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समाज

एक शख्स ने अफगानिस्तान का इतिहास बचा लिया

८ सितम्बर २०१७

अफगानिस्तान के सांस्कृतिक इतिहास को बयां करती हजारों रील की फुटेज एक शख्स ने छिपा दी, यह जानते हुए भी कि तालिबान को जिस दिन पता लगेगा, उन्हें मौत के सिवा और कुछ ना मिलेगा. 

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Afghanistan Rettung von Rollenmaterialien durch Habibullah Ali
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Marai

पार्क में हंसते खेलते परिवार, मिनी स्कर्ट में हंसी मजाक करती लड़कियां. यह तस्वीर अफगानिस्तान की हो सकती है, आज यकीन करना भी मुश्किल है. लेकिन हबीबुल्लाह अली और उनके साथियों ने जान पर खेल कर उन फिल्मों को बचा लिया जिनमें पुराना अफगानिस्तान दिखता है. अब इन्हें डिजिटल किया जा रहा है.

हबीबुल्ला अली ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, "उस दिन हमें यकीन नहीं था कि घर के लिए जिंदा रवाना होंगे. जो हमने छिपाया था अगर उन्हें मिल जाता तो वो हमें मार देते." चरमपंथी तालिबान ने 1996-2001 के अपने शासन में लोगों के मनोरंजन पर रोक लगा दी थी. इसमें संगीत और सिनेमा भी शामिल था.

तालिबान ने सैकड़ों फिल्मों की रील जला दी. हालांकि वे करीब 7000 बहुमूल्य फिल्मों की रील तक नहीं पहुंच सके क्योंकि अली और उनके साथियों ने उसे इमारत के अलग अलग हिस्सों में छिपा दिया था. दो दशक के बाद इन्हें लोगों के देखने के लिए फिर पेश किया जा रहा है, वह भी डिजिटल फॉर्मेट में.

Afghanistan Rettung von Rollenmaterialien durch Habibullah Ali
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Marai

इन फिल्मों में कुछ डॉक्यूमेंट्री भी हैं जिनमें तालिबान के शासन से पहले के अफगानिस्तान को देखा जा सकता है. साल भर चलने वाले इस प्रोजेक्ट के जरिये अफगानिस्तान की मशहूर फीचर फिल्मों को वापस लाया जा रहा है. वो फिल्में जिनमें जंग नहीं मोहब्बत दिखेगी और युवाओं को अपने देश के उस अतीत को देखने का मौका मिलेगा जो कभी उनके सामने नहीं आया.

अफगान फिल्म के लिए 36 साल से काम कर रहे हबीबुल्लाह अली कहते हैं, "हम बहुत डरे हुए थे लेकिन अल्लाह के करम से हम अपनी फिल्मों को बचाने में कामयाब रहे और अब हमारे पास हमारी ये संस्कृति जिंदा है."

दसियों हजार घंटों से ज्यादा की फिल्मों के फुटेज को डिजिटल रूप में बदलने का काम अफगान फिल्म के निदेशक मोहम्मद इब्राहिम आरिफी देख रहे हैं. आरिफी ने बताया, "रीलों को टिन के डिब्बों में भारतीय या पश्चिमी फिल्में लिख कर जमीन में दबा दिया गया था. बहुत सारी फिल्में ऐसे कमरों में बंद थीं जिनके बाहर ईंटों की दीवार या फिर नकली छतें लगाकर उन्हें छिपा दिया गया था." आरिफी मुस्कुराते हुए कहते हैं, "इन लोगों ने सारे तरीके आजमाये थे."

Afghanistan Rettung von Rollenmaterialien durch Habibullah Ali
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Marai

आरिफी ने बताया कि 16 एमएम की करीब 32000 घंटों और 35 एमएम के करीब 8000 घंटों की फुटेज है, इनकी सूची बनाने का काम अभी भी चल रहा है. बहुत सी फिल्में लोगों ने अपने पास छिपा कर रखी थीं वो फिल्में भी लोग ला कर सौंप रहे हैं. शेल्फ में रखी फिल्म की रीलों से घिरे आरिफी कहते हैं, "मैं नहीं कह सकता कि 50000 घंटे होंगे या 1 लाख घंटे."   

