कश्मीर: खौलते पानी का बंद भगौना
१८ जुलाई २०१६पिछली सात-आठ सदियों से कश्मीर का इतिहास दर्द के दरिया की मानिंद रहा है. मुश्किलात, खूनखराबे और बरबादी के बाद भी कश्मीरी समाज ने अपने मूल्यों और धर्म को न सिर्फ बचाकर रखा बल्कि उसे विकसित भी करता गया. राजाओं की अय्याशी और क्रूरताओं के बावजूद कश्मीरी समाज हिंसा में कभी विश्वास करता दिखायी नहीं दिया। ईरान से आये पीर-फकीरों के प्रभाव में वहां इस्लाम ने अपने पैर जमाये लेकिन कश्मीरी समाज अपनी जड़ों से जुड़ा रहा. कश्मीरी कभी लड़ाके भी नहीं रहे. यहां पर रहने वाली सेनाएं बाहर की ही रहीं. अफगान राजा थे तो अफगानी सेना, मुगल राज में मुगल सेना, महाराजा रंणजीत सिंह की सिख व डोगरों की सेना और फिर महाराजा गुलाब सिंह की डोगरों की सेना. यह बात जरूर रही कि जिस भी समुदाय को राजा का प्रश्रय मिला, उसने दूसरे समुदायों का जमकर शोषण किया.
1947 और उसके बाद
1947 में आजादी के समय कश्मीर के डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह पाकिस्तान में शामिल होने की बात कर रहे थे. उनके प्रधानमंत्री जो एक कश्मीरी पंडित थे, लगातार मुहम्मद अली जिन्ना के संपर्क में थे. महाराजा अपनी रियासत की स्वायत्तता को लेकर मोलभाव में लगे थे. इधर हिंदुस्तान में वल्लभ भाई पटेल का भी मत था कि मुस्लिम बहुत इलाकों को पाकिस्तान में जाने दिया जाये. लेकिन जवाहरलाल नेहरू जिस मॉडर्न व सेकुलर स्टेट का सपना देख रहे थे, कश्मीर का उसमें रहना सेकुलरिज्म पर मजबूत मुहर होती. कश्मीरी अवाम के नेता शेख मोहम्मद अब्दुल्ला भी भारत के साथ रहने के ही पक्षधर थे.
इस बीच, पाकिस्तान की ओर से कश्मीर पर हमला बोल दिया गया लेकिन सार्वजनिक रूप से उसने इसे लोकल अपराइजिंग करार दिया. जनता महाराजा के खिलाफ थी, लिहाजा उनके पास कोई चारा न था सिवाय भारत से हाथ मिलाने के. रियासत की ओर से शेख अब्दुल्ला को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया और विलय पत्र पर हस्ताक्षर हुए. इसके बाद भारतीय फौजें कश्मीर पहुंचीं. रियासत में उत्साह का माहौल था. मशहूर पत्रकार स्व. अजीत भट्टाचार्जी ने अपनी किताब ‘कश्मीर द वूंडेड वैली' में लिखा है कि 31 अक्टूबर 1947 को अपने एक मित्र पायलट के डाकोटा से श्रीनगर गये थे. वह लिखते हैं कि ‘दिल्ली में मुसलमानों को लेकर संदेह का माहौल था लेकिन वैली में नजारा उलट था. भारतीय फौजों के लिये वे सबसे बड़े मददगार थे. विमानों से जो सामग्री आ रही थी, दाढ़ी वाले लोग उन्हें ट्रकों में लाद रहे थे. हमें बताया गया कि कबायली हमलावरों को 8-10 किमी दूर ढकेल दिया गया है. श्रीनगर घूमे तो देखा कि स्थानीय लोग अपने पुलों और सड़कों की सुरक्षा में मुस्तैद थे क्योंकि महाराजा हरिसिंह की पुलिस तो उनके साथ ही भाग गयी थी. उन्होंने लिखा है कि उन्होंने दिल्ली में बताया कि यदि कश्मीर में रायशुमारी करा ली जाये तो अधिकतर लोग भारत का ही पक्ष लेंगे लेकिन उस समय विभाजन की वजह से अविश्वास इतना गहरा था दिल्ली में कोई यह मानने को तैयार नहीं था. लेकिन विदेशी डिप्लोमैट दिल्ली की सोच से सहमत नजर नहीं आते थे.
