सिंगुर पर अदालत का फैसला, मुरझाए सपनों को पंख
३१ अगस्त २०१६अक्तूबर, 2008 में टाटा समूह ने अपनी लखटिकया परियोजना को सिंगुर से समेट कर गुजरात के साणंद ले जाने का फैसला किया था. उसके बाद बीते लगभग आठ वर्षों में सिंगुर के किसानों के जीवन और आंगन में पहली बार खुशियां पसरी हैं. लंबे अरसे तक उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच जीने के बाद अब तो इन किसानों ने अपनी जमीन वापस पाने की आस ही छोड़ दी थी. इस दौरान कई लोग दुनिया से ही चले गए. लेकिन अब लोगों को लगता है कि अदालती फैसले के बाद उनकी रूठी किस्मत एक बार फिर उज्जवल भविष्य के दरवाजे खोल सकती है.
अदालती फैसला
चार साल से चल रहे इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को वर्ष 2006 में राज्य की तत्कालीन बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार की ओर से नैनो परियोजना के लिए किसानों की लगभग एक हजार एकड़ जमीन का अधिग्रहण रद्द करते हुए 12 सप्ताह के भीतर उनकी जमीन लौटाने का निर्देश दिया है. यही नहीं, अदालत ने कहा है कि जिन किसानों को जमीन के बदले मुआवजा मिला था उनसे वह पैसा वापस नहीं लिया जाएगा. इसकी वजह यह है कि वह लोग लगभग 10 साल तक अपनी आजीविका से वंचित रहे हैं. इस मामले की अंतिम सुनवाई मई में हुई थी. उसके बाद अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा था. न्यायमूर्ति वी. गोपाला गौड़ा और अरुण मिश्र की खंडपीठ ने अलग-अलग वजहों से जमीन के अधिग्रहण को खारिज करते हुए उसे लौटाने का निर्देश दिया.
अदालत के इस फैसले को बंगाल की पूर्व वाममोर्चा सरकार की जमीन अधिग्रहण नीति पर तमाचा माना जा रहा है. उसी नीति के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन के जरिए ही ममता बनर्जी और उनकी तृणमूल कांग्रेस वर्ष 2011 के विधानसभा चुनावों में जीत कर सत्ता में आई थी. अब अदालती फैसले ने जहां ममता बनर्जी का हौसला बुलंद किया है वहीं उस जमीन के किसी अन्य परियोजना के लिए इस्तेमाल की टाटा समूह की भावी कोशिशों को भी झटका लगा है. ममता बनर्जी ने अनिच्छुक किसानों की चार सौ एकड़ जमीन लौटाने की मांग में ही आंदोलन शुरू किया था.
लेफ्ट फ्रंट सरकार ने अधिग्रहण के समय जमीन के सार्वजिनक हित में इस्तेमाल की दलील दी थी. लेकिन अदालत ने कहा कि किसी खास कंपनी के हित में जमीन का अधिग्रहण सार्वजनिक इस्तेमाल के लिए नहीं हो सकता. खंडपीठ ने माना कि अधिग्रहण के दौरान कानूनी प्रावधानों का ठीक से पालन नहीं किया गया.
सिंगुर में खुशी की लहर
अदालती फैसले से सिंगुर में खुशियों की लहर दौड़ गई है. "हम बीते आठ साल से अपने जीवन में छाए अंधेरे के मिटने का इंतजार कर रहे थे. आज हमारे जीवन में नई सुबह आई है." यह कहते हुए सिंगुर इलाके के गोपलनगर गांव के जयदेव दास की आंखों में एक बार वही सतरंगी सपने उभरने लगते हैं जो टाटा की नैनो परियोजना के एलान के समय उभरे थे. हुगली जिले का यह अनाम कस्बा कोई दस साल पहले उस समय अचानक सुर्खियों में आया था जब टाटा समूह ने यहां अपनी लखटकिया नैनो परियोजना लगाने का फैसला किया था. उस परियोजना की वजह से जमीन की कीमत आसमान छूने लगी और लोगों के सपनों में कई रंग भरने लगे.
लेकिन उसके बाद अनिच्छुक किसानों की जमीन वापस करने की मांग में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के नेतृत्व में चले लंबे आंदोलन ने वर्ष 2008 में टाटा को यह परियोजना समेटने पर मजबूर कर दिया. इसी सिंगुर आंदोलन ने वर्ष 2011 में ममता को सत्ता तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी. ममता ने सत्ता में आते ही किसानों को उनकी जमीन लौटाने का भरोसा दिया था. उन्होंने इसके लिए कानून भी बनाया था. लेकिन यह मामला तब से अदालती पचड़े में फंसा था. जमीन वापसी कानून को कलकत्ता हाईकोर्ट ने असंवैधानिक करार दे दिया था. उसके बाद लोगों की बची-खुची उम्मीदें भी खत्म हो गई थी. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने उनके जीवन में खुशियां लौटा दी हैं.
अदालत के फैसले से इलाके के किसानों को उनकी जमीन तो मिल जाएगी. लेकिन उससे उनको खास फायदा नहीं होगा. इसकी वजह यह है कि कोई एक दशक तक बेकार पड़े होने की वजह से अब उनको खेती के लायक बनाने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. लेकिन जैसा कि सिंगुर की लीना दास कहती हैं, "हमें अपने पुरखों की जमीन तो वापस मिल जाएगी. हमारे लिए यही बहुत है." इलाके के लोग इसी को अपनी जीत मान रहे हैं.