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भारत में दवा की जगह दारू को तरजीह देते हैं लोग!

प्रभाकर मणि तिवारी
४ नवम्बर २०१६

ग्रामीण इलाके में स्वास्थ्य के मुकाबले शराब और तंबाकू पर तीन गुनी ज्यादा रकम खर्च कर रहे हैं. एक ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट में यह बात सामने आई है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Adhikary

देश में बोलचाल की भाषा में कई ऐसे युग्म शब्दों का इस्तेमाल होता है जिनमें दूसरा शब्द भी मूल रूप से पहले शब्द का ही पर्याय होता है. चाय-वाय, नाश्ता-वास्ता और खान-पान समेत ऐसे सैकड़ों शब्दों का रोजाना धड़ल्ले से इस्तेमाल होता है. ऐसा ही एक शब्द है दवा-दारू जिसका इस्तेमाल चोटों और बीमारियों से इलाज के संदर्भ में होता है. लेकिन लगता है देश के ग्रामीण इलाकों के लोग इन दोनों का संधिविच्छेद कर दूसरे शब्द यानी दारू को उसके शाब्दिक अर्थ में ही ले रहे हैं. यही वजह है कि ग्रामीण इलाके में स्वास्थ्य के मुकाबले शराब और तंबाकू पर तीन गुनी ज्यादा रकम खर्च कर रहे हैं. एक ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट में यह बात सामने आई है.

रिपोर्ट

प्राथमिक शोध और आंकड़ों का विश्लेषण करने वाली कंपनी क्रोम डाटा एनालिसिस एंड मीडिया (क्रोम जीएम) की ओर से ग्रामीण जीवनशैली पर किए गए सर्वेक्षण की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के ग्रामीण इलाकों में लोग हर महीने 140 रुपये शराब पर खर्च करते हैं और 196 रुपये तंबाकू पर. लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं पर यह खर्च महज 56 रुपये है. इसके अलावा औसत परिवार हर महीने उपभोक्ता सामग्री पर पांच सौ रुपये खर्च करता है. दवाओं समेत दूसरी वस्तुओं पर उसका मासिक खर्च महज 196 रुपये है. इसमें कहा गया है कि शहरों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में त्वचा की देख-रेख और सौंदर्य प्रसाधन सामग्री पर बहुत मामूली खर्च (हर महीने 36 रुपये) होता है.

रिपोर्ट के मुताबिक, ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग खाद्य सामग्री में दूध खरीदने पर बहुत कम खर्च करते हैं. वह लोग ज्यादातर इसके लिए अपने पशुओं पर ही निर्भर हैं. क्रोम डीएम के प्रबंध निदेशक पंकज कृष्ण कहते हैं, "ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कम होने की एक प्रमुख वजह यह है कि वहां लोग अब भी एलोपैथिक दवाओं की बजाय इलाज के लिए घरेलू व प्राकृतिक उपायों को ही तरजीह देते हैं."

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उक्त सर्वेक्षण 19 राज्यों में फैले 50 हजार गांवों में किया गया. इसमें कहा गया है कि उन इलाकों के महज एक फीसदी परिवार साल में सौंदर्य प्रसाधन सामग्री पर एकत हजार या उससे ज्यादा रकम खर्च करते हैं जबकि 63 फीसदी लोगों के मामले में यह खर्च चार सौ रुपए से भी कम है. कृष्णा कहते हैं कि ग्रामीण इलाकों में सौंदर्य प्रसाधन सामग्री अब भी लक्जरी की श्रेणी में आते हैं. आय कम होने की वजह से सबसे ज्यादा कटौती इसी में की जाती है. इसके अलावा उन इलाकों में ब्रांडेड कंपनियों के उत्पाद भी उपलब्ध नहीं होते.

वैसे कुछ महीने पहले सौंदर्य प्रसाधन के इस्मेतामल के बारे में हुए एक अन्य सर्वेक्षण से यह बात सामने आई थी कि शहरी इलाकों में औसत तबके के लोग इस पर हर महीने 150 रुपये खर्च करते हैं. ताजा रिपोर्ट से तुलना करें तो ग्रामीण इलाकों के मुकाबले यह खर्च चार गुने से ज्यादा है. लेकिन शहरी मध्यवर्ग के मामले में यह खर्च 75 रुपये प्रति माह है.

बढ़ता बाजार

भारत में खाने-पीने की वस्तुएं, साबुन, सर्फ, शैंपू और बालों में लगाने वाले तेल जैसी तेजी से बिकने वाली उपभोक्ता सामग्री (एफसीएमजी) का बाजार 3.20 लाख करोड़ का है.  ग्रामीण इलाकों में मुख्य रूप से छोटी कीमत वाले पैक ही बिकते हैं. बावजूद इसके इस बाजार में ग्रामीण भारत का हिस्सा 36 फीसदी है. समाजशास्त्रियों का कहना है कि ग्रामीण उपभोक्ताओं की आय में इजाफे के साथ वह धीरे-धीरे शहरी मध्यवर्ग से होड़ ले रहे हैं. मिसाल के तौर पर पहले जो लोग दो रुपये का शैंपू का पैक खरीदते थे वहीं अब बड़ा पैक खरीदने लगे हैं. एक समाजशास्त्री प्रोफेसर मनीष भट्टाचार्य कहते हैं, "आय बढ़ने के साथ अब ग्रामीण उपभोक्ता भी औसत शहरी मध्यवर्ग की कतार में शामिल होने लगा है. यह प्रक्रिया धीमी लेकिन नियमित है."

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विशेषज्ञों का कहना है कि ग्रामीण बाजार शहरी बाजारों के मुकाबले तेजी से बढ़ रहा है. बीते दो साल से मानसून बेहतर नहीं होने के बावजूद ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर कोई खास प्रतिकूल असर देखने में नहीं आया है.

एक अर्थशास्त्री दिवाकर मंडल ग्रामीण इलाकों में शराब पर होने वाले खर्च का जिक्र करते हुए कहते हैं, "यह भी ग्रामीण इलाकों में औसत परिवारों की बढ़ती आय का संकेत है." वह कहते हैं कि जहां तक स्वास्थ्य पर खर्च कम होने का सवाल है इसकी दो प्रमुख वजह हैं. पहली वजह तो यह है कि लोग घरेलू उपचार को ही प्राथमिकता देते हैं. इसके अलाव ग्रामीण इलाकों में सरकारी व निजी स्वास्थ्य सुविधाएं बदहाल हैं. ज्यादातर स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर, नर्स और दवाओं की भारी कमी है. ऐसे में लोग उन अस्पतालों का चक्कर काटने की बजाय प्राकृतिक व घरेलू इलाज ही चुनते हैं. 

विशेषज्ञों का कहना है कि ग्रामीण इलाकों में पहले तो स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर बनाना जरूरी है. इसके साथ ही आम लोगों को स्वास्थ्य के मुद्दे पर गैर-सरकारी संगठनों को साथ लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए. ऐसा नहीं होने तक लोग दवा-दारू में से दवा की जगह दारू को ही तरजीह देंगे.