16 नवंबर 1951 को दिल्ली में अमेरिकी राजदूत चेस्टर बाउल्स ने वॉशिंगटन को बताया था कि मैंने नई दिल्ली में रह रहे सभी विदेशी राजनयिकों से बात की कि यदि कश्मीर में रायशुमारी हो जाये तो किसके पक्ष में जायेगी. बाउल्स ने लिखा था – सभी ने बिना संदेह के कहा कि भारत ही जीतेगा. कोई कह रहा था कि दो तिहाई मत भारत को मिलेंगे तो कोई कह रहा था कि तीन चौथाई. ये सब कश्मीर का दौरा कर चुके थे. लेकिन भारत सरकार को भरोसा नहीं था. बाद में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी से लेकर 1975 में शेख-इंदिरा समझौते तक दिल्ली की सरकार ने इस रियासत को अपने हिसाब से चलाया. शेख अब्दुल्ला की मौत के बाद फारुक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने. चुनाव जीतने के बाद फारुक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में विपक्षी नेताओं का एक बड़ा सम्मेलन बुलाया. इससे दिल्ली की कांग्रेस सरकार चिढ़ गई और उसने फारुक को अपदस्थ करने का कुचक्र रचा लेकिन तत्कालीन राज्यपाल बीके नेहरू ने उस कुचक्र को लागू करने से मना कर दिया तो राज्यपाल ही बदल दिया गया. नये राज्यपाल जगमोहन ने फारुक को अल्पमत में घोषित करके बर्खास्त किया और उनके बहनोई गुल शाह को शपथ दिला दी. यह वह मौका था जब कश्मीर में विपक्ष को लगने लगा था कि अगले चुनाव में उनकी सरकार बन सकती है. लेकिन चुनाव से ठीक पहले फारुक-राजीव समझौता हो गया और इस समझौते के बाद जो चुनाव नतीजे निकले उसे कश्मीर और हिंदुस्तान आज तक भुगत रहा है. इसी चुनाव में गिलानी के नेतृत्व वाले मुसलिम यूनाइटेड लीग (एमयूएल) के टिकट से एक स्कूल मास्टर चुनाव हार गया. यह वही शख्स है जो आज सैयद सलाहुद्दीन के नाम से जाना जाता है.
उथलपुथल का दौर
अस्सी का दशक कश्मीर में बहुत उथल-पुथल वाला रहा. गुल शाह की सरकार, राजीव-फारूक समझौता, चुनावी गड़बड़ियां, मुफ्ती की बेटी रूबिया का अपहरण, जगमोहन का दोबारा राज्यपाल बनना, पंडितों का विस्थापन, चरार-ए-शरीफ का जलाया जाना, अलगाववादी नेताओं का दिल्ली स्थिति पाक उच्चायोग से खुला संपर्क, लाहौर बस, करगिल युद्ध, कंधार ले जाकर मौलाना मसूद अजहर समेत तीन आतंकियों को रिहा किया जाना, संसद पर हमला आदि...आदि. और इस बीच तमाम आतंकी हमले सांबा से लेकर कुपवाड़ा तक, रेलवे स्टोशन, एयरपोर्ट, विधानसभा से लेकर रघुनाथ मंदिर तक. 2001 तक स्थितियां भयावह रहीं. इस बीच मुफ्ती मोहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा एक नयी राजनीतिक ताकत के तौर पर अपनी जगह बनाने की कोशिश में रहे.
