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साहित्य

फ्रैंकफर्ट मेले में हरे हुए एक भारतीय के जख्म

विवेक कुमार
२१ अक्टूबर २०१६

फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में भारतीय साहित्य का हाल देखकर दुख होता है. ना कोई पढ़ने लायक चीज है ना बेचने वाले.

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Deutschland Frankfurt Buchmesse 2016
तस्वीर: DW/V. Kumar

फ्रैंकफर्ट में दुनिया के सबसे बड़े पुस्तक मेले में घूमते हुए एक भारतीय के तौर पर गर्व की जरा भी अनुभूति नहीं होती. दर्जनों लेखक. सैकड़ों प्रकाशक. हजारों किताबें. और लाखों दर्शक. लेकिन ऐसा कुछ नहीं जिसे देखकर आप एक भारतीय होने के नाते दूसरों को दिखा सकें. पूरे मेले में आप ऐसा कुछ खोजते हुए घूमते रहते हैं. जो कुछेक भारतीय प्रकाशक हैं, उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए आप अंदर जाना चाहें. ज्यादातर के पास तो बच्चों की किताबें थीं. कैसी किताबें? लर्न अल्फाबेट्स. लर्न टेबल्स. मैप्स ऑफ द वर्ल्ड. और बच्चों के लिए जिस तरह का साहित्य यूरोप या पश्चिम में रचा जा रहा है, उसके मुकाबले वे किताबें कहीं भी नहीं ठहरतीं. इसलिए आप यही सोचते हुए वहां से गुजर जाते हैं कि ये किताबें यहां क्यों हैं.

Deutschland Frankfurt Buchmesse 2016 - Buchcover Kafka in Ayodhya von Zafar Anjum
यह किताब सिंगापुर के 'किताब इंटरनेशनल' ने छापी हैतस्वीर: DW/V. Kumar

इस पुस्तक मेले में अधिकतर बड़े भारतीय प्रकाशक आए ही नहीं. और सही ही किया. उनके पास ऐसा क्या है जिसे दुनिया का पाठक पढ़ना चाहेगा? अंग्रेजी में अगर अच्छा लिखने वाले भारतीय हैं तो उन्हें भारतीय प्रकाशकों की जरूरत ही कहां है. और जो हिंदी में अच्छा लिखा जा रहा है, उसे दुनिया की बाकी जबानों तक पहुंचाने की कोई कोशिश नजर तो कम से कम नहीं आती. लेकिन ऐसी कोशिश हो भी क्यों! भारत में 5000 प्रतियां बेचकर भले ही आप बेस्ट सेलर हो जाएं, दुनिया आपको पूछेगी भी नहीं क्योंकि जो किताब अपनी भाषा के लोगों को अपनी ओर नहीं खींच पा रही है, उसे बाकी दुनिया क्यों पढ़ना चाहेगी? और वह भी तब जबकि उनके पास पढ़ने के लिए विकल्पों की कोई कमी नहीं है. अमेरिका या यूरोप ही नहीं, बाकी दुनिया से भी क्या शानदार साहित्य आ रहा है. तुर्की, ईरान और स्पैनिश देशों के स्टॉल्स पर भीड़ बताती है कि वहां के साहित्य में लोगों की कितनी दिलचस्पी होगी. लैटिन अमेरिकी देशों की किताबें हाथोहाथ बिक रही थीं. उनके लेखकों के इंटरव्यू हो रहे हैं. डिस्कशन हो रहे हैं जिनमें लोग सवाल पूछ रहे हैं. और ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि लेखक अच्छा लिख रहे हैं. प्रकाशक भी तो उन्हें बढ़ावा दे रहे हैं. वे अपने लेखकों को मेले में लाए हैं ताकि लोगों से उन्हें मिलवा सकें. इस पर पैसा खर्च होता है. और मेला देखकर तो यही लगता है भारतीय प्रकाशक पैसा खर्चने को तैयार नहीं हैं.

Deutschland Frankfurt Buchmesse 2016
तस्वीर: DW/V. Kumar

भारतीय प्रकाशकों से बात करने पर पता चलता है कि मेले में आए ज्यादातर लेखक वही हैं जो सोच रहे हैं कि ऐसा कुछ विदेशी साहित्य मिल जाए जो भारत में बेचा जा सके. लेकिन भारत में कितना विदेशी साहित्य बिकता है, नियमित पढ़ने वाले जानते ही हैं. ढंग का कोई अनुवाद कितना कम हो रहा है. भारतीय पुस्तक मेलों में आप अच्छी विदेशी किताबों का अनुवाद देखने को तरस जाएंगे. यह तो भला हो अमेजन का कि पढ़ने वालों के लिए पूरी दुनिया का साहित्य आसानी से उपलब्ध हो गया है, इसलिए वे लोग कम से कम अंग्रेजी में तो पढ़ ही पा रहे हैं. भारतीय प्रकाशकों और खासकर हिंदी प्रकाशकों के रहमोकरम पर तो नहीं ही रहा जा सकता. लेकिन समस्या कहां है? लिखने वाले अच्छे नहीं हैं? छापने वाले अच्छे नहीं हैं? पढ़ने वाले अच्छे नहीं हैं? अनुवादक अच्छे नहीं हैं? खैर, ये सवाल तो भारतीय साहित्य के पुरातन सवाल हैं. सवाल नहीं, असल में जख्म हैं जो फ्रैंकफर्ट ने हरे कर दिए हैं.