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चुनौती भरी है भारत में सबको मकान की राह

शिवप्रसाद जोशी
२८ फ़रवरी २०१७

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 तक सबको मकान का आश्वासन दिया है, लेकिन कहीं परियोजना के लिए धन का अभाव है तो कहीं मदद पाने वालों की फोटो पहचान का सवाल रोड़े अटका रहा है.

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Symbolbild Armut in Indien
तस्वीर: Fotolia/OlegD

मकान बनाने के लिए सरकारी सहायता देने प्रधानमंत्री आवास योजना के अधिकारी जब उत्तराखंड में बुर्का पहनने वाली महिलाओं के बीच पहुंचे तो उन्हें एक अजीबोगरीब स्थिति का सामना करना पड़ा. पहचान के लिए फोटो खिंचानी थी लेकिन महिलाएं बुर्का हटाने को राजी नहीं थी. यही स्थिति घूंघट करने वाली महिलाओं के साथ भी थी.

राज्य के कुछ इलाकों में प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत गरीब परिवारों को पक्का घर बनाने के लिए एक लाख 60 हजार रुपये की राशि दी जा रही है, बशर्ते पहले से उनका कोई पक्का मकान न हो. मालिकाना हक परिवार की महिलाओं का होगा. भुगतान के बाद लाभार्थी की तस्वीर खींचकर जमीन के ब्यौरे के साथ प्रधानमंत्री आवास योजना की वेबसाइट पर डाली जानी है. लेकिन देहरादून, रुड़की और हरिद्वार में कई महिलाओं ने फोटो खिंचाने के लिए बुर्का उठाने पर कड़ा एतराज जताया है.

रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में 8120 लाभार्थी इस योजना के तहत चुने गए थे जिनमें छह हजार से अधिक लाभार्थी महिलाएं हरिद्वार, उधमसिंहनगर और देहरादून जिलों के मुस्लिम बहुल इलाकों से हैं. महिलाएं अड़ी रहीं तो बुर्का पहने महिला को हाथ में नाम की तख्ती पकड़ाकर उसे उसके प्लॉट पर खड़ा कर फोटो खींची गई. हर बुर्कानशीं महिला के साथ एक कर्मचारी भी फोटो के फ्रेम में रहेगा जिससे इस बात की तस्दीक होगी कि पहचान क्रॉसचेक कर ली गई है. वैसे अधिकारियों का दावा है कि गड़बड़ियों से बचने के तमाम अन्य तरीके भी इस्तेमाल में लाए गए हैं. लेकिन पहचान की उचित व्यवस्था का अभाव घोटालों को दावत दे सकता है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 तक सबको मकान का आश्वासन दिया है. इसके लिए अगले छह सालों में करीब 2 करोड़ पक्के मकान बनाने का लक्ष्य है. एक समस्या यह भी है कि यह महात्वाकांक्षी लक्ष्य केंद्र सरकार ने तय किया है लेकिन इस पर अमल की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है जो इसे निजी उद्यमों की साझेदारी में पूरा करेंगे. सरकार ने इस साल के बजट में देहाती इलाकों में बेघर लोगों के लिए एक करोड़ मकान बनाने का प्रावधान किया है. सबके लिये मकान की वित्तीय व्यवस्था पर तो पहल हो रही है लेकिन अगर सरकारी मदद पाने वाले की फोटो पहचान पर कुछ नहीं किया गया तो यह भविष्य में भी समस्या पैदा करता रहेगा.

