1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

नरेंद्र मोदी की आलोचना करें या तारीफ?

२६ सितम्बर २०१६

प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता से शिखर तक पहुंचने में मीडिया और सोशल मीडिया की अहम भूमिका रही है, लेकिन आजकल वो वहां से उठ रही पुकारों को लगभग अनदेखा ही कर रहे हैं.

https://p.dw.com/p/2Qa0e
Indien Unabhängigkeitstag in Neu-Delhi
तस्वीर: picture-alliance/dpa/EPA/H. Tyagi

उड़ी हमले के बाद भारत में मीडिया और सोशल मीडिया युद्धोन्माद से पटे पड़े हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक जहां उनसे ‘पाकिस्तान को सबक सिखाने' की फरियाद कर रहे हैं, वहीं उनके आलोचक प्रधानमंत्री बनने से पहले की उनकी वीडियो क्लिप दिखा दिखा कर दूसरी तरह से उन पर दबाव बनाने में जुटे हैं. मीडिया और सोशल मीडिया को कसौटी मानें तो युद्ध या तो छिड़ चुका है, या बस अगले ही पल छिड़ने वाला है. कुछ मीडिया संस्थानों ने तो यहां खबर चला दी कि भारतीय सेना नियंत्रण रेखा पार कर 20 पाकिस्तानी आतंकवादियों को मार चुकी है. लेकिन जल्द ही ये खबर फुस्स हो गई.

कश्मीर के उड़ी में हुए हमले में 18 भारतीय सैनिकों की मौत पर जनता का गुस्सा स्वाभाविक है. जंग की आवाजें सिर्फ इस हमले की देन नहीं हैं, बल्कि लोग बरसों हो रहे इस तरह के हमलों से तंग आ चुके हैं. कभी मुंबई में सिलसिलेवार बम धमाके होते हैं तो कभी संसद को निशाना बनाया जाता है तो कभी 26/11 हो जाता है. जगह बदल जाती है, मरने वालों के नाम बदल जाते हैं, लेकिन हिंसा अपने उसी रूप में मौजूद होती है. और हर बार उंगली एक ही तरफ उठती है. इसलिए सब समस्याओं का एक ही समाधान नजर आता है. लेकिन क्या जंग समाधान है? इस वक्त भी दुनिया में कई जगह जंगें चल रही हैं लेकिन जंग से चीजें सुलझती नजर कहीं नहीं आतीं. और हम तो ऐसे दो देशों के जंग की बात कर रहे हैं जो परमाणु हथियारों से लैस हैं.

तस्वीरों में: युद्ध के ये विकल्प हैं भारत के पास

तो फिर समाधान क्या है. एक है समाधान सुरक्षा को चाकचौबंद बनाना. जितने भी आतंकवादी हमले भारत की सरजमीन पर हुए, उनमें सीमापार से कोई मिसाइल या गोला नहीं दागा गया. आतंकवादियों ने भारत में आकर ही उन्हें अंजाम दिया है. पहले पठानकोट और अब उड़ी, सेना के ठिकानों तक आतंकवादियों का पहुंच जाना चिंता की बात है. जंग के समर्थकों को ये भी नहीं भूलना चाहिए, भारत का एक बड़ा पड़ोसी हमेशा पाकिस्तान के पाले में खड़ा है. चीन, जिसके साथ पाकिस्तान अपनी दोस्ती को ‘समंदर से गहरी, हिमालय से ऊंची और शहद से मीठी' बताता है, और चीन ने इस बात को सही साबित करने में कभी कसर नहीं छोड़ी है. वहीं भारत शायद अमेरिका से इतनी उम्मीद नहीं कर सकता.

इसलिए भारत को जंग राजनयिक मोर्चे पर लड़नी होगी. लगता है, सरकार उसी दिशा में आगे बढ़ रही है. आज की दुनिया में लड़ाइयां आर्थिक मोर्चे पर भी लड़ी जाती है. युद्ध के मोर्चे पर शायद पाकिस्तान पीछे न हटे, लेकिन आर्थिक लिहाज से उसकी हालत बहुत खस्ता है. हाल के दिनों में पाकिस्तान को लेकर अमेरिका में अविश्वास भी बढ़ा है. अमेरिका अब तक पाकिस्तान का बड़ा मददगार रहा है. जब से पाकिस्तान ‘आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई' में अमेरिका का साथी बना है, उसे अरबों डॉलर मिले हैं. लेकिन अब घेरा तंग हो रहा है.

तस्वीरों में: कश्मीर मुद्दे की पूरी रामकहानी

यह सही है कि कई बार चुनाव या उससे पहले वादे करना जितना आसान होता है, उन्हें निभाना उतना ही मुश्किल होता है. लेकिन एकदम जंग करने जैसा फैसला सिर्फ इसलिए नहीं लिया जा सकता कि "मोदी जी ने चुनाव प्रचार के वक्त पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात कही थी". वैसे भी चुनावी वादे राजनेताओं के लिए सत्ता हासिल करने का जरिया होते है, लेकिन वो अकसर सरकार या राष्ट्र की नीतियों की बुनियाद नहीं होते. अब मोदी को देश की सत्ता संभाले लगभग ढाई साल हो गए हैं. अगर वो जंग न करने का फैसला करते हैं तो इसे वादा न निभाने की बजाय उनके राजनीतिक रूप से परिपक्व होने के रूप में भी देखा जा सकता है. हालांकि आलोचकों के लिए गले ये बात कभी नहीं उतरेगी और सोशल मीडिया पर घमासान अभी कुछ दिन और होता रहेगा.

ब्लॉग: अशोक कुमार

 

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें, यहां क्लिक करके