1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

ऊंघता चुनावी अभियान

९ सितम्बर २०१३

भागती गाड़ियों और सैलानियों के कैमरों की क्लिक के बीच जर्मनी के कील शहर में आम चुनाव की कोई खास गूंज नहीं सुनाई देती. यहां की व्यस्त सड़कों के बीच खंबों पर लगे अनमने, उपेक्षित पोस्टर जरूर दिखते हैं.

https://p.dw.com/p/19dVd
तस्वीर: DW/A. Mondhe

इन पोस्टरों को रास्ते पर चलने वाला कोई इंसान नहीं देखता. इन्हें ध्यान से देखने वाले लोगों में कुछ ही शामिल हैं, जो या तो पहली बार वोट दे रहे हैं या फिर अब दूसरी पार्टी को वोट देना चाहते हैं.

एक दिन चुनाव अभियान का

जर्मनी में संसदीय चुनावों के तीन हफ्ते पहले का एक दिन. उत्तरी राज्य श्लेस्विग होलस्टाइन की राजधानी कील. वामपंथी पार्टी डी लिंके के कार्यालय में चुनाव की गहमा गहमी, लेकिन सामने काम करने वाले सिर्फ 10 लोग. पूरे दिन मेरे साथ रहे पार्टी के छात्र कार्यकर्ता क्रिस्टोफ नोगाकी.

सुबह 10 बजे पर्यटकों की भीड़ शुरू हुई. कील के मुख्य बाजार में सभी पार्टियों के स्टैंड तो थे, लेकिन सुबह 11 बजे तक सब बंद. दोपहर 12 बजे साफ हो गया कि वामपंथी पार्टी के उम्मीदवार भारतीय मूल के राजू शर्मा तय कार्यक्रम के मुताबिक दोपहर में मतदाताओं से मिलने पार्टी के स्टैंड पर नहीं आ सकेंगे.

पार्टी के स्टैंड पर किसी के आने का इंतजार करने की बजाए शहर में माहौल का और पार्टी ऑफिस में काम का जायजा लेना बेहतर विचार लगा. कील के नए नवेले चुनाव कार्यालय में मुलाकात हुई डी लिंके पार्टी की वरिष्ठ नेता कॉर्नेलिया मोएहरिंग से. इन संसदीय चुनावों के बारे में उनका मानना है कि लोग निराश हैं. वे कहती हैं, "मतदाता चाहते तो हैं कि बदलाव हो क्योंकि वे हर पार्टी से दुखी हैं. रेड ग्रीन, ब्लैक यलो किसी भी गठबंधन से वे खुश नहीं हैं. हालांकि कोई नहीं जानता कि कैसे और कौन सी पार्टी बदलाव कर पाएगी."

Deutschland Bundestagswahl 2013 Die Linke in Schleswig-Holstein
कॉर्नेलिया मोएहरिंग के मुताबिक वर्चुअल सक्रियता ज्यादातस्वीर: DW/A. Mondhe

पहले आएं, पहले पाएं

ये पूछने पर कि शहर में चुनाव का इतना कम माहौल क्यों है, मोएहरिंग और नोगाकी दोनों ही इस बात पर सहमत होते हैं कि चुनाव का प्रचार या माहौल फेसबुक, ट्विटर पर तो दिखाई देता है लेकिन शहर में वो उत्साह कहीं नहीं दिखता.

इसके बावजूद चुनावों के लिए खास पोस्टर, बैनर, चाबियों की चेन, लाइटर जैसे प्रमोशनल मटेरियल तो पार्टी बनाती ही है. ये कैसे सड़कों पर लगाए जाते हैं. ये जानने के लिए नोगाकी डी लिंके पार्टी के प्रबंधन कार्यालय ले गए. वहां राज्य इकाई के मैनेजर मार्को होएने से बात होने पर पता चला कि कील में बड़े पोस्टर लगाने की अनुमति नहीं है, दीवारों पर चिपकाने की तो कतई नहीं, "जिस दिन से पोस्टर लगाने की अनुमति होती है, उस रात को 12 बजे सभी पार्टियों की टीमें तैयार होती हैं. पार्टी के गढ़ के अलावा प्रीमियम जगहों पर पोस्टर लगाने का एक ही नियम है पहले आएं, पहले पाएं... जो पहले सही जगह पर पहुंच गया, उसका पोस्टर वहां लग जाता है." ये सुनकर भारतीय मन में स्वाभाविक सवाल पैदा हुआ कि फिर दूसरी पार्टी के कार्यकर्ता उसे फाड़ नहीं देते.. ये सुन कर होएने हंसे और कहा, "नहीं, लोकतांत्रिक पार्टियों में ऐसा सामान्य तौर पर नहीं होता. ये तो प्रॉपर्टी को नुकसान पहुंचाने जैसा है. हां कभी कभार ऐसा हो सकता है कि किसी पार्टी का कोई कार्यकर्ता पोस्टर फाड़ दे, लेकिन मैंने ऐसे मामले कम ही देखे हैं."