इन फिल्मों को डिजिटल फॉर्मेट में बदलने पर काफी वक्त लगता है. पहले रील को झाड़ पोंछ कर साफ किया जाता है, फिर उनमें लगी खरोंच या टूट फूट की मरम्मत की जाती है. इसके बाद इसे प्रोजेक्टर पर देखा जाता. इसकी तारीख, नाम और नंबर को सूची में शामिल किया जाता है और फिर इसे डॉक्यूमेंट्री या सिनेमा के वर्ग में डाला जाता है. इतना सब कुछ होने के बाद फिर इसे उस मशीन में डाला जाता है जहां इसका डिजिटल संस्करण तैयार होता है. अफगान फिल्म विभाग के एक कर्मचारी एम फयाज लुत्फी कहते हैं, "अगर यह एक फीचर फिल्म जितनी लंबी है तो इस प्रक्रिया में चार दिन तक लग जाते हैं. अगर तस्वीरें नयी हैं तो एक दिन में भी हो सकता है." 27 साल के लुत्फी को इस काम पर बहुत गर्व का अनुभव होता है.

अफगानिस्तान में सरकारी बजट से बनी फिल्में 1970 के दशक में काफी मशहूर थीं. फारसी और पश्तो भाषा की फिल्मों में रोमांस, संस्कृति और दोस्ती दिखती थी. सोवियत आक्रमण, तालिबान के क्रूर शासन और उनसे 16 साल की अमेरिकी जंग से पहले के दौर की तस्वीरें डॉक्यूमेंट्री में दिखती हैं जो 1920 से 1970 के दशक तक की है.

Afghanistan Rettung von Rollenmaterialien durch Habibullah Ali
तस्वीर: Getty Images/AFP/S. Marai

हाल ही में काबुल के अमेरिकी दूतावास में इनमें से कुछ फिल्में दिखायी गईं. इनमें दिखने वाला अफगानिस्तान, आज के अफगानिस्तान से बिल्कुल अलग है. हंसते खिलखिलाते परिवार कहीं पार्कों में पिकनिक मनाते नजर आते हैं तो कहीं मिनी स्कर्ट पहने युवतियां हंसी मजाक करती नजर आती हैं, कहीं कोई धमाका रोधी दीवार तो नजर ही नहीं आती. 34 साल के आरिफ अरहमदी ने इन पिल्मों को देखने के बाद कहा, "मैं इन तस्वीरों को देख भावुक हो गया क्योंकि मुझे तो अपने देश के बारे में जो भी याद है वो बहुत बुरा है. मैं इतना खुशनसीब नहीं था कि उस दौर को देख सकूं. दूसरे देशों में लोग आगे बढ़ रहे हैं लेकिन अगर हम अपने अतीत को देखें तो बहुत पीछे चले गये हैं."

अफगान फिल्म को उम्मीद है कि टीवी चैनल इन फिल्मों को प्रसारित करेंगे, एक निजी मीडिया समूह इन्हें वेब चैनल के जरिये प्रसारित करने पर विचार कर रहा है. अफगानिस्तान के करीब 40 फीसदी हिस्से पर तालिबान का कब्जा होने के बावजूद  फिल्म विभाग इन फिल्मों को दूर दराज के इलाकों तक भी पहुंचाना चाहता है जहां इंटरनेट और टेलीविजन नहीं है. बूढ़े लोगों के लिए ये फिल्में उनके अच्छे दिनों की यादें हैं और युवाओं को इन फिल्मों को देख अपने इतिहास का पता चलेगा. इसकी बुनियाद पर वे बेहतर भविष्य का सपना देख सकते हैं.

एनआर/एके (एएफपी)