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आरक्षण पाने के लिए न पिछड़ें

२६ अगस्त २०१५

आरक्षण की मांग हमेशा अभाव, भेदभाव और विषमता से जुड़ी होती है. गुजरात में अपेक्षाकृत समृद्ध पटेलों का आंदोलन भारतीय अर्थव्यवस्था की मौलिक कमजोरियों का नतीजा है, जिसका समाधान सुरक्षित सरकारी नौकरियों में देखा जा रहा है.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Ajit Solanki

आरक्षण के लिए यह आंदोलन पहली बार समृद्ध गुजरात में हुआ है, जहां के विकास के मॉडल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे देश में ले जाना चाहते हैं. इससे पहले बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे पिछड़े राज्य इसकी चपेट में रहे हैं. यह आंदोलन भारत की ऐसी कमजोरियों को खोलकर सामने लाता है, जिसका फौरी राजनीतिक समाधान जरूरी है. एक तो यह कि मौजूदा आर्थिक विकास लोगों को जाति से बाहर नई संभावनाएं तलाशने का मौका नहीं दे रहा है. दूसरे यह कि सरकारी नौकरियों को अभी भी सुरक्षित कमाई का सर्वोत्तम जरिया माना जा रहा है.

भारत 1.2 अरब की आबादी वाला विशाल देश है, जहां कमियां भी हैं लेकिन व्यापक संभावनाएं भी हैं. इस आबादी का बड़ा हिस्सा अभी भी रोजमर्रा की सामान्य जरूरत पूरी करने लायक कमाई नहीं कर पा रहा है. आर्थिक गतिविधियों में विस्तार से ही इस वर्ग को काम मिल पाएगा, कमाई हो पाएगी और वे खर्च कर पाएंगे. ये अर्थव्यवस्था का सामान्य चक्र है, कोई चक्रव्यूह नहीं जिससे बाहर निकल पाना संभव न हो. धन होगा तो खरीदारी होगी, खरीदारी होगी तो उत्पादन होगा, उत्पादन होगा तो नौकरी होगी, और नौकरी होगी तो धन होगा. इस पूरी प्रक्रिया में सरकार भी मजबूत होगी क्योंकि उसे हर स्तर पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर मिलेगा.

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महेश झा

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में चपरासी पद की 14,000 रुपये की माहवारी के 30 पदों पर नौकरी के लिए 75,000 अर्जियां आईं. उनमें बीए पास लोग भी थे. लोग किसी भी तरह कोई नौकरी पाने के लिए बेकरार हैं. यदि बीए पास लोगों को चपरासी की नौकरी करने पड़े जहां काम, फाइल यहां वहां पहुंचाना और अधिकारियों के लिए चाय लाना होता है, तो शिक्षा के स्तर पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है. यह विश्वविद्यालय की शिक्षा में संसाधनों की बर्बादी का सबूत है.

प्रशासन में भी बड़े सुधारों की जरूरत है. प्रशासनिक तंत्र को चुस्त और लोगों की उम्मीदों के अनुकूल बनाने के लिए काम के घंटे और काम का चरित्र तय करना होगा. वेतन के अनुपात में काम और भ्रष्टाचार पर पूरी तरह रोक सरकारी नौकरियों को अनाकर्षक बना सकती है और अपने हितों के लिए सरकारी तंत्र का दुरुपयोग करने वालों का मनोबल तोड़ने में सहायक हो सकती है. फिर विकास का मॉडल सरकारी नौकरियां नहीं बल्कि स्वाबलंबी उद्यम होंगे.

गुजरात में 20 प्रतिशत की आबादी वाले पटेल लोगों की शिकायत है कि मौसमी खेती और छोटे उद्यमों से जिंदगी चलानी मुश्किल हो गई है. उनकी इन मुश्किलों को दूर करने की कोशिश होनी चाहिए ताकि समाधान आरक्षण और हिंसक आंदोलन न रहें. आरक्षण पिछड़ों को आगे लाने के लिए है न कि पिछड़ेपन को गौरव का पैमाना बनाने के लिए. आरक्षण के लिए हाल में हुए आंदोलन दिखाते हैं कि यह ऊर्जा व्यक्ति को और समाज को आगे ले जाने में लगाई जानी चाहिए, न कि खुद को पिछड़ा साबित करने और पिछड़ा बने रहने में.

ब्लॉग: महेश झा