इतिहास में कैद होती भारत पाक विभाजन की सिसकियां
२७ जुलाई २०१७कराची में रह रहीं जमशेद जहां आरा कांपती आवाज में बताती हैं कि 1947 में विभाजन के वक्त उनके परिवार ने किस तरह भारत छोड़ा था.
वो सिर्फ 6 साल की थीं, जब वे भारत से नए बने मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान आ रही थीं. वह याद करती हैं कि कैसे वो एक जरूरत से ज्यादा भरी हुई ट्रेन में चढ़ी थीं. चारों तरफ हथियारबंद सिख थे. उन्होंने पिता को भाई नीयाम से कहते सुना था कि अगर उस कारवां पर हमला हो जाए तो वह परिवार की महिलाओं की हत्या कर दे. आरा के पिता ने कहा, "एक मेरी पत्नी, एक बहन और एक बेटी है. तो बेटा, मर्द बन. मैं उन्हें गोली नहीं मार सकता. तुम्हें उन तीनों को मार देना चाहिए और हम आत्मसमर्पण करने से पहले आखिरी पल तक सिक्खों से लड़ेंगे."
उस वक्त छह साल की आरा ने अपने पिता से पूछा कि उसका सगा भाई नियाम उन्हें क्यों मार डालेगा तो पिता ने जवाब दिया कि, "गोली बेहतर है (पकड़े जाने से) ".
अब इतिहासकार 70 साल पहली की उस त्रासदी को चश्मदीदों के जुबानी रिकॉर्ड कर रहे हैं. अगस्त 1947 में भारत से ब्रिटिश राज समाप्त हुआ था और 14 अगस्त को नए मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान का गठन हुआ था. इस विभाजन ने दोनों तरफ एक गहरी दरार उकेरी और लाखों हिंदू, मुसलमान और सिक्खों को अपने पुरखों की जमीन से बेदखल कर अंजान मिट्टी तक पहुंचा दिया.
सिर्फ पांच हफ्तों 6 हजार किलोमीटर की नई समीएं खींच दी गयी थीं. डेढ़ करोड़ लोगों के बसेरे उजड़ गए थे. दंगे हुए. सीमा के दोनों ओर सैकड़ों गांवों में सामूहिक हत्याएं की गयीं थीं. दसियों हजार महिलाओं का अपरहण और बलात्कार किया गया. इस विभाजन में लगभग बीस लाख लोगों ने अपनी जान गंवाई थी.
पर इन आंकड़ों के पीछे उन महिलाओँ और पुरुषों की कहानियां हैं, जिन्होंने वो त्रासदी झेली. पाकिस्तान में कराची जैसे शहर में एक गैर सरकारी संस्था सिटिजन आर्काइव ऑफ पाकिस्तान टुकड़ों टुकड़ों में बिखरे इस इतिहास और लोगों के अनुभवों को इकट्ठा करने का काम कर रही है. इस काम को करने के लिए बहुत से छात्र स्वयं सेवक काम कर रहे हैं.
इस संस्था के निदेशक आलिया तयाबी कहते हैं, "लंबे समय तक इतिहास शासकों या विजेताओं तक सीमित था. लेकिन इतिहास में बहुत गुंजाइश है. इसमें वो सभी शामिल हैं जो प्रभावित होते हैं. इसमें वो संस्कृतियां हैं जो प्रभावित होती हैं."
78 वर्षीय सुखवंत कौर कभी शब्द नहीं खोज पाती कि वे बता पाएं कि उनका परिवार किस तरह सीमा पार भारत पहुंचा था. अमृतसर के अपने घर में रह रहीं सुखवंत कौर अब एक दादी हैं. लेकिन वह अब भी बहुत साफ तरीके से उन कड़वी सच्चाईयों को याद कर सकती हैं, जिन्हें उन्होंने 8 साल की उम्र में जिया था. उन्होंने अपनी आंखों से एक ऐसा तालाब देखा जो लाशों से भरा था. कौर कहती हैं, "इस सब को कह पाने की हिम्मत से काफी हल्का महसूस करती हूं."
लेकिन मानव इतिहास को इस घनघोर त्रासदी को सटीक ढंग से जिक्र करने के लिए अब तेजी से काम करना होगा. वक्त के साथ चश्मदीद दम तोड़ रहे हैं. यही वजह है कि पाकिस्तान के नागरिक अभिलेखागार, अमृतसर पार्टिशन म्यूजियम और 1947 पार्टिशन आर्काइव सहित सीमा के दोनों ओर के संगठन इस सब का डिजिटलीकरण करने के लिए जल्दबाजी कर रहे हैं.
एसएम/ओएसजे (एएफपी)