1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

इतिहास रचने को बेताब है मणिपुर की नजीमा बीबी

प्रभाकर मणि तिवारी
३ मार्च २०१७

मणिपुर के चुनावी इतिहास में पहली मुस्लिम महिला उम्मीदवार होने का रिकार्ड तो वह पहले ही अपने नाम कर चुकी हैं. अब जीत दर्ज कर वह इतिहास रचना चाहती हैं.

https://p.dw.com/p/2Yb46
Indien Menschenrechtsaktivistin Irom Sharmila
तस्वीर: DW

मशहूर मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला की पार्टी पीपुल्स रीसर्जेंस एंड जस्टिस एलायंस (प्रजा) ने नजीमा बीबी को टिकट दिया है. उनका मिशन है मुस्लिम समाज की संकीर्ण मानसिकता और सामाजिक वर्जनाओं से जूझते हुए महिलाओं के उत्थान और सशक्तिकरण के अपने अभियान को मजबूती देना.

पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में विधानसभा की 60 में से कम से कम एक दर्जन सीटों पर मुस्लिम वोटर ही निर्णायक हैं. लेकिन बावजूद इसके राज्य की पहली मुस्लिम महिला उम्मीदवार को भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है. थाउबल जिले की वाबगाई सीट से चुनाव लड़ रहीं नजीमा को मौलवियों ने मौत के बाद दफनाने के लिए उनके गांव में दो गज जमीन तक नहीं देने की धमकी दी है.

लेकिन नजीमा चुनाव जीत कर अल्पसंख्यक महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की लड़ाई तेज करने के लिए कृतसंकल्प हैं. इस सीट पर राज्य के दूसरे चरण में आठ मार्च को मतदान होना है. वह कहती है, "मुझे अपने जीवन की कोई परवाह नहीं है. लेकिन जब तक शरीर में जान रहेगी घरेलू हिंसा और समाज में मुस्लिम महिलाओं के उत्थान की मेरी लड़ाई जारी रहेगी." नजीमा बताती हैं कि उनका जीवन बचपन से संघर्षमय रहा है. वह किसी धमकी से नहीं डरतीं.

Irom Chanu Sharmila
इरोम शर्मिला ने नजीमा बीबी को टिकट दिया हैतस्वीर: picture-alliance/dpa

मणिपुर में नौ फीसदी मुस्लिम वोटर राजनीतिक दलों की किस्मत बनाने या बिगाड़ने में सक्षम हैं. राज्य में इस तबके को पांगल या मैतेयी पांगल के नाम से जाना जाता है. नजीमा के खिलाफ फतवा जारी करने वालों ने इसकी कोई वजह तो नहीं बताई है. लेकिन समझा जाता है कि वह उसके चुनाव मैदान में उतरने से नाराज हैं. नजीमा ने शर्मिला के साथ राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला से मुलाकात कर उनको इस फतवे के बारे में जानकारी दे दी है. फतवे के आतंक का आलम यह है कि थाउबल जिले में नजीमा के गांव की महिलाएं तक उनसे बातचीत के लिए तैयार नहीं है. वजह यह है कि मौलवियों ने नजीमा से बात करने वालों को भी कब्र के लिए जमीन नहीं देने का एलान किया है.

नजीमा कहती है कि उनका एकमात्र कसूर महिला होना है. यह बात समाज के झंडाफरमबदारों के गले से नीचे नहीं उतर रही है. उन लोगों का कहना है कि आखिर एक मुस्लिम महिला चुनाव कैसे लड़ सकती है? वह कहती है, "समाज के लोगों ने जितना मजाक उड़ाया उससे मेरा हौसला और मजबूत हुआ है. मुझे लगा कि जरूर मुझमें कोई खास बात है. इसीलिए पुरुष मेरा विरोध कर रहे हैं."

नया नहीं है संघर्ष

नजीमा के लिए धमकियों का यह सिलसिला नया नहीं है. इससे पहले घरेलू हिंसा के मामले उठाने और महिलाओं के स्व-सहायता समूहों की सहायता की वजह से उनको मौलवियों का कोपभाजन बनना पड़ा था. नजीमा बताती है कि उनके तबके में महिलाओं को साइकिल चलाने तक की छूट नहीं है. लेकिन विद्रोही तेवरों वाली नजीमा ने स्कूल आने-जाने के लिए साइकिल ही चुनी. अपनी कक्षा की अकेली और परिवार की पहली लड़की के तौर पर उसने दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की. उसके बाद घरवाले उन पर शादी के लिए जोर डालने लगे. लेकिन इस दबाव के आगे झुकने की बजाय नजीमा घर से एक ऐसे व्यक्ति के साथ भाग गईं जिससे वह पहले महज दो बार ही मिली थीं. बाद में पति के अत्याचारों से तंग आकर नजीमा ने छह महीने में ही तलाक ले लिया.

