिसाइकलिंग के लिए कूड़े में से हर एक चीज़ हाथ से अलग करता है. लेकिन जब कोपेनहेगन में उसका संपर्क दुनिया के अन्य देशों से आए कबाड़ियों के साथ हुआ तो उसे पता चला कि उसके रोज़गार का सही प्रतिनिधित्व कितना ज़रूरी है, ''दक्षिण अफ्रीका, कंबोडिया और चिली के लोगों से बात करके बहुत अच्छा लगा. वे लोग भी पर्यावरण के लिए कितना काम कर रहे हैं. लेकिन मुझे पता चला कि उदाहरण के लिए, चिली में कबाड़ियों की यूनियन कभी भी राष्ट्रपति तक के साथ बात कर सकती है लेकिन हम तो कॉर्पोरेशन तक के साथ बात नहीं कर पाते.''
भारत सरकार ने अपनी तरफ से कार्बन उत्सर्जन को घटाने के लिए राष्ट्रीय कार्ययोजना की घोषणा की है. कई अन्य योजनाओं के ज़रिये पर्यावरण और ग्लोबल वॉर्मिंग को कम करने की कोशिशें की जा रही हैं लेकिन वे कहां तक सफल रही हैं. इस साल मार्च के महीने में दिल्ली में प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगाया गया. लेकिन 8 महीने बाद कोई इस प्रतिबंध को गंभीरता से नहीं ले रहा. लगभग हर दूकान पर ख़रीददारी करने पर सामान प्लास्टिक की थैली में ही मिलता है. चिंतन संस्था की मालती गाडगिल का मानना है कि सरकार को इसके लिए अधिक तैयारी की आवश्यकता है, ''प्लास्टिक की थैलियां तो केवल एक छोटा सा हिस्सा है. प्लास्टिक का इस्तेमाल 60 से 70 प्रतिशत तक पैकेजिंग के लिए होता है. थैलियों पर प्रतिबंध लगाने से पहले सरकार ने किसी विकल्प के बारे में नहीं सोचा, न ही कोई रणनीति बनाई. लोगों की आदतों को बदलने में वक्त लगता है और यह तभी संभव है जब सरकार सुनियोजित ढंग से कोई योजना लागू करे.''
मालती के अनुसार प्लास्टिक की थैलियां असल में सागर में बूंद के बराबर है. और इस कचरे को हटाने को हटाने में एक बड़े हद तक कबाड़ इकट्ठा करने वालों का योगदान है. लेकिन आज भी भारत के कई हिस्सों में पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे रहे इन लोगों को सम्मान नहीं मिल पाता है.
रिपोर्ट: सुनंदा राव/नई दिल्ली
संपादन: एस जोशी