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मोदी के सामने भारत को आईना दिखा गया एक विदेशी

शिवप्रसाद जोशी२९ अगस्त २०१६

भारत सरकार के नीति आयोग ने “ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया” श्रृंखला के तहत व्याख्यान देने सिंगापुर के उपप्रधानमंत्री टी षण्मुगरत्नम को बुलाया. उन्होंने अपने तर्कों और आंकड़ों के सहारे देश के नीति नियंताओं को आईना दिखा दिया.

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तस्वीर: Reuters/A. Dave

नीति आयोग की व्याख्यान माला की यह पहल स्वागत योग्य है. खासकर ऐसे समय में, जब उस पर एक लाचार और सजावटी संस्था की तोहमतें लगती रही हैं. पूर्ववर्ती योजना आयोग जैसी शक्तियां उसके पास नहीं हैं, लेकिन “भारत को बदलने” का नारा अगर सही दिशा में और बहुआयामी बना रहे तो भला किसे ऐतराज होगा. पहले व्याख्यान के लिए षन्मुगरत्नम को चुनने की वजहों में सिंगापुर की आर्थिक बुलंदियों की भूमिका तो थी ही, उनसे मुक्त बाजार के लिए निश्चित ही कुछ टिप्स की अपेक्षाएं भी थीं. लेकिन षण्मुगरत्नम ने जो कहा उससे तो नीति आयोग के कर्ताधर्ता भी एकबारगी हैरान परेशान रह गए. एक मंझे हुए राजनीतिज्ञ और भारतीय जीवन और समाज के अध्येता की तरह बोलते हुए बाजार समर्थक नेता षण्मुगरत्नम ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में देश की आला सरकारी मशीनरी को बताया कि उनकी दिक्कत क्या है, कहां कमी है और निशाना क्यों चूका हुआ है. षण्मुगरत्नम किसी बाजार समर्थक नेता या अर्थशास्त्री की तरह नही बोले. आंकड़े, तर्क और दूरदृष्टि के साथ वो किसी समाजशास्त्री और विकास के बारे में चिंतित किसी सिद्धांतकार और एक्टिविस्ट की तरह बोले.

टी षण्मुगरत्नम का सबसे ज्यादा जोर इस बात पर था कि भारत अपने सामर्थ्य का भरपूर इस्तेमाल करने में पिछड़ा है. इसी वजह से उसकी वृद्धि दर भी पिछड़ी हुई है. चीन से तुलना करते हुए उन्होंने कहा कि आठ से दस फीसदी की वृद्धि दर के बावजूद भारत 20 साल बाद चीन की वृद्धि दर का महज 70 फीसदी ही हासिल कर पाएगा. अर्थव्यवस्था और विकास की इन रुकावटों की जड़ षण्मुगरत्नम ने माना कि शिक्षा में है. स्कूली शिक्षा की बदहाली का जिक्र करते हुए उन्होंने सुनने वालों को असहज किया. आंकड़ों के हवाले से उन्होंने बताया कि भारत में 43 फीसदी छात्र अपर प्राइमरी स्तर पर ही स्कूली पढ़ाई छोड़ देते हैं. प्राइमरी स्कूलों में सात लाख टीचरों की कमी है. 53 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट बन पाए हैं और सिर्फ 74 फीसदी स्कूलों में ही पीने का साफ पानी उपलब्ध है. षण्मुगरत्नम के मुताबिक स्कूल आज भारत में सबसे बड़ा संकट हैं और इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता.

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स्कूलों की दुर्दशा पर न जाने कितनी सरकारी समितियां, जांच रिपोर्टे, अध्ययन, कैग रिपोर्ट आ चुकी हैं, कितनी स्वयंसेवी संस्थाओं के सर्वे हो चुके हैं लेकिन हालत टस से मस होने का नाम नहीं लेते. अभी पिछले ही दिनों प्रथम नामक संस्था ने स्कूली शिक्षा के स्तर पर सर्वे किया था. यूनेस्को की एक रिपोर्ट भी इस बारे में आ चुकी है. समय समय पर प्रोफेसर यशपाल जैसे शिक्षाविद् विभिन्न सरकारों को ताकीद कर चुके हैं लेकिन किसी के कान में जूं नहीं रेंगती.