तलाक के बाद नजीमा को आत्मनिर्भरता और आर्थिक आजादी की अहमियत का पता चला. उसके बाद उन्होंने अल्पसंख्यक महिलाओं की सहायता के लिए ‘चेंग मारूप' यानी चावल कोष नामक एक योजना शुरू की थी. इसके तहत हर महिला अपने घर से एक मुठ्ठी चावल दान करती थी. इस तरीके से जमा होने वाले चावल को हर पखवाड़े किसी एक महिला को दे दिया जाता था जो उसे बेचकर इस पैसों से पशु खऱीदती थी.

Indien Straßenblockade
तस्वीर: DW/Prabhakar

नजीमा के चावल कोष की वजह से उसके गांव की महिलाएं आत्मनिर्भर होने लगीं. लेकिन मौलवियों को यह बात नहीं पची. नजीमा के मुताबिक, पुरुषों की नजर में यह चोरी थी. बावजूद इसके मुश्किल हालातों में भी नजीमा लगातार आगे बढ़ती रही. शर्मिला ने जब उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया तो मुस्लिम तबके ने इसका विरोध शुरू कर दिया. लेकिन न तो शर्मिला ने हार मानी और न ही नजीमा हार मानने को तैयार हैं. वह कहती हैं कि समाज के ठेकेदार चाहे जितना विरोध करें, गांव वाले मेरे साथ हैं. 

आसान नहीं मुकाबला

लेकिन जीवन की तरह नजीमा की राजनीतिक लड़ाई भी आसान नहीं है. वाबगाई से पिछली बार कांग्रेस के फजुर रहमान जीते थे. इस बार भी वही मैदान में हैं. एक पूर्व विधायक यू देवेन अबकी बीजेपी के टिकट पर यहां से अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. बीजेपी के अल्पसंख्यक मोर्चे के पूर्व अध्यक्ष हबीबुर रहमान जनता दल (यू) की ओर से मैदान में हैं.

Indien Wahlen Uttar Pradesh
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Singh

इन दिग्गजों के बीच वह खुद को कहां देखती है? इस सवाल पर नजीमा कहती है, "मुझे पता है कि मुकाबला कठिन है और मेरे प्रतिद्वंद्वियों को तमाम चुनावी दाव-पेंच मालूम हैं. लेकिन मुझे आम लोगों का समर्थन हासिल होने की उम्मीद है." लेकिन राज्य में एक मुस्लिम महिला को चुनाव मैदान में उतरने में इतना लंबा अरसा क्यों लग गया? नजीमा इसका जवाब देती है, "पुरुष-प्रधान समाज होने की वजह से महिलाएं उनसे मुकाबला करने में डरती हैं. पुरुषों ने अगर कह दिया कि महिलाएं चुनाव नहीं लड़ सकतीं तो यह पत्थर की लकीर बन जाता है." वह कहती है कि शिक्षा के अभाव ने महिलाओं को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर दिया है.

नजीमा कहती है, "इरोम शर्मिला ने जब नई पार्टी बना कर चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला किया तो मैंने तुरंत चुनाव लड़ने पर हामी भर दी. अल्पसंख्यक समाज की महिलाओं को समाज में उनकी उचित जगह दिलाने का जो काम अभी मैं छोटे स्तर पर कर रही हूं वह विधायक बनने के बाद बड़े पैमाने पर कर सकती हूं."

वह कहती है कि पूर्वोत्तर की महिलाओं को ज्यादा अधिकार होने के प्रचार के बावजूद राज्य में अल्पसंख्यक तबके की महिलाएं भारी शोषण की शिकार हैं. वह अपनी मर्जी से न तो जी सकती हैं और न ही खा-पहन सकती हैं. नजीमा का लक्ष्य अब चुनाव जीत कर इस शोषण और अत्याचार के खिलाफ अपनी आवाज और बुलंद करना है. वह कहती है, "चुनाव में हार हो या जीत, मेरा विरोध और संघर्ष तो जारी ही रहेगा."