2002 के विधानसभा चुनाव
मुफ्ती 2002 के विधानसभा चुनाव में कश्मीर की आवाज बनकर उभरे. फारूक का पूरा कुनबा चुनाव हार गया. और सिर्फ यह अकेली बात काफी थी लोगों का चुनावों में भरोसा वापस लौटाने के लिए. मुफ्ती कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बने. मुझे वह नजारा याद है जब कि कांग्रेस का समर्थन लेकर मुफ्ती दिल्ली से श्रीनगर आये थे. उनका स्वागत जिस तरह से हुआ था, उससे साफ था कि अब कश्मीर की राह बदल रही है. मुख्यमंत्री बनने के बाद मुफ्ती ने हीलिंग टच पालिसी लागू की. उस समय जिस सरकार की अगुआई मुफ्ती कर रहे थे, वह कांग्रेस व पीडीपी के गठबंधन की थी और केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी नीत एनडीए सरकार थी. मुफ्ती ने हीलिंग टच पालिसी के तहत उन लोगों को रिहा करने का एलान किया जो चार साल से जेल में बंद हैं लेकिन उन पर कोई आरोप दाखिल ही नहीं हुआ. कश्मीर में उस समय हजारों ऐसे लोग चार साल से ज्यादा समय से जेलों में बंद थे पब्लिक सिक्यॉरिटी ऐक्ट के तहत, लेकिन उन पर कोई चार्जशीट दाखिल नहीं हुई थी. मुफ्ती का तर्क था कि हो सकता है कि इसमें कुछ वैसे लोग भी छूट जाएं जो वाकई में आतंकी गतिविधियों में लिप्त थे लेकिन बाकी लोगों का क्या कुसूर जिनको आतंकी बताकर पुलिस ने जेल में ठूंस दिया. जो निर्दोष चार साल जेल में बंद रहेगा, वह क्या कभी हम पर भरोसा कर सकेगा? नहीं न!
कहां है 370?
देश में माहौल यह बनाया जा रहा है कि नेहरू, कांग्रेस और तथाकथित बुद्धिजीवियों की वजह से ही जम्मू-कश्मीर का इंटीग्रेशन बाकी देश के साथ नहीं हो पाया. अनुच्छेद 370 और इसको बनाये रखने वाली ताकतें ही इसमें सबसे बड़ी बाधा हैं. आम भारतीय के दिमाग में है कि मुसलमानों को संतुष्ट करने के लिए 370 का प्रावधान किया गया. असलियत यह है कि जम्मू-कश्मीर में स्टेट सबजेक्ट को लेकर कानून वहां के महाराजा ने 1927 में बनाया था और इस कानून की मांग वहां के हिंदुओं ने की थी जिससे राज्य के प्राकृतिक संसाधन व अवसरों पर उनका आधिपत्य बना रहे. रही वहां की सरकार के कार्यों में केंद्र के अधिकार की बात तो यह जानना जरूरी है कि वहां विलय के बाद संविधान में 370 का प्रावधान होने के एक-दो वर्ष बाद ही सरकार के मुखिया शेख मोहम्मद अब्दुल्ला को गिरफ्तार करने में न यह प्रावधान आड़े आया और न ही 1947 में, जब इसी नेता को बिना चुनाव और विधानसभा में उनकी पार्टी का एक भी सदस्य न होने के बावजूद मुख्यमंत्री बना दिया गया.
पचास के दशक में वहां सद्र-ए-रियासत (राष्ट्रपति) और वजीर-ए-आजम (प्रधानमंत्री) होता था लेकिन अगले ही दशक में सद्र बाकी राज्यों की तरह गवर्नर (राज्यपाल) हो गये और वजीर-ए-आजम वजीर-ए-आला (मुख्यमंत्री)।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद
2008 में सरकार के एक विधेयक को लेकर अलगाववादियों ने पारिस्थिकी संतुलन बिगाड़ने के आरोप के साथ हल्ला मचाना शुरू किया. इस विधेयक में सोनमर्ग के पास कुछ जमीन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को देने का प्रावधान किया गया था. उस समय पीडीपी के समर्थन से गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री थे. पीडीपी ने इस मुद्दे को पकड़ लिया. हालात यहां तक पहुंचे कि आजाद को इस्तीफा देना पड़ा. पूरे देश में संदेश यह गया कि पीडीपी अलगाववादियों के साथ है. लेकिन वास्तविकता यह नहीं थी. उस दौरान मुफ्ती ने फोन पर बातचीत में बताया था कि अलगाववादियों का स्पेस खत्म हो रहा है. स्पेस पाने की उनकी किसी भी कोशिश को विफल करना जरूरी है. यह प्रस्ताव हमारा ही था लेकिन अब हालात यह बन रहे हैं कि या तो हम चिपके रहें कि हमारा प्रस्ताव था तो विरोध कैसे करें और हम अलगाववादियों व पाकपरस्त ताकतों को स्पेस बनाने का मौका दे दें या फिर हम इस मुद्दे को अपने हाथ में लेकर उनकी कोशिश को नेस्तनाबूद कर दें. इसके बाद 2010 में स्टोन पेल्टिंग की घटनाओं पर भी पीडीपी की खूब आलोचना हुई. लेकिन कश्मीर में माहौल नहीं बिगड़ा. माहौल बिगड़ना शुरू हुआ अफजल गुरू की फांसी की वजह से आम कश्मीरी के भरोसे को झटका लगने से.
