आग की चपेट में हिमालय
११ जुलाई २०१३बैंगलोर में इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के विभाग दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के मुताबिक, "हिमालय के निचले हिस्से के पीर पंजाल और ग्रेटर हिमालय जैसे ग्लेशियरों का संतुलन खराब हो सकता है. क्योंकि तापमान में बदलाव और मिट्टी नीचे बैठने के कारण ब्लैक कार्बन का इस इलाके में जमाव असर डाल सकता है."
जांच के दौरान उन्होंने हिमाचल प्रदेश में बासपा बेसिन का 2009 की स्थिति का विश्लेषण किया. इस इलाके को इसलिए चुना गया क्योंकि यह जंगल की आग से प्रभावित इलाका है और उत्तरी भारत में जैव ईंधन के जलने का भी यहां असर होता है. इस दौरान परावर्तन में होने वाले बदलाव को देखा गया.
रिपोर्ट दिखाती है कि 2009 के अप्रैल से मई महीने में जहां कार्बन जमा हुआ है वहां परावर्तन बहुत कम हो गया. क्योंकि इस साल जंगलों में लगी आग 2001 से 2010 के बीच सबसे ज्यादा थी. वैज्ञानिक एवी कुलकर्णी कहते हैं, "इसे सिर्फ कार्बन के जमा होने के साथ ही विश्लेषित कर सकते हैं. शोध दिखाता है कि कार्बन के जमा होने के कारण बर्फ के रोशनी परावर्तन के अनुपात में फर्क पड़ता है. इससे बासपा घाटी में ग्लेशियरों के संतुलन पर असर पड़ सकता है."
भारत के जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड हिमालय के पश्चिमी और मध्य इलाके में बसे हैं और यहां मई से जून के बीच जंगल में आग लगने की कई घटनाएं होती हैं. इतना ही नहीं गंगा नदी से लगे मैदानों में खेतों में भी आग लगाई जाती है. (हिमालय पर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर नहीं)
इन सबके कारण ब्लैक कार्बन के कण पैदा होते हैं और हिमालय की निचली तराई में ग्लेशियरों वाले इलाके में जमा हो जाते हैं क्योंकि यहां दक्षिणी हवा चलती है. वैज्ञानिकों का कहना है कि ब्लैक कार्बन सामान्य खनिज कणों से कहीं ज्यादा रेडिएशन सोख सकता है.
इस कारण हर साल नीचे के ग्लेशियरों में करीब करीब एक मीटर की कमी आ सकती है. यह काफी बड़ा नुकसान है. इसका मतलब है कि यह उन छोटे ग्लेशियरों के लिए बड़ा नुकसान है जिनकी गहराई सिर्फ 30 से 50 मीटर है.
शोध में चेतावनी दी गई है, "ये छोटे ग्लेशियर कई पहाड़ी इलाकों के लिए पानी का अहम स्रोत है. छोटा आकार और बड़े नुकसान को अगर देखा जाए तो आने वाले दिन में पानी के इन स्रोतों पर गहरा असर पड़ेगा और पहाड़ी लोगों के जीवन पर भी.
एएम/एजेए (पीटीआई)