मुंबई में बच्चों के लगातार भारी होते जा रहे बस्तों को लेकर दायर जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को शीघ्र इस समस्या को निपटाने का आदेश दिया. सरकार ने इसके लिए एक समिति गठित की, जिसने पाया कि स्कूली छात्रों के बस्ते उनकी उम्र के हिसाब से 20 से 30 फीसदी भारी हैं. इसके कारण 10 साल से कम उम्र के करीब 60 प्रतिशत छात्रों को कई ऑर्थोपेडिक यानि जोड़ों से जुड़ी तकलीफें और तनाव के कारण पैदा होने वाली बीमारियां होती हैं.
इन सुझावों का ब्यौरा पेश करते हुए सरकार ने हाई कोर्ट को यह भी बताया कि कमेटी की रिपोर्ट और स्कूल बैग को हल्का रखने के लिए सुझाए गए उपायों की केवल "अनुशंसा" की जा सकती है. यानि उन्हें अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता तो फिर इस पूरे एक्सरसाइज का क्या औचित्य था?
यह तो हुई किताबों के बोझ की बात. साल 2012 में भारत में शिक्षा का अधिकार कानून बनने से 14 साल की उम्र तक के हर बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी मिली. लेकिन एक बार इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि जिन किताबों के वजन से बच्चों की पीठ झुकी जा रही है उन किताबों में लिखा क्या है. इसका सबसे ताजा उदाहरण मिला छत्तीसगढ़ की 10वीं की किताब में, जहां देश में बढ़ती बेरोजगारी का कारण अधिक महिलाओं का नौकरियों में आना बताया गया है.
दूसरा उदाहरण 2012 में सामने आया जब राष्ट्रीय पाठ्यक्रम में शामिल 10-11 साल के बच्चों की एक किताब में मिला था कि जो लोग मीट खाते हैं वो "आसानी से धोखा देने वाले, झूठ बोलने वाले, वादे तोड़ने वाले, बेईमान, चोर, झगड़ालू और सेक्स अपराध करने वाले होते हैं." सीबीएसई निदेशक ने इसके जवाब ऐसे दिया कि पूरे देश की किताबों के कंटेट की निगरानी नहीं होती.
अगर हम किताबों में क्या लिखा है इस पर ही ध्यान नहीं देते तो फिर बच्चों को स्कूल भेजना केवल नाम की शिक्षा है. आश्चर्य नहीं कि कई पढ़े लिखे लोगों में ना तो सही गलत का भेद समझने की शक्ति आती है और ना ही किसी विषय या स्थिति का विश्लेषण करने की सूझबूझ. क्या आज धर्म, राजनीति समेत लगभग हर क्षेत्र में जिस अतिवाद और कट्टरवाद का आम नजारा देख रहे हैं उसकी जड़ में हमें दिशाहीन बनाने वाली फेल स्कूली शिक्षा ही नहीं है?
ब्लॉग: ऋतिका पाण्डेय