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'उन्हें भारत बुला लो'

४ जनवरी २०११

नए साल की शुभकामनाएं तो हमें हमारे श्रोताओं ने भेजी ही. साथ ही उन्होंने पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं की स्थिति पर अपनी प्रतिक्रियाएं हम तक पहुंचाई हैं.

https://p.dw.com/p/ztAe
तस्वीर: dapd

स्वागत 2011. 2010 के अंत तक आते-आते डीडब्ल्यू हिंदी वेबसाइट ने बेहद आकर्षक कलेवर से हमें प्रभावित किया है. फीडबैक स्तम्भ में छपने वाले विचारों से हम तमाम पाठक-श्रोता एक दूसरे के विचारों से अवगत होते हैं, जिससे दूर रहकर भी, अपनेपन का अहसास होता रहता है. डीडब्ल्यू हिंदी और हम श्रोता-पाठकों का ऐसा ही मधुर सम्बंध बना रहे. इन्ही शुभकामनाओं के साथ नव वर्ष की ढेरों शुभकामनाएं.

माधव शर्मा, नागौर, राजस्थान

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पाकिस्तान के हिंदू परिवारों ने भारत से शरण मांगी .....हमें उन हिन्दुओ को इंडिया बुला लेना चाहिए... हम तो दूसरों का हमेशा से भला करते आये हे..क्योंकि पाक में कोई इंसान नाम की कदर ही नही है....

सौरव शर्मा

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सरोकार में आज यानि 3/1/11 को भारत जाना चाहते हैं पाकिस्तान के 100 हिंदू परिवार शीर्ष के तहत रिपोर्ट पढ़ी. यह एक त्रासदी ही है कि जहां भारत में सभी धर्मालंबियों को अपना धर्म मानने और मनाने की पूरी छूट है पर वहीं साथ में ही आजादी पाने वाले हमारे पड़ोसी के यहां हिंदू दोयम दर्जे की जिंदगी जी रहे हैं. पश्चिम जगत का मीडिया इस पर कभी ध्यान नहीं देता है पर आपने इस ओर सबका ध्यान खींचा है, आप को बधाई.

उमेश कुमार यादव

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आक्रामक श्रीसंत को ठंडा करने की जरूरत: धोनी ......जो खिलाडी खेल में तैश में आ जाता है वह किसी भी हालत में अपना शतप्रतिशत नहीं दे पायेगा और यह उसके स्वयं के लिए तथा पूरी टीम के लिए नुकसानदेह होगा. श्रीसंत यदि अपना रवैया नहीं सुधारते हैं तो टीम सेलेक्टर्स को उन्हें नहीं चुनना चाहिए.

प्रमोद महेश्वरी, फतेहपुर-शेखावाटी, राजस्थान

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अरब पुरूषों से शादी न करें यहूदी महिलाएं... आज विश्व पटल पर जो आंधी चल रही है उनमें से एक ये भी है. आज जरुरत है अपने आप को जताने, अपनी संस्कृति को कायम रखने की. ऐसे विकास या ऐसी उन्नति का कोई मतलब ही नहीं है जो अपनी पहचान और अपनी सभ्यता को कायम न रख सके. मैं इसका समर्थन करता हूं.

तेल की बढ़ी कीमतों का फायदा ईबाइक को........ई-बाइक जैसी गाड़ियों के आने से वास्तव में क्रांति आ जाएगी. आजकल पेट्रोल की कीमते आसमान छू रही है.

निर्मल सिंह राणा

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गुर्जरों के साथ आरक्षण पर बातचीत नाकाम बैंसला का यह कैसा फैसला. राजस्थान में सरकार के आश्वासन के बावजूद गुर्जर नेता किरोड़ीसिंह बैंसला का अपना आन्दोलन जारी रखना, समझ से परे है. ऐसा लगता है कि कोर्ट, सरकार और आम-जनता की परेशानियों को दरकिनार कर बैंसला अपना राजनीतिक स्वार्थ साधना चाहते हैं. क्या आरक्षण का अधिकार केवल गुर्जरों को ही होना चाहिए? सरकारी नौकरी में आरक्षण की व्यवस्था अब अपना उद्देश्य खो चुकी है. इसे समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि आरक्षण की बंदरबांट में पार्टियां और उनके नेता केवल अपना ही उल्लू सीधा कर रहे हैं. जनता तो सिर्फ मोहरा भर है.

