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ओ पाठको, हम तुम पर हंसते हैं

विवेक कुमार२० जून २०१६

ऑनलाइन मीडिया में पाठक इतना ताकतवर है जितना कभी नहीं था. लेकिन वह अपनी ताकत का इस्तेमाल कैसे कर रहा है? उसका व्यवहार कैसा है? उसकी पसंद-नापसंद कैसी है? क्या पाठक सोचता है?

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तस्वीर: AP

हम पत्रकार एक-एक शब्द, एक-एक स्टोरी पर बहस करते हैं, झगड़ते हैं, लड़ते हैं. अपने साथियों से, अपने संपादकों से और खुद से. इन सारी बहसों, झगड़ों के केंद्र में आप होते हैं, पाठक. पाठक को यह चाहिए, पाठक को यह नहीं चाहिए. पाठक ऐसा है. पाठक वैसा है. पाठक समझदार है. पाठक नासमझ है. पाठक को सिखाना है. पाठक को सिखाना नहीं है. ये हमारी रोज की बहसें हैं. दिनभर इन बहसों के बीच हम आपके लिए कहानियां लिखते हैं. और फिर... शाम को हम आपका मजाक उड़ाते हैं. आप पर हंसते हैं.

आप पत्रकारों का मजाक उड़ाते हैं ना? जब कपिल शर्मा रिपोर्टर्स पर चुटकुले सुनाता है तो खूब हंसते हैं ना? जब वीके सिंह पत्रकारों को प्रेस्टिट्यूट कहते हैं तो आपको मजा आता है ना? आप ज़ी न्यूज को छी न्यूज कहकर ठहाके लगाते हैं ना? मीडिया का एक सच बताएं आपको? इस वक्त पूरे मीडिया सीन में सबसे हास्यास्पद प्राणी अगर कोई है तो आप हैं, यानी पाठक और दर्शक. और ऐसा इसलिए है क्योंकि इस वक्त हेडलाइंस तय करने का पूरा हक आपके पास है. इस वक्त, क्या छपेगा यह आप तय कर रहे हैं.

पाठक इस वक्त सबसे ताकतवर है. इतिहास में इतनी ताकत पाठकों के पास कभी नहीं थी जितनी अब है. क्योंकि हमें पता चल जाता है कि आप क्या पढ़ रहे हैं. क्या देख रहे हैं. हम देख सकते हैं कि किस आर्टिकल को कितने लोगों ने पढ़ा. हमें पता चल जाता है कि किस तस्वीर को किस देश के किस हिस्से में कितने लोगों ने देखा. देखने वालों में युवा कितने थे, बूढ़े कितने थे, महिलाएं कितनी थीं. हमें यह भी पता चल जाता है कि किस तस्वीर को आप कितनी देर तक देखते रहे और किस आर्टिकल को आप बस हेडलाइन पढ़कर आगे खिसक लिए. ऑनलाइन मीडियम ये सारे आंकड़े, आपकी सारी आदतें, आपकी सारी हरकतें, आपकी पसंद-नापसंद एकदम खोलकर हमारे सामने परोस देता है.

और इसी के आधार पर हम तय करते हैं कि क्या लिखा जाना है. क्या छापा जाना है. अब वह जमाना नहीं रहा जब एक कमरे में बैठकर पांच लोग तय करते थे कि अगले दिन 40 पन्नों को किन अल्फाज से पोता जाएगा. अब अगर हम अपनी मर्जी चलाते हैं तो आप हमें खारिज कर सकते हैं. अगर हम आपकी पसंद का नहीं लिखते हैं तो शाम को संपादक हमें कहता है कि तुम्हारी लिखी फलां स्टोरी को सिर्फ इतने लोगों ने पढ़ा, इसलिए उस स्टोरी पर काम करना वक्त जाया करना था. हर संपादक और ईमानदारी से कहूं तो हर पत्रकार भी ऐसा कुछ लिखना चाहता है जिसे ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़ें. और ऑनलाइन मीडियम से हमें इसकी जानकारी मिलती है. पल-पल मिलती है कि क्या पढ़ा जा रहा है.

इसलिए, जब आप कॉमेंट करते हैं कि फलां साइट सेक्स ही परोसती है तो हम हंसते हैं. क्योंकि वही खबर जिस पर आप यह कॉमेंट कर रहे हैं, सबसे ज्यादा पढ़ी या देखी गई होती है. आपके व्यवहार में पाखंड है जो हमें दिखता है. बल्कि गुस्ताव फ्लाबर्ट ने आपके बारे में बिल्कुल सही कहा है कि जनता वही चाहती है जो उसके भ्रम को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाए. जानते हैं आप क्या हैं? आप वही हैं जिन्हें नीत्शे सबसे खराब पाठक बताते हैं, वही सबसे खराब पाठक जो रौंदती हुई सेनाओं की तरह आते हैं और अपने काम की थोड़ी सी चीजों को उठाते हैं और फिर सारे लिखे हुए को कोसते हैं. आप बिल्कुल यही करते हैं. आप किसी वेबसाइट पर छपीं 10 में से उन नौ कहानियों को नहीं पढ़ते हैं जिनमें सीरिया के मरते बच्चों की बात हो, या इराक की सिसकती औरतों की दास्तान हो या भारत के सूखे से सूखते किसानों की कहानियां हों. आप उस एक स्टोरी को पढ़ते हैं जिसमें सेक्स करने या ना करने के फायदे और नुकसान बताए जाते हैं. उसके बाद आप पूरी वेबसाइट को गालियां देते हुए निकल जाते हैं.

लेकिन अगले दिन फिर 10 में से एक स्टोरी वैसी ही होगी क्योंकि सबसे ज्यादा तो वही देखी-पढ़ी गई. आप फिर वे 9 कहानियां नजरअंदाज कर देंगे.

जानते हैं, हम क्या सोचते हैं? हम सोचते हैं कि हमारी ऑडियंस, हमारा पाठक बहुत बुद्धिमान है. उसे पता है कि उसे क्या चाहिए. आप बताइए, क्या हम सही सोचते हैं?

विवेक कुमार

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