अर्थव्यवस्था का संबंध सामाजिक हालात से बताते हुए अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज जैसे अर्थशास्त्री और चिंतक अपने आकलन और अध्ययन जारी करते रहे हैं. जो बात षण्मुगरत्नम ने कही वही अलग अलग ढंग से पिछले दिनों लेखक, कलाकार, वैज्ञानिक बिरादरी कर चुकी है. अर्थनीति को समाजनीति से जोड़ने की बात आरबीआई के गर्वनर रघुराम राजन भी कर चुके हैं. सामाजिक हालात बेहतर होंगे तो देश में निवेश का माहौल भी बनेगा. वरना लोग कतराएंगे और डरेंगे. षण्मुगरत्नम इस पर भी बोलते तो अच्छा रहता. लेकिन इशारों में उन्होंने इतना जरूर कहा कि सामाजिक और राजनैतिक कल्चर में सुधार होना चाहिए.

षण्मुगरत्नम मुक्त बाजार के हिमायती नेता हैं. वे अर्थशास्त्री भी हैं. एक ऐसे देश के राजनीतिज्ञ हैं जो अर्थव्यवस्था और सामाजिक सेक्टर में निवेश में अग्रणी हैं. वो जब भारत में अपार संभावना की बात करते हैं तो उसमें सिंगापुर के लिए भी निवेश और मुनाफे का कोई कोना जरूर देखते होंगे. इन सब के बावजूद जो वो कहकर गए उसमें सच्चाई है, वो सिर्फ भाषणबाजी नहीं है जिसके हम भारतीय इन दिनों इतने आदी बन गए हैं. भारत उदय और बदलते भारत का बेशुमार शोर तो सुनियोजित रूप से फैला हुआ है लेकिन वास्तविकताएं भी उसी के आसपास बिखरी हुई हैं.

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हैरानी नीति आयोग की ही नहीं थी, हैरान तो वो संवेदनशील और ऑर्गनिक बुद्धिजीवी बिरादरी भी थी जो इस तरह की बातें उठाती रही है लेकिन उसकी बातों को या तो नजरअंदाज या खारिज या फिर देशविरोधी कह देने का चलन इधर बढ़ चला है. अपनी आलोचना सुनने के लिए प्रधानमंत्री, उनकी सरकार और उनके दिग्गज अधिकारी खामोश बैठे थे तो ये भी एक तसल्ली की बात है कि बाहर जय-जयकार का भले ही कितना शोर मचा रहे, सरकार ने अपनी आलोचना सुनने का धैर्य रखा.

अपेक्षा यही है कि सरकार इस धैर्य का विस्तार कर उन कोनों इलाकों, उन मामलों तक ले जाए जो किसी न किसी रूप से देश के समग्र विकास से जुड़े हैं. चाहे वो शिक्षा, जाति-धर्म, संस्कृति, खेल, खानपान, बोली-भाषा और व्यवहार ही क्यों न हो. नीति आयोग ने बहस और संवाद की जो परंपरा शुरू की है, सरकार को चाहिए कि वो उसे अन्य विभागों खासकर उन मंत्रालयों से जुड़े संस्थानों में भी शुरू करे जिनका सीधा संबंध आम लोगों की संस्कृति, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य से है. बहस का पर्यावरण तो बनाना ही होगा. बात बात पर मुंह फुला लेना या पत्थर लेकर दौड़ पड़ना सभ्य और विकसित समाज की पहचान नहीं हो सकती.

अगर षण्मुगरत्नम देश की स्थिति पर बेबाक राय दे सकते हैं तो अपने ही देश के लोगों पर ये रोक क्यों? फिर वो चाहे लेखक हो, कलाकार, वैज्ञानिक, छात्र या किसान कामगार, उन्हें चुप कराने वाली ताकतें कहां से और किसके इशारे पर फनक उठती हैं?

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जैसे बोलने की आजादी है, वैसे ही खाने पीने रहने पढ़ने लिखने और पहनने ओढ़ने की आजादी भी है. और ये आजादियां कोई कृपा या खैरात नहीं हैं, यही आजादियां अंतिम और सकल तौर पर देश की अर्थव्यवस्था और समाज की बेहतरी की गारंटी बनती हैं. देश सिर्फ निवेश और व्यापार से नहीं चमकता वो नैतिकता से भी चमकता है. निवेश की सत्ता जरूर हासिल करें लेकिन नैतिक सत्ता न खोएं. विकास के सच्चे पैमाने समाज में ही बिखरे हैं, उन्हें खोजकर ही सच्चे अर्थों में “बदला भारत” बनाया जा सकता है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी