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एक कश्मीर कश्मीरी पंडितों का भी

राहुल पंडिता१८ जुलाई २०१६

क​श्मीर की जटिल राजनीतिक पहेली का एक पहलू कश्मीरी पंडितों के दमन के साथ भी जुड़ा है. जानें इसी समुदाय से आने वाले पत्रकार राहुल पंडिता कश्मीर की इस पहेली को कैसे देखते हैं.

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Iran UGC Srinagar
तस्वीर: Mohammadreza Davari

एक कश्मीरी होने के नाते कश्मीर के मौजूदा हालातों को देखना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. बुरहान वानी की मुठभेड़ में हुई मौत के बाद घाटी में जो कुछ घट रहा है यह एक सिलसिले की कड़ी है, जो 1990 में अलगाववादी चरमपंथ के उभार के बाद से शुरू हुआ है. हालांकि इसके बीज 1947 में बंटवारे के बाद से कश्मीर में आकार लेते गए जटिल राजनीतिक हालात में हैं.

कट्टर चरमपंथ का उभार

कश्मीर में पिछले कुछ सालों में हालत बेहद खराब होती गई है. और यह हाल 1990 की स्थिति से बहुत अलग है. 1990 में जो लोग सीमा पार गए और ​ट्रेनिंग लेकर वापस आए, उनमें से ज्यादातर समाज के लुंपिन तत्व थे. उन्हें कुछ खास समझ नहीं थी, जेहन में सिर्फ ये खयाल था कि कश्मीरी पंडितों को बाहर भगाना है. भारत से जुड़े किसी भी किस्म के प्रतीकों को घाटी से हटाना है और वहां के समाज को मुस्लिम मान्यताओं के आधार पर एकरूप बनाना है. उनकी यही मंशा थी और वे इसमें काफी हद तक कामयाब भी हुए.

लेकिन अभी यह जो नए दौर का चरमपंथ है, बुरहान वानी वाला दौर, यह कई गुना ज्यादा कट्टर चरमपंथी है, उन लोगों की तुलना में जिन लोगों ने 1990 में घाटी में आतंकवाद की शुरुआत की. और असल में यह बहुत ही चिंताजनक बात है.

किसकी तरफदारी

अब बात आती है कि जो हिंदुस्तान और कश्मीर में भी सिविल सोसाइटी के लोग हैं आज वो किसकी तरफदारी कर रहे हैं. वो तरफदारी कर रहे हैं एक ऐसे युवा की जिसने इस्लाम के नाम पर बंदूक उठाई और जो एक ऐसे आतंकवादी संगठन का सदस्य बना जिसने अल्पसंख्यक लोगों को बसों से निकाल निकालकर मौत के घाट उतारा है. ये वे लोग हैं जिनकी स्पष्ट मंशा है, कश्मीर को एक ​इस्लामी खिलाफत का हिस्सा बनाना. ऐसे में अगर आप उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कहते हैं, चे ग्वेरा से उनकी तुलना करते हैं तो यह बचकानी बात है. इसे कैसे स्वीकारा जा सकता है?

कश्मीरी पंडितों का सवाल

Indien Kaschmir Auseinandersetzungen in Srinagar Polizeioffizier sichert
तस्वीर: Mohammadreza Davari

इस बात को कश्मीरी पंडितों के सवाल से जोड़कर भी समझा जा सकता है. कश्मीर के इस अल्पसंख्यक समुदाय से जुड़े होने के नाते मैं इसे गहरे से समझ सकता हूं. 90 के दशक का शुरुआती दौर मेरे लिए भी बेहद निराशा का दौर था. घाटी में कश्मीरी पंडितों का वहां की चरमपंथी अलगाववादी शक्तियों ने भयानक दमन किया. वे घाटी छोड़ने को मजबूर हुए.

निराशा इस बात की ज्यादा थी कि इस भयानक दमन को झेलने के बाद भी ऐसा कोई नहीं था जो कश्मीरी पंडितों के साथ खड़ा था. वामपंथी पार्टियां जो​ कि दुनिया भर में अल्पसंख्यकों के साथ खड़े रहने का दावा करती हैं, वे बिल्कुल उदासीन रहीं, इन्होंने चुप्पी साध ली. कांग्रेस का भी यही रुख था और देश की सिविल सोसाइटी भी इस सवाल से मुंह मोड़े रही.

ऐसे में भारतीय जनता पार्टी ने इस मौके को हाथों हाथ लिया. यह ठीक वही दौर था जब यह पार्टी राम मंदिर आंदोलन छेड़े हुए थी. भारत के हिंदू समाज को गोलबंद करने के लिए यह दोनों मुद्दे कारगर हथियार साबित हुए. भाजपा कांग्रेस के बरक्स एक विकल्प के बतौर राष्ट्रीय पार्टी बनकर उभरी.