अफजल की फांसी
2013 में अफजल की फांसी के बाद, कश्मीर में हमारी सरकार और अलगाववादियों की प्रतिक्रिया तो सामने आयी कर्फ्यू और बंद के आह्वान के रूप में. लेकिन आम कश्मीरी क्या सोचता है, यह सामने नहीं आया. फेसबुक पर मैंने बारामुला के एक उद्यमी की पोस्ट पढ़ी थी. उस पोस्ट में भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार से सवाल पूछे गये हैं. पूछने वाले ने अपने परिचय में लिखा है – मैं राजनीतिक नहीं हूं, मैं सरकारी कर्मचारी नहीं हूं और न ही मैं मुख्यधारा, वाम या अलगाववादी राजनीति दल का अनुयायी हूं. मैं पढ़ा-लिखा सामान्य बुद्धि वाला एक आम कश्मीरी हूं. यदि भारत सरकार और जम्मू-कश्मीर सरकार में थोड़ी भी नैतिकता बची है तो मेरे इन सामान्य सवालों का जवाब देकर कश्मीर के लोगों की सामूहिक अंतरात्मा को संतुष्ट करें. आजतक कश्मीर को जवाबों का इंतजार है.
और अमन किर्च किर्च
उन्हीं दिनों मैंने कश्मीर के एक अखबार में प्रो. सईदा अफसाना का लेख पढ़ा. यह लेख भी आम कश्मीरी के सवाल उठाता है. कश्मीर विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाली प्रो. सईदा अफसाना ने लिखा हैः मुझे ताज्जुब होता है कि कैसे रात भर में यहां सबकुछ बदल जाता है. आप पुरसुकून माहौल में सोएं और सुबह जब नींद खुले तो सड़कों पर वीरानी हो. भौंकते हुए कुत्ते, वर्दीधारी कुछ लोग और पुलिस की गाड़ियां लोगों को होशियार करती हुईं कि घर से बाहर न निकलें – आप अपने घर को नजरबंद पाते हैं. मैं कोई डरावने ख्वाब की बात नहीं कर रही, यह कभी भी हो सकता है और हमारे साथ तो अक्सर होता रहता है. इसलिए सोचिये कि हमारा अमन कितना नाजुक है.
कोई एक घटना कश्मीर के अमन को तहस-नहस कर देती है. शहरी अपने-अपने घरों में कैद, मीडिया के मुंह पर ठेंपी, सूचनाएं ब्लॉक्ड...अमन किर्च किर्च। हजारों टूरिस्टों का आना, बड़े-बड़े आयोजन और समारोह, रॉक बैंड और बैंक्वेट, ट्वीटिंग रूलर और उड़ते नेता, सबकुछ कितना फर्जी लगने लगता है. कश्मीर में क्या किया जा सकता है सिवाय इसको अनदेखा करने की कोशिश के. और फिर, सबकुछ इसबात को ही पुख्ता करता नजर आता है कि कश्मीर उबलते पानी का बंद भगौना है जिसका ढक्कन अपनी जरूरत के हिसाब से पाटीदार खोलते-बंद करते रहते हैं.
दुख इस बात से होता है कि कैसे न्यायिक प्रक्रिया को राजनीतिक कर्म में तब्दील कर दिया जाता है और न्याय मौकापरस्त सियासत से जोड़ दिया जाता है. इस अमरनाथ यात्रा के बीच में बुरहान वानी का एनकाउंटर क्यों किया गया? इसके जरिये किसको लाभ पहुंचाने की कोशिश है और भुगत कौन रहा है?
राजेंद्र तिवारी (वरिष्ठ पत्रकार)