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मीडिया

नोटबंदी का असर: दहशत में भारतीय प्रिंट मीडिया

प्रभाकर मणि तिवारी
१० जनवरी २०१७

वर्ष 2017 की शुरुआत भारत में प्रिंट मीडिया के लिए अच्छी नहीं रही है. खासकर नोटबंदी के बाद कई छोटे-बड़े मीडिया हाउस तो बंदी के कगार पर हैं ही, बड़े समूहों ने भी छंटनी और तालाबंदी शुरू कर दी है.

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तस्वीर: Getty Images

हिंदुस्तान टाइम्स जैसे बड़े घराने की ओर से अचानक अपने सात ब्यूरो और संस्करणों को बंद करने के एलान से प्रिंट मीडिया दहशत में है. दूसरी ओर, आनंदबाजार पत्रिका समूह ने भी बड़े पैमाने पर छंटनी शुरू की है जिसका असर उसके अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ पर साफ नजर आने लगा है. बीते दिनों टाइम्स समूह के मालिक विनीत जैन ने अपने ट्वीट में विज्ञापनों की आय घटने की बात कही थी. उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स के संस्करण बंद करने के फैसले का भी समर्थन किया है. अब इस सवाल पर बहस शुरू हो गई है कि क्या नोटबंदी भारतीय प्रिंट मीडिया के लिए खलनायक साबित हो रही है.

हिंदुस्तान टाइम्स का फैसला

मीडिया के हलके में हिंदुस्तान टाइम्स के कुछ संस्करण बंद होने के कयास तो बीते महीने ही लगाए जा रहे थे. इसकी वजह यह थी कि बिड़ला समूह की इस कंपनी ने कर्मचारियों की छंटनी की अभियान चलाया था. लेकिन साल के पहले सप्ताह के दौरान ही प्रबंधन ने अचानक में कई ब्यूरो समेत अपने सात संस्करणों को बंद करने का एलान कर मीडिया के दिग्गजों को भी हैरत में डाल दिया. जिन संस्करणों को बंद करने का फैसला किया गया उनमें भोपाल, इंदौर, रांची, कानपुर, वाराणसी और इलाहाबाद के अलावा कोलकाता संस्करण शामिल हैं. उत्तर प्रदेश में अहम विधानसभा चुनावों से पहले वहां तीन-तीन ब्यूरो और संस्करण बंद करने का फैसला काफी अहम है. अब नौ जनवरी को ये संस्करण आखिरी बार बाजार में आए थे.

इस फैसले के पीछे हिंदुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने जो दलील दी है वह गले से नीचे नहीं उतरती. तमाम कर्मचारियों को भेजे गए एक मेल में कंपनी ने कहा है कि डिजिटल भविष्य पर ध्यान केंद्रित करने और बाकी प्रमुख संस्करणों को मजबूत करने के लिए यह फैसला करना पड़ा है. कंपनी के इस एक फैसले की वजह से एक हजार से ज्यादा पत्रकारों व गैर-पत्रकारों को नौकरियां एक झटके में खत्म हो गई हैं. प्रबंधन ने इससे पहले अखबार के बिजनेस ब्यूरो को बंद कर उसे अपने सहयोगी अखबार मिंट को आउटसोर्स कर दिया था. खर्च में कटौती के लिए बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (बीसीजी) की सलाह पर उक्त फैसला किया गया.

आनंदबाजार समूह

जानकार सूत्रों के मुताबिक आनंद बाजार पत्रिका समूह ने भी बड़े पैमाने पर छंटनी की योजना बनाई है. यह समूह बांग्ला के सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार आनंद बाजार पत्रिका के अलावा अंग्रेजी अखबार द टेलीग्राफ का भी प्रकाशन करता है. साथ ही एबीपी आनंद समेत कई टीवी चैनल और पत्रिकाएं भी हैं. सूत्रों का कहना है कि खर्च में कटौती और छंटनी की यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. अ्रखबारों पर इसका असर भी साफ नजर आने लगा है. द टेलीग्राफ की रविवारीय पत्रिका ग्रैफिटी बंद हो गई है और अखबार के पेज भी घटा दिए गए हैं. समझा जाता है कि समूह ने लगभग पांच सौ कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखाने का फैसला किया है.

इसके साथ ही टाइम्स समूह ने भी नई नियुक्तियों पर रोक लगा दी है. प्रबंधन मोटा वेतन पाने वाले कर्मचारियों के वेतन में कटौती पर भी विचार कर रहा है. हिंदुस्तान टाइम्स से होड़ का कोई मौका नहीं चूकने वाले इस समूह के मालिक विनीत जैन ने हिंदुस्तान के फैसले का समर्थन किया है. उन्होंने मौजूदा परिस्थिति के लिए नोटबंदी को जिम्मेदार ठहराया है. इससे पहले वे नोटबंदी का प्रिंट मीडिया पर प्रतिकूल असर पड़ने की बात भी कह चुके हैं. उन्होंने बीते दिनों अपने एक ट्वीट में कहा था, "वेज बोर्ड और नोटबंदी के बोझ से प्रिंट मीडिया को खतरा पैदा हो गया है." जैन ने सरकार से प्रिंट मीडिया को करों में छूट देने की मांग की है. इस उद्योग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि खासकर नोटबंदी के बाद विज्ञान से मिलने वाले राजस्व में भारी गिरावट दर्ज की गई है. इसका असर तो कहीं न कहीं पड़ना ही है.

विरोध

विभिन्न पत्रकार संगठनों ने हिंदुस्तान टाइम्स प्रबंधन के फैसले को गैर-कानूनी बताते हुए इसका विरोध किया है. इंडियन जर्नलिस्ट एसोसएिशन (आईजेए) ने अचानक की गई इस तालाबंदी को श्रम कानूनों का उल्लंघन करार देते हुए इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन का एलान किया है. आईजेए अध्यक्ष एस.एन. सिन्हा कहते हैं, "मुनाफे में चलने के बावजूद प्रबंधन की ओर से इन संस्करणों को बंद करने का फैसला श्रम कानूनों और वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट का उल्लंघन है." कई अन्य संगठनों ने भी इसका विरोध किया है. इन संगठनों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की है ताकि हजारों पत्रकारों को भुखमरी के कगार पर पहुंचने से बचाया जा सके. 

मौजूदा फैसले को हाल के वर्षों में भारतीय मीडिया का सबसे बड़ा फैसला माना जा रहा है. इसके साथ ही इस बात पर भी बहस हो गई है कि क्या इसके लिए नोटबंदी जिम्मेदार है. कम से कम बड़े अखबारी घराने तो यही मानते हैं. लेकिन उद्योग से जुड़े सूत्रों का कहना है कि इसके लिए नोटबंदी के अलावा कई अन्य कारक भी जिम्मेदार हैं. इस वर्ग की दलील है कि उपभोक्ताओं और पाठकों की आदतों में तेजी से बदलाव के चलते प्रिंट उद्योग एक अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ रहा है. वह अपने समर्थन में अमेरिका में वर्ष 2008 से 2010 के बीच 166 अखबारों के बंद होने की मिसाल देते हैं. एक ताजा सर्वेक्षण में कहा गया है कि अमेरिका में 18 से 29 आयुवर्ग के महज पांच फीसदी पाठक ही खबरों के लिए प्रिंट मीडिया का सहारा लेते हैं.