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तस्वीर: Mohammadreza Davari

भाजपा के लिए कश्मीर के मसले पर ​इस गोलबंदी का सबसे महत्वपूर्ण औजार था कश्मीरी पंडितों का मसला. यह एक संयोग था कि कश्मीरी पंडितों का मसला सिर्फ भारतीय जनता पार्टी ने अपने निहित स्वार्थों के लिए उठाया. लेकिन असल अर्थों में भारतीय जनता पार्टी की चिंता कश्मीरी पंडितों की बिल्कुल भी नहीं रही है. उसकी चिंता हमेशा कश्मीरी पंडितों को अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की रही है और उसने भरपूर इस्तेमाल किया भी है. उनकी वापसी के प्रति वह बिल्कुल भी प्रतिबद्ध नहीं दिखती. आज केंद्र में इतने मजबूत बहुमत और राज्य में भी गठबंधन में शामिल भाजपा कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए कोई प्रयास करती नहीं दिख रही.

इस पूरे दौर में जाहिर सी बात है कि भाजपा ने हमारी बात की तो हमारे समुदाय का एक छोटा धड़ा उनकी ओर आकर्षित हुआ. लेकिन यह कहना भी कि कश्मीरी पंडितों में सारे ही दक्षिणपंथी हैं यह बिल्कुल भी ठीक नहीं है. रही बात कश्मीरी पंडितों की वापसी की. जिस तरह के हालात वहां हैं, दरार और बढ़ गई है. ऐसे में मुझे नहीं लगता कि कश्मीरी पंडितों की वापसी निकट भविष्य में संभव हो पाएगी.

जटिल राजनीतिक भूगोल

मैं एक पत्रकार हूं और मैं बहुत ही व्यावहारिक तौर पर कुछ ​बातें कहना चाहूंगा. कश्मीर का एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा है जो खुद को बतौर 'भारत का हिस्सा' नहीं देखता. चाहे वो धर्म हो या कोई और कारण हो वहां पर पाकिस्तान को लेकर ज्यादा सौहार्द है. एक दूसरा वर्ग है जिसे मैं अंग्रेजी में 'करियर सैपरेटिस्ट' कहता हूं जिन्होंने अलगाववाद को अपना करियर बनाया है. जो आजादी की बात करते हैं. उनको भी अपने दिल में पता है कि राजनीतिक भूगोल के लिहाज से यह कभी संभव नहीं है.

हम कुछ देर के लिए मान भी ​लें ​कि भारत बहुत बड़ा निर्णय लेकर कश्मीर को आजाद कर भी दे तो कश्मीर जैसा जमीन का छोटा सा टुकड़ा जो कि राजनीतिक भूगोल के लिहाज से इतना अहम है, ​क्या उसको कोई उसको आजाद रहने देगा? 1947 के अनुभव से हमें मालूम है कि अगर भारत वहां से अपनी सेना हटा देता है तो 24 घंटे के अंदर अंदर पाकिस्तान या चीन या दोनों वहां मौजूद होंगे. तो उनका आजाद रहना संभव नहीं होगा. ये तो मैं यूटोपिया की बात कर रहा हूं. जबकि यह हर कोई जानता है कि कश्मीर से भारत अपना हक छोड़ दे यह संभव है ही नहीं. 1947 में यह संभव था लेकिन तब कबायलियों के हमले से बचने के लिए वहां लोगों ने भारत के साथ आने का फैसला किया. जिस दिन भारत की सेना ने श्रीनगर के हवाईअड्डे पर लैंड किया उसी दिन कश्मीर का भविष्य उसके साथ जुड़ गया था. अब इस जोड़ को तोड़ना कश्मीर के राजनीतिक भूगोल के महत्व के चलते संभव नहीं है.

कश्मीर का दुर्भाग्य

जो मौजूदा तनाव है यह कुछ दिनों में ठंडा पड़ जाएगा. ऐसा ही पहले भी हुआ है, जैसे 2008 में भी अमरनाथ यात्रा को लेकर इसी तरह की समस्या खड़ी हुई पर फिर ठंडी पड़ गई. 2010 में भी ऐसा ही हुआ और अफजल गुरू की फांसी के बाद भी यही हुआ.

कश्मीर का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि कश्मीर एक ऐसी जगह बन गया है कि इससे जुड़ी कई महत्वपूर्ण ताकतों को इसकी समस्या के हल होने से कोई लाभ नहीं है. बतौर राज्य भारत और पाकिस्तान के अलावा मुख्यधारा के राजनेता हैं, अलगाववादी संगठन हैं और भारतीय रक्षा बलों में भी कई ऐसे तत्व हैं जो नहीं चाहते कि यह मुद्दा हल हो.

न्यू एज मिलिटेंसी

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Khan

कश्मीर के टिप्पणीकारों का कहना है कि यह न्यू एज मिलिटेंसी है और यह काफी चिंताजनक है. वाकई हालात चिंताजनक हैं लेकिन ये हालात बिल्कुल भी ऐसे नहीं हैं कि जिनको भारतीय राज्य ना संभाल पाए. हमने देखा है कि इस तरह के चरमपंथी आंदोलनों को लेकर भारतीय राज्य का एक ही तरह का रुख होता है चाहे कोई भी पार्टी नई दिल्ली में सत्ता में हो. चाहे वो कांग्रेस हो या भाजपा. नागालैंड में नागा प्रतिरोध भारतीय राज्य से भी पुराना है. उसके बारे में भी भारतीय राज्य का वही रवैया है. वह ​हाथी की तरह व्यवहार करता है. अपने रास्ते पर चलता रहता है. उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं है. वह बहुत सक्षम है. इतना बड़ा राज्य है. इतना ताकतवर है. उसके पास सुरक्षाबल है, उसके पास पैसा भी है सुरक्षाबल को देने के लिए. सुरक्षा बलों की जान का नुकसान भी वह झेल सकता है.

वहीं दूसरी ओर हुआ यह है कि पिछले कुछ सालों में कश्मीर में पुलिस ने आतंकवाद की रीढ़ तोड़ दी है. आर्मी ने नहीं सीआरपीएफ ने नहीं बल्कि स्थानीय पुलिस ने. और इसमें कई मुसलमान पुलिस अधिकारियों का बड़ा योगदान है.

हम कई सालों से इस बात की वकालत करते आ रहे हैं कि भारत को भी वहां सकारात्मक कदम उठाने चाहिए. पहला कदम यह हो सकता है कि कम से कम श्रीनगर शहर से आर्म्स फोर्स स्पेशल पावर एक्ट को हटा देना चाहिए. लेकिन संकट यह है कि हम जैसे लोगों के लिए आफ्सपा को खत्म करने की वकालत करना भी कठिन हो जाता है ​जब कश्मीर के लोग चरमपंथियों को बचाने के लिए पत्थर लेकर सुरक्षाबलों पर टूट पड़ते हैं.

आत्ममंथन की जरूरत

Indien Kaschmir Srinagar Konflikt Ausschreitungen Demonstration
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/D. Yasin

दरअसल आज कश्मीरी अवाम को आत्ममंथन की जरूरत है कि उनका भविष्य किसके साथ ज्यादा सुरक्षित है. मैं नहीं मानता कि भारत का लोकतंत्र कोई अभीष्ट लोकतंत्र है. लेकिन प्रश्न यह है कि ​कश्मीर के लोगों के पास जो दूसरे विकल्प हैं उनके साथ तो और गहरी निराशा हाथ लगे​गी.

भारत में हर हिस्से में यहां समस्या है. मैं नक्सली समस्या पर लिखता पढ़ता रहा हूं. मैं कश्मीरियों से हमेशा यह बहस करता हूं कि असल अर्थों में भारत के दूसरे हिस्सों की तुलना में आपकी समस्या बहुत छोटी है. आप भारत को एक मौका दीजिए, क्योंकि पाकिस्तान के जो हाल हैं आप को दिखाई देने चाहिए. वहां 1947 के बंटवारे के दौरान जो मुसलमान गए, वे मुहाजिर कहलाते हैं. वहां शिया मुसलमानों के ​क्या हाल हैं? पाकिस्तान अधिग्रहीत कश्मीर में उनके क्या हाल हैं? वहां वह रह भी नहीं पाए, पूरा इलाका पंजाबियों ने हथिया लिया है.

मेरा मानना है कि पाकिस्तान या कथित आजाद कश्मीर के बजाय भारत के साथ रहने में आम कश्मीरी के हक ज्यादा सुरक्षित रहेंगे. तो इसी दायरे में रह कर बात होनी चाहिए. आजाद कश्मीर का खयाल व्यावहारिक नहीं है इसे इसे छोड़ देना चाहिए. साथ ही भारतीय राज्य को बेहद संवेदनशील होने की जरूरत है. उसे कश्मीरियों का विश्वास जीतना है. उसे भी अपना रवैया बदलना होगा. हालांकि मैं भरपूर आशा के साथ देखता हूं लेकिन फिर भी मौजूदा हालातों के मुताबिक मुझे हाल फिलहाल कश्मीर को लेकर उम्मीद की कोई किरण नजर नहीं आती.

राहुल पंडिता

(अवर मून हैज ब्लड क्लॉट्स के लेखक और पत्रकार, आलेख रोहित जोशी से बातचीत पर आधारित)