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अहमियत खो रहा है गुटनिरपेक्ष आंदोलन

शिवप्रसाद जोशी२१ सितम्बर २०१६

लैटिन अमेरिकी देश वेनेजुएला में 17वां गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन दुनिया का अपेक्षित ध्यान नहीं खींच पाया. एक वजह वेनेजुएला का विश्व बिरादरी में अलग थलग होना है तो दूसरी ओर सुधारों के अभाव में आंदोलन अपनी अहमियत खो रहा है.

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तस्वीर: picture alliance/Fritz Fischer

शांति, सुरक्षा, एकजुटता और विकास के नारे के साथ जब 1961 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (नैम) की नींव पड़ी थी तो इसकी स्थापना में मूल भाव निहित था, एक नई आर्थिक विश्व व्यवस्था का निर्माण. कहने को आज गुटनिरपेक्ष आंदोलन सिर्फ रस्मी आयोजन सा रह गया है लेकिन यही वो समय है जब वो अपने दशकों से जमा आलस्य को तोड़कर एक नई करवट ले सकता है. विकास और वृद्धि के वैश्विक असंतुलन को कम करने के लिए इसकी जरूरत खत्म नहीं हुई है बल्कि ये मांग तो और पुरअसर हुई है.

इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ) की तरह ये संस्था भी, सुधारों के अभाव में अपना प्रभाव खो रही है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इसे अब ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए. बल्कि समकालीन समय की चुनौतियां तो ये कहती हैं कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अगर सही दिशा और दूरदृष्टिसंपन्न नेतृत्व मिले तो ये अपनी प्रतिष्ठा और महत्व को शीत युद्ध के दौर से कहीं आगे ले जा सकता है. नैम के लिए ये जरूरी है कि वो अंतरराष्ट्रीय वास्तविकताओं को परिभाषित करने और उन्हें आकार देने में अपनी भूमिका निभाए, बदलाव के प्रति लचीला बने और नए विश्व माहौल में अपने लिए उपयुक्त आर्थिक और राजनीतिक सामरिकताओं का निर्माण करे.

गुटनिरेपक्ष आंदोलन की अक्षमता या प्रभावहीनता की एक वजह तो ये है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत अपनी चमक खो बैठा है लेकिन यह गंभीर आंतरिक समस्याओं से भी जूझ रहा है. इनमें, सदस्यता का पैमाना बहुत उदार रहा है जिसकी वजह से सदस्यों में आत्मानुशासन का अभाव दिखता है, सहमति के तरीकों में कमजोरियां दिखती हैं. और तो और वैश्विक घटनाओं की निगरानी का कोई तंत्र भी नहीं है, यहां तक कि प्रतिक्रिया के स्तर पर भी नैम से कोई एक स्वर पिछले कुछ दशकों से नहीं सुना गया. ये भी सही है कि तत्कालीन सोवियत संघ की अगुवाई वाले कम्युनिस्ट या पूर्वी ब्लॉक के ढह जाने के बाद और नतीजतन वैश्विक पूंजीवाद और नवउदारवाद के आगमन ने गुटनिरपेक्षता की अवधारणा को ही कमजोर किया है. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के सदस्य देश आपसी विवादों का शांतिपूर्ण हल निकालने की संरचना बनाने में भी विफल रहे हैं. इन लंबा चलने वाले झगड़ों ने भी आंदोलन को कमजोर किया है.