माधव शर्मा, नागौर, राजस्थान

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पॉडकास्ट पर अब हम आपके सभी कार्यक्रम सुनते हैं. साल 2010 में हुई घटनाओं पर आपने जो सालभर में कार्यक्रम पेश किए थे, उनको फिर से बतला कर हमारी सारी यादें ताज़ा कर दी, जैसे कि अंतरा में दुनिया को प्रभावित करनेवाली मुख्य महिलाये जिनमें आन सान सु ची, ब्राज़ील की दिलमा, जर्मन गायिका लेना जैसी महिलाओं पर खास रिपोर्ट, लाइफ लाइन में भूकंप, तेल रिसाव और बाढ़ पर डाली गई नज़र, वेस्ट वॉच में आर्थिक मुश्किलों से बहार निकलने की यूरोप की कोशिशें, और खोज कार्यक्रम में पिछले साल हुई महत्वपूर्ण खोजे जिनमे क्वांटम मशीन, सिंथेटिक गेनोम जैसी खोजों के बारे में सुना, सारी यादें ताजा हो गई.

संदीप और सविता जावले, मार्कोनी डी एक्स क्लब, परली वैजनाथ, महाराष्ट्र

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डॉयचे वेले हिन्दी सेवा की वेबसाइट पर आर्टिकल पढ़ने को मिला अमर्त्य सेन ने भारत के मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन का पूरा साथ देते हुए कहा कि उनके खिलाफ कानून का बेहूदा इस्तेमाल किया गया है. डॉ बिनायक सेन को लेकर देश का अंग्रेजी मीडिया और हमारे कुछ बुद्धिजीवी जिस तरह आपा खो रहे हैं, उसे देखकर देश के लोग दंग हैं. डॉ बिनायक सेन और उनकी पत्नी यदि सचमुच आदिवासियों की सेवा के लिए अपनी मलाईदार नौकरियां छोड़कर छत्तीसगढ़ के जंगलों में भटक रहे हैं तो वह निश्चय ही वंदनीय हैं, लेकिन उनके बारे में आग उगल रहे अंग्रेजी अखबार यह क्यों नहीं बताते कि उन्होंने किन-किन क्षेत्रों के कितने आदिवासियों की किन-किन बीमारियों को ठीक किया? यदि सचमुच उन्होंने शुद्ध सेवा का कार्य किया होता तो अब तक काफी तथ्य सामने आ जाते. लोग मदर टेरेसा को भूल जाते हैं. पहला प्रश्न तो यही है कि कोलकाता या दिल्ली छोड़कर वे छत्तीसगढ़ ही क्यों गए? कोई दूसरा इलाका उन्होंने क्यों नहीं चुना? क्या यह किसी माओवादी पूर्व योजना का हिस्सा था या कोई स्वत:स्फूर्त माओवादी प्रेरणा थी? जेल में फंसे माओवादियों से मिलने वे क्यों जाते थे? क्या वे उनका इलाज करने जाते थे? क्या वे सरकारी डॉक्टर थे? जाहिर है कि ऐसा नहीं था. ये लोग अंग्रेजीवाले बाबा हैं देश और विदेश के अंग्रेजी अखबारों और चैनलों से जुड़े हुए. इन्हें महान बौद्धिक और देश का ठेकेदार कहकर प्रचारित किया जाता है. ये देखने में भारतीय लगते हैं, लेकिन इनके दिलो-दिमाग विदेशों में ढले हुए होते हैं इनकी बानी भी विदेशी ही होती है. ऐसे लोगों के प्रति मूल रूप से सहानुभूति रखने के बावजूद मैं उनसे बहादुरी और सत्यनिष्ठा की आशा करता हूं.

रवि शंकर तिवारी, छात्र टीवी पत्रकारिता, जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी, नई दिल्ली

संकलनः विनोद चढ्डा

संपादनः आभा एम