मुश्किल सिर्फ बुर्का पहनने वाली महिलाओं के साथ नहीं है, शहरी देहातों में घूंघट करने की रिवायत भी है और इसे मानने वाली महिलाएं भी अपनी फोटो खिंचाने से हिचकती हैं. पहाड़ी इलाकों में भी कई जगहों पर महिलाओं को पर्दे की ओट से निकालना दूभर हो जाता है. बहरहाल उत्तराखंड में तो अधिकारियों ने जैसे तैसे अपनी समस्या आप सुलझा ली लेकिन इससे बड़े फलक पर कई सवाल खुलते हैं जिन्हें अंतिम तौर पर सुलझा लेना शायद इतना आसान न हो. सबसे पहला सवाल तो ऐसी सरकारी योजनाओं से ही जुड़ा है कि इन्हें अमल में लाने की प्रक्रिया का एक गंभीर होमवर्क होना चाहिए. सवाल, लाभार्थी की पहचान के निर्धारण के सर्वमान्य और निर्विवाद तरीके का भी है.

प्रधानमंत्री आवास योजना की वेबसाइट बताती है कि इसका लक्ष्य जरूरतमंद परिवारों की आवासीय जरूरतों को पूरा करना है. प्रधानमंत्री मोदी ने जून 2015 में इस योजना की शुरुआत की. हालांकि इस बात की आलोचना भी की जाती है कि पहले से चली आ रही इंदिरा आवास योजना पर ही नया मुलम्मा चढ़ाया गया है. ऑनलाइन आवेदन पिछले साल नवंबर से शुरू किये गये. योजना के तहत शहरों में बनने वाले घरों पर नौ लाख के कर्ज पर ब्याज में 4 प्रतिशत और 12 लाख पर 3 प्रतिशत की छूट दी गई है. दो करोड़ से ज्यादा मकान बहुत ही सस्ती कीमतों पर दिये जाएंगे. आवास योजना को तीन चरणों में पूरा किया जाएगा. 2015 से मार्च 2017 तक के पहले चरण में 100 शहरों को कवर किया जाएगा. अप्रैल 2017 से मार्च 2019 के तीसरे चरण में 200 अतिरिक्त शहरों के नाम जोड़े जाएंगे. तीसरा चरण मार्च 2022 तक चलेगा जिसमें अन्य शहरों को जोड़ा जाएगा. 500 श्रेणी-1 के शहरों के साथ 2011 की गणना के हिसाब से 4041 कस्बे भी जुड़ेंगे.

प्रधानमंत्री आवास योजना अपने बुनियादी लक्ष्य में आकर्षक हो सकती है लेकिन क्या ये एक बड़ा झोल नहीं है कि एक ओर डिजिटल भारत का दम भरा जा रहा है और सार्वभौम पहचान की विराट आधार परियोजना लागू कर चुके हैं, तो दूसरी ओर अपनी अलग अलग योजनाओं के लिए शिनाख्त के अलग अलग पैमाने बना रहे हैं. यानी सरकारी योजनाओं और सरकार प्रदत सुविधाओं और व्यवस्थाओं में जुड़ाव का कोई तार नहीं है. आधार कार्ड के अलावा वोटर आईडी कार्ड और राशन कार्ड जैसी अन्य वैधानिक पहचान दस्तावेज भी तो हैं.

अगर सिंगल विंडो सिस्टम की बात होती है तो वह सिर्फ निवेश और कारोबार में ही क्यों हो, सरकार की योजनाओं और सामाजिक निवेश के कार्यक्रमों को भी इससे जोड़ना होगा. फिर सरकार को उस तरह की फजीहतों का शायद सामना न करना पड़े जैसा उत्तराखंड के कुछ इलाकों के बारे में फोटो खिंचवाने से संबंधित रिपोर्ट से पता चलता है. क्योंकि ऐसे समाज में जो अपनी सांस्कृतिक, रिवायती और वैचारिक बनावट में इतना मल्टीलेयर्ड और जटिल है, जिसका तानाबाना इतना गुंथा हुआ और बाहर से इतना उलझा हुआ दिख जाता है, वहां पहचान के किसी स्पष्ट नियम के बगैर, सरकारी अनुकंपा बांटने नहीं पहुंच सकते. घोटाले इन्हीं लूपहोल्स का तो इंतजार करते हैं.