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अफगानिस्तान: जहर की एक मीठी गोली

बैर्न्ड रीगर्ट
७ अक्टूबर २०१६

बीते डेढ़ दशक में अफगानिस्तान सैन्य अभियान और विकास परियोजनाओं पर सैकड़ों अरब डॉलर की रकम खर्च हुई, लेकिन डीडब्लूय के बैर्न्ड रीगर्ट पूछते हैं कि इसका नतीजा क्या निकला है.

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Afghanistan Opiumproduktion
तस्वीर: Imago/Omid Khanzada

बीते डेढ़ दशक में अफगानिस्तान सैन्य अभियान और विकास परियोजनाओं पर सैकड़ों अरब डॉलर की रकम खर्च हुई, लेकिन डीडब्लूय के बैर्न्ड रीगर्ट पूछते हैं कि इसका नतीजा क्या निकला है.

अमेरिका ने जब 2001 में अफगानिस्तान में तालिबान और अल कायदा के खिलाफ अपनी सेनाएं उतारी थीं तो किसी को अंदाजा नहीं था कि आगे चलकर ये अभियान क्या करवट लेगा. 11 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमले के बाद लक्ष्य था आतंकवादियों को पकड़ना और उनके ठिकानों को नष्ट करना. आज डेढ़ दशक बाद भी इस लक्ष्य को पूरी तरह हासिल नहीं किया जा सका है. अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों पर अब भी तालिबान का नियंत्रण है. यही नहीं, हिंदुकुश के इलाके में खुद को इस्लामिक स्टेट कहने वाले आतंकवादी गुट ने भी पांव जमा लिए हैं. इसके अलावा पड़ोसी पाकिस्तान से काम करने वाले आतंकवादी गुट भी अफगानिस्तान में सक्रिय हैं.

अंतरराष्ट्रीय समुदाय सोचता है कि आतंकवादी खतरे को तभी खत्म किया जा सकेगा जब अफगानिस्तान के लोगों के सामने एक निश्चित भविष्य हो. इसके लिए अफगानिस्तान के ताने बाने में बड़े बदलाव करने होंगे. सवाल है कि सैन्य अभियान और उसके साथ विकास के कार्यों पर हुए भारी खर्च का क्या नतीजा निकला है. अफगानिस्तान में बुनियादी ढांचे, सुरक्षा और मानवीय सहायता के क्षेत्र में 113 अरब डॉलर का निवेश किया गया है.

फिर भी अफगानिस्तान उस स्थिति को पाने से बहुत दूर नजर आता है जिसकी कल्पना उसे मदद देने वालों ने की होगी. वहां सुरक्षा स्थिति अब भी डांवाडोल है और आर्थिक विकास की हालत बहुत कमजोर है. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी इन समस्याओं को खुले तौर पर स्वीकार करते हैं, हालांकि उन्हें उम्मीद और तरक्की के संकेत भी दिखाई देते हैं. लेकिन इससे ज्यादा कुछ उनके बस में नहीं है. बहरहाल कुछ सहायता संगठन कई क्षेत्रों में कुछ प्रगति होने की बात कह रहे हैं.

अफगानिस्तान को मदद देने वाले देश चाहते हैं कि उनकी तरफ से दिया जा रहा पैसा नौकरी के अवसर पैदा करने, भ्रष्टाचार पर लगाम कसने, शिक्षा को बढ़ावा देने और पुलिस की ट्रेनिंग पर लगाया जाए. खासकर अमेरिका और यूरोपीय संघ के देश अब भी अफगानिस्तान में अरबों डॉलर लगाने को तैयार हैं. हालांकि इससे कुछ बदलेगा, ये भरोसा कम ही लोगों को है, लेकिन इसके सिवाय कोई चारा भी नहीं है.

अगर अफगानिस्तान फिर हाथ से निकलता है तो ये निश्चित तौर पर दुनिया भर के आतंकवादियों का ट्रेनिंग मुख्यालय होगा. इस तरह पिछले 40 साल में एक के बाद एक संकट झेलने वाला ये देश गृहयुद्ध की लपटों में घिर सकता है. ये बात समझी जा सकती है कि यूरोपीय संघ और अन्य देश अपनी तरफ से दी जाने वाली मदद के साथ शर्तें जोड़ना चाहते हैं जिसमें सुशासन और अफगान शरणार्थियों की वतन वापसी भी शामिल है. दाता देश चाहते हैं कि 15 साल से जो पैसा वो लगा रहे हैं उसका कुछ परिणाम दिखना चाहिए.

दूसरी तरफ एक सवाल ये भी है कि पश्चिमी देशों में करदाता अपने पैसे को कभी न भरने वाले कुएं में डालना क्यों पसंद करेंगे. मिसाल के तौर पर क्या अमेरिका में मतदाताओं को ये समझाना संभव होगा कि अरबों डॉलर की अमेरिकी मदद ऐसे देश को दी जा रही है जो सिर्फ गैरकानूनी ड्रग बनाने का कच्चा माल निर्यात करता है? क्या आप उन्हें ये बता सकते हैं कि नशीले पदार्थों की तस्करी से आतंकवादी गुटों को फायदा पहुंच रहा है?

अफगानिस्तान के सामने आने वाले सालों में बड़ी चुनौतियां होंगी. पाकिस्तान से तीस लाख और ईरान से दस लाख अफगान शरणार्थी वापस अफगानिस्तान पहुंचेंगे. बेरोजगार और बेकार लोगों की इतनी बड़ी तादाद नई मुसीबतों को जन्म दे सकती है.