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एक निराला गुलदस्ता है भारतीय संविधान

रिपोर्टः शिवप्रसाद जोशी(संपादनः आभा मोंढे)२१ जनवरी २०१०

दुनिया का सबसे लंबा और ब्यौरेवाला संवैधानिक दस्तावेज़ भारत का है. अनुच्छेदों, अनुसूचियों और संशोधनों का ऐसा विहंगम फैलाव दुनिया के किसी और संविधान में नज़र नहीं आता है.

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तस्वीर: dpa

लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में ये भारत राष्ट्र की विशिष्टता है. गणतंत्र के रूप में आज जब भारत के साठ साल हो रहे हैं तो ये जानना भी दिलचस्प है कि आखिर ऐसे विराट संरचना वाले दस्तावेज़ में शामिल चीज़ें कहां से ली गई थीं. कौन से थे वे स्रोत और विचार और वे संविधान जिनसे प्रेरणा लेकर भारतीय संविधान का ढांचा खड़ा किया गया और इस बहाने एक महा गणतंत्र की तस्वीर दुनिया के सामने आई.

दूसरे संविधानों से

भारतीय संविधान की रचना में दुनिया के कई देशों के ज्ञात संविधानों की खोजबीन की गई थी और उसके बहुत से उपबंध दूसरे संविधानों से उठाए गए थे. संविधान के निर्माताओं की मंडली के प्रमुख डॉक्टर भीवराव अंबेडकर ने कहा था कि सभी संविधानों के मुख्य उपबंध एक से दिखाई पड़ते हैं, यदि कोई नई चीज़ है तो वो ये कि भारत के संविधान में कुछ दोषों को दूर करने के लिए और अपने देश की ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए कुछ बदलाव किए गए.

इस लिहाज़ से कहने वाले कई बार भारतीय संविधान को उधार का संविधान भी कहा जाता है लेकिन उसके रचनाकारों ने दूसरे संविधानों से चीज़ें लेते हुए भी जहां तहां जो कमियां दिखीं उन्हें दुरुस्त करने के लिए अपने संविधान को देश की ज़रूरत औऱ देश के हालात के हिसाब से ढाला और कई बातें राष्ट्रीय लिहाज़ से जोड़ी गईं. कुछ लोग इसे पैंबंद कहते हैं लेकिन .ये भी कहा जाता है कि अगर ये पैबंद है तो बड़ा ही सुंदर पैबंद है. लेकिन भारतीय संविधान के कई मुरीद हैं जो उसे एक अनूठा अभूतपूर्व और विराट गुलदस्ता मानते हैं जहां दुनिया के कई संविधानों की क्यारियों से फूल चुनकर रखे गए हैं.

कौनसी बातें कहां से ली गईं, आइए इस पर नज़र डालें और इसी से ये भी साफ़ होगा कि आख़िर भारतीय संप्रभु राष्ट्र के गणतांत्रिक मूल्यों की स्थापना का ये दस्तावेज़ इतना व्यापक और विशाल कैसे बना.

1. सबसे पहले बात मूल अधिकार की. इस अहम बिंदु के अध्याय की रचना अमेरिकी संविधान के आधार पर की गई थी.

2. ब्रिटेन से ली गई थी संसदीय शासन की प्रणाली की संरचना का प्रारूप.

3. आयरलैंड के संविधान से राज्य की नीति के निदेशक तत्वों का विचार लिया गया था.

4. और ये भी दिलचस्प है कि भारत के संविधान में जर्मनी के संविधान की छाया भी है. आपात स्थिति से संबंधित कई व्यापक उपबंध वहां से लेकर जोड़े गए थे.

भारतीय संविधान में शब्दों की भरमार है. जिससे इसके पृष्ठों की संख्या बढ़ती चली गई. उपरोक्त देशों से कुछ चीज़ें उठाई गईं लेकिन उन्हें अपने देश के लिहाज़ से इस तरह व्याख्यायित किया गया कि कहीं कोई उलझन और भ्रम की स्थिति न रहे. अनिश्चितता और मुक़दमेबाज़ी के हालात कम से कम बनें.

महाआकार वाला संविधान

इन सबके बावजूद कोई संविधान में लिखित बिंदुओं को सैबोटेज न कर सके इसके लिए रचनाकारों ने सिलेसिलेवार और ब्यौरेवार ढंग से उपबंध बनाए. ताकि संविधान में संशोधन के ज़रिए ही उनमें बदलाव संभव किया जा सके.

1935 का भारत शासन अधिनियम का कई हिस्सा जैसे का तैसा स्वाधीन भारत के संविधान में पिरोया गया था. इससे भी उसका आकार बढ़ गया. लेकिन महाआकार देने के पीछे वजह यही थी कि नियमकायदों को लेकर महादुश्चिंता और महाविभ्रम के हालात न बन सके. और नवजात लोकतंत्र के गणतांत्रिक मूल्यों का हनन न हो सके.

Indien Präsident Rajendra Prasad
डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्षतस्वीर: AP

सर्वसमावेशिता यानी सब कुछ समेट लेने के आदर्श के कारण ही भारत के संविधान में संघ और राज्य के बीच शक्तियों के विभाजन के उपबंध बहुत ज़्यादा हैं. माना जाता है कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के संविधानों में इस बारे में कुल मिलाकर जितने उपबंध हैं उनसे भी ज़्यादा भारतीय संविधान में हैं.

देश की विशालता और सांस्कृतिक सामाजिक वैविध्य ने भी संविधान का कलेवर बड़ा किया. एक पूरा हिस्सा अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग के बारे में है. इसी तरह एक भाग राजभाषा के बारे में है.

अमेरिका, इंग्लैंड से अलग

अमेरिका से इतर भारतीय संविधान में एक ख़ासियत ये भी रही कि वहां सिर्फ़ संघ का संविधान दिया गया है. राज्यों को अपने संविधान बनाने की छूट है. भारत में संघ और राज्य के संविधान एक ही दस्तावेज़ का हिस्सा हैं और उसी में सभी चीज़ें एकमेक की गई है. राज्यों के लिए जो अलग नीतियां, अधिकारों और कर्तव्यों का ब्यौरा है उनके लिए उपबंध हैं. यानी सबकैटगरीज़. इसमें एक अपवाद सिर्फ़ जम्मू कश्मीर राज्य का है.

जिन देशों के संविधान से बातें उठाई गई हैं उन्हीं में लौटें तो हम पाते हैं कि अमेरिकी संविधान के संशोधनों के नमूने पर एक अधिकार विलेख है दिसमें व्यक्ति के अदालत द्वारा प्रवर्तनीय मूल अधिकार आते हैं. इसके अलावा निदेशक तत्वों को शामिल करने वाला एक भाग भी है जो व्यक्ति को प्रवर्तनीय अधिकार नहीं देता है लेकिन देश के शासन में बुनियादी समझा जाता है. ये आयरलैंड के संविधान में शामिल सामाजिक नीति के सिद्धांत की प्रकृति के हैं.

अमेरिका के लिखित संविधान के पीछे मूल विधि का जो सिद्धांत है उसे इंग्लैंड के अलिखित संविधान के पीछे संसदीय प्रभुता के सिद्धांत के साथ मिलाकर अपने संविधान में पिरोना भारतीय संविधान रचनाकारों की उदारता भी दिखाता है.

इसी की एक मिसाल मिलती है अमेरिका की न्यायिक सर्वोच्चता प्रणाली और इंग्लैंड के संसदीय सर्वोच्चता के सिद्धांत के बीच भारत का निकाला बीच का रास्ता. न्यायपालिका को परम शक्तियां या परम सदन बनाने या संसद को अपरिमित शक्तियों से लैस करने की ब्रिटिश नीति से इतर भारत में न्ययापालिका को ये शक्ति दी गई है कि वो किसी विधि यानी क़ानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है यदि वो संविधान में दर्ज विधान मंडल की शक्तियों के बाहर का है या वो संविधान द्वारा हासिल मूल अधिकारों का हनन करता है. यदि किसी मामले में न्यायापालिका अपने अधिकार से बाहर जाकर रुकावट डालती है तो संसद विशेष बहुमत से संविधान के मुख्य अंश में बदलाव यानी संशोधन कर सकती है. हालांकि लोकतंत्र के इन दो स्तंभों में संतुलन स्थापित करने की संवैधानिक कोशिश के बावजूद संसद और संसदीय राजनीति सबसे ऊपर है ये इरादा नेहरू ज़ाहिर कर चुके थे. उनका कहना था कि संसद की इच्छा समस्त जन की इच्छा है. विधानमंडल ही सर्वोच्च है और सामाजिक मामलों में अदालतों को दख़ल नहीं देना चाहिए.

यही बात ध्यान में रखते हुए शासन की राष्ट्रपति प्रणाली नहीं अपनाई गई जैसे अमेरिका में हैं. कार्यपालिका और विधायिका एक दूसरे से अलग थलग और स्वतंत्र हैं लिहाज़ा उनमें टकराव की आशंका बनी रहती है. भारत के संविधान निर्माता देश के लिए इस स्थिति को सही नहीं मानते थे इसीलिए शासन की पद्धति ब्रिटेन जैसे संसदीय सिस्टम से ली गई. लेकिन यहां भी अंतर ये रखा गया कि टॉप पर एक आनुवंशिक सम्राट या शासक को नहीं रखा गया. क्योंकि भारत ने अपने आपको गणराज्य घोषित किया था. सम्राट की जगह संसदीय सिस्टम के शीर्ष पर एख निर्वाचित राष्ट्रपति की व्यवस्था की गई. इस फॉर्मूले के लिए आयरलैंड के संविधान का सहारा लिया गया. लेकिन राष्ट्रपति के अधिकारों को लेकर आयरलैंड की हूबहू नकल से बचा गया और उसे एक संसदीय प्रणाली का एक जवाबदेह प्रमुख बनाया गया. अपने अधिकारों के प्रयोग में वो कैबिनेट की सलाह से चलेगा.

लचीलापन ज़रूरी

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के निर्माण के समय एक बात साफ़ कर दी थी... “हम इस संविधान को अधिक से अधिक ठोस और स्थायी बनाना चाहते हैं. लेकिन संविधान स्थायी नहीं होते. इसमें कुछ लचीलापन भी होना चाहिए. यदि इसे कठोर और स्थायी बना दें तो आप राष्ट्र का विकास अवरुद्ध कर देंगें...हम इस संविधान को इतना कठोर नहीं बना सकते कि परिवर्तित दशाओं में उसे अनुकूलित न किया जा सके”(यानी बदले हुए हालात में उसे एडैप्ट न किया जा सके.)