जहां समर्थक, वहां पोस्टर

अक्सर पार्टियों के पोस्टर उसी इलाके में ज्यादा लगाए जाते हैं, जहां पार्टी के समर्थक होते हैं. नोगाकी बताते हैं, "देखिए एक पोस्टर, मान लीजिए, एक यूरो का है, तो हम ये देखते हैं कि एक यूरो में हमें कितने मतदाता मिलेंगे. अगर किसी इलाके में लगा एक पोस्टर हमें 25 मत दिलाता है और दूसरे इलाके में सात, तो स्वाभाविक है कि हम उसी इलाके में ज्यादा पोस्टर लगाएंगे, जहां से पार्टी को ज्यादा मतदाता मिल रहे हैं. जैसे यहां, कील गार्डन में हमारे समर्थक बहुत हैं, यहां पोस्टर भी ज्यादा हैं, लेकिन विला वाले संभ्रांत इलाके में नहीं हैं, तो वहां एकाध पोस्टर ही लगे हैं."

नोगाकी और होएने दोनों ही ये बताना नहीं भूलते कि डी लिंके इकलौती पार्टी है, जहां कंपनियां किसी तरह का दान पार्टी को नहीं देती हैं. नोगाकी बताते हैं, "इसलिए हमारे पास व्यावसायिक लोगों का दल भी नहीं होता, जो अक्सर दूसरी पार्टियों के पास होता है. तो कार्यकर्ता कई बार कम पड़ जाते हैं. क्योंकि पार्टी के सदस्य भले कितने भी हों लेकिन सक्रिय कार्यकर्ता अक्सर कम ही होते हैं."

Deutschland Bundestagswahl 2013 Die Linke in Schleswig-Holstein
ऐसे बनते हैं पोस्टरः राज्य इकाई के मैनेजर मार्को होएने,तस्वीर: DW/A. Mondhe

पोस्टरों, बैनरों से पटे कार्यालय से पैदल राजू शर्मा के ऑफिस जाते समय गाब्लेंज ब्रिज आया, पुल के किनारे पर खंबे डी लिंके के पोस्टरों से पटे हुए थे. पूरा दिन निकलने के बाद शाम को चार बजे जब हम शहर पहुंचे, तो पर्यटकों की भीड़ थोड़ी कम हो चली थी, ऑफिस से घर जाने वाले कील के निवासी बढ़ गए थे और डी लिंके का स्टैंड भी खुल गया था. जब मैं नोगाकी के साथ वहां पहुंची तो, दो बेघर लोग अपनी समस्याओं और चिंताओं को जाहिर कर रहे थे. न्यूनतम मजदूरी 10 यूरो प्रति घंटा करने, रिटायरमेंट की उम्र कम करने या कम पेंशन के मुद्दे जर्मनी में सबके मुंह पर हैं.

कुछ वोट

योटा जारकोवस्की शारीरिक रूप से अक्षम हैं, काम नहीं कर सकतीं. इस साल वह डी लिंके पार्टी को वोट देने की इच्छा रखती हैं. उनका मानना है कि बाकी पार्टियां तो कुछ ज्यादा काम कर नहीं पा रहीं. बहुत तरह की समस्याएं हैं. प्रवासियों के लिए बहुत कम काम किया जा रहा है, "पैसा जहां चाहिए वहां नहीं जा रहा. नेताओं के पास खूब पैसा है, सरकार में या संसद में बैठने के अलावा, उन्हें दूसरा काम करने की भी अनुमति है. क्यों, ये खत्म होना चाहिए." वहीं डी लिंके पार्टी के एक कट्टर समर्थक नेताओं के भाषण के बारे में पता करने आते हैं. वे अपना नाम नहीं बताना चाहते हैं. पर कहते हैं, "हम दक्षिणपंथियों का विरोध करते हैं, इसलिए वामपंथियों के साथ हैं. हम इस देश में विदेशियों का स्वागत करते हैं. अगर वो बुद्धिमान, पढ़े लिखे हैं तो उनका स्वागत है. लेकिन अगर वे सिर्फ सरकारी मदद के लिए यहां पहुंच रहे हैं तो मैं इसका समर्थन नहीं करता."

Deutschland Bundestagswahl 2013 Die Linke in Schleswig-Holstein
राजू शर्मा का कार्यालयतस्वीर: DW/A. Mondhe

इतने में रंग बिरंगे बालों वाले, सिगरेट फूंकते तीन युवा पंक वहां पहुंचते हैं, पार्टी के पोस्टर की ओर इशारा कर पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता उलरिष शिपेल्स से पूछते हैं, "क्या तुम ये (10 यूरो प्रति घंटा मजदूरी) कर पाओगे". लेकिन पार्टी कार्यकर्ता का जवाब सुनने का उनके पास समय नहीं था. सिगरेट सुलगाती हुई वह कहते हुए निकल गए कि "सब बेकार है."

शहर के बीचों बीच डी लिंके पार्टी के स्टैंड पर आने वाले अधिकतर लोगों में या तो बेघरबार, सामाजिक रूप से पिछड़े, या गरीब हैं या फिर 60 साल से ऊपर के लोग. पार्टी के समाजवादी एजेंडा में युवाओं की रुचि कम ही दिखाई दी. स्टैंड खुलने के करीब दो तीन घंटों के भीतर मर्जी से स्टैंड पर आने वाले लोग या इसकी ओर ध्यान देने वालों में सिर्फ एक ही 15 साल का लड़का था, जिसकी इसमें रुचि थी. सेबास्टियान से जब पूछा गया कि वह क्या सोच कर स्टैंड पर आया, तो उसने कहा, "अभी तो मैं वोट नहीं दे सकता. लेकिन मैं हर पार्टी के बारे में जानना चाहता हूं. और फिर देखूंगा कि मैं किस पार्टी और किस उम्मीदवार को मत देना चाहता हूं."

रिपोर्टः आभा मोंढे, कील
संपादनः अनवर जे अशरफ