उधर अमेरिका भले ही एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था का सरताज बना हुआ है और इसमें उसकी खुशफहमी भी शामिल है कि वो नई विश्व व्यवस्था का निर्माण कर चुका है. लेकिन अंततः वैश्विक घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि अस्थायी तौर पर अमेरिका निर्मित गठबंधनों का बोलबाला हो लेकिन निर्णायक और अंतिम तौर पर उनका सिक्का बने रहना असंभव है. क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सिस्टम बहुस्तरीयता केंद्रित है और कई ऐसे समूहों का उदय हुआ है जो अमेरिकी आर्थिक और सैन्य आधिपत्य की छाया में वृद्धि करने से परहेज करते हैं. कल तक अगर रूस अमेरिका का एक प्रतिपक्ष था तो आज चीन है. बेशक ये वैचारिक प्रतिपक्ष नहीं है लेकिन सैन्यवादी और आर्थिक हितवादी प्रतिपक्ष जरूर है जिससे अमेरिका भी असहज है. चीन के अलावा अन्य छोटे समूह जैसे भारत, रूस, दक्षिण कोरिया और ब्राजील का ब्रिक्स समूह हो या जी-77, सार्क या लैटिन अमेरिकी देशों का संगठन या यूरोपीय देशों का संगठन, अपने अपने स्तर पर और अपनी कमजोरियों के बावजूद ये एकध्रुवीय वर्चस्व को चुनौती देने की स्थिति में आ रहे हैं. ये बात सही है कि सैन्य सामरिकता के लिहाज से अमेरिकी ताकत अभी एकछत्र है और उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं लेकिन ये भी सच है कि आज अमेरिका दुनिया का अकेला शक्ति संपन्न देश नहीं रह गया है.

कहा जा सकता है कि इसके लिए संयुक्त राष्ट्र और उसकी एजेंसियां तो हैं ही, फिर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की क्या जरूरत. सही है कि यूएन सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय एजेंसी है लेकिन हम ये भी जानते हैं कि हाल के दशकों में यूएन की भूमिका शिथिल हुई है और वो आदर्श और नैतिकता की रस्म अदायगी का जमावड़ा सा बन गया है. उसमें भी अमेरिकी वर्चस्व छाया हुआ है और यूएन के पास शक्तियां अत्यन्त सीमित हैं. वो चाहकर भी वैश्विक दबंगइयों की मुखालफत नहीं कर पाता. यूएन की नाक के ही नीचे इतने युद्ध और सैन्य कब्जे हो चुके हैं और विडम्बना ये है कि वह अक्सर असहाय दिखता है. ऐसे में गुटनिरपेक्ष आंदोलन अपनी प्रभावशाली उपस्थिति का अहसास करा सकता है. और एक संस्थापक देश होने के नाते भारत को तो ये जमीन, ये मंच और ये मौका तो किसी भी कीमत पर नहीं गंवाना चाहिए, अगर वो वास्तव में अपनी भूमिका को दक्षिण एशियाई भूगोल से बाहर भी देखता है. अकेले अकेले रह कर न भारत कुछ कर पाएगा न कोई अन्य गुटनिरपेक्ष देश, लिहाजा साथ रहकर वे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के संतुलन को बिगड़ने से बचा सकते हैं, इस कड़ी में सबसे पहला काम तो संयुक्त राष्ट्र में सुधारों की प्रक्रिया में तेजी लाकर उसे मजबूत करने का होगा. दक्षिण-दक्षिण सहयोग यानी छोटे और गरीब देशों के आपसी सहयोग को प्रोत्साहित करना होगा, और तीसरी सबसे बड़ी बात नैम में जरूरत के मुताबिक सुधार करने होंगे. लेकिन ध्यान ये रखना होगा कि ये सुधार अपनी घरेलू और पारस्परिक जरूरतों के लिहाज से तय हों.

बेशक आतंकवाद एक गहन समस्या के रूप में उभर आया है लेकिन ये भी सच है कि आज दुनिया के अधिकतर देशो में शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और मानवाधिकारों को लेकर बहुत चिंताजनक माहौल है. इन देशों में मुक्त बाजार सिस्टम ने तो अपनी पैठ और अपने रास्ते बना ही लिए हैं लेकिन वहां की मूल समस्याएं जस की तस हैं. विकास असंतुलित है. नैम देश साथ मिलकर इस माहौल को बदलने की दिशा में कारगर कदम उठा सकते हैं. इसके लिए अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप, चीन या संयुक्त राष्ट्र का मुंह ताकते रहने की फिर कोई जरूरत न होगी. क्योंकि बात सिर्फ अंतरराष्ट्रीय दोस्तियां विकसित करने की नहीं, बात आत्मसम्मान और नागरिक गरिमा की भी है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में गुटनिरपेक्षता की अवधारणा का धूमिल हो जाना, दुनिया के लोगों के लिए कोई अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी