चुनाव निशान का सवाल, साइकिल मचा रही बवाल
१२ जनवरी २०१७समाजवादी पार्टी के अंदर तैयार हो चुके दोनों धड़े अपना चुनाव चिन्ह साइकिल रखने के लिए जंग कर रहे हैं.
आजादी के बाद देश में हुए पहले चुनावों में मतदान केंद्रों पर राजनीतिक दलों को चिन्हों के रूप में पहचान दी गई थी क्योंकि उस वक्त साक्षरता का स्तर न्यूनतम था. हालांकि इतने सालों के दौरान साक्षरता दर में तो काफी इजाफा हुआ लेकिन अब तक इसका स्वरूप नहीं बदला और आज भी मतदाता मतदान केंद्रों पर राजनीतिक दलों की पहचान उनके चुनाव चिन्ह और उम्मीदवार के लिखे हुए नाम से ही करते हैं. दरअसल अब ये चुनाव चिन्ह महज निशान न रहकर राजनीतिक दलों के लिए ब्रांड बन गए हैं और ये इन दलों को भी ब्रांड बना रहे हैं.
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इन्हीं सब कारणों के चलते तेज रफ्तार गाड़ियों के सामने बेबस दिखती साइकिल उत्तर प्रदेश के लिए बेहद कीमती नजर आ रही है. पिछले विधानसभा चुनावों में राज्य में चुनाव प्रचार का काम मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसी साइकिल से किया था और इनकी साइकिल रैलियों ने खूब सुर्खियां भी बटोरी थीं.
बेंगलूरु के ब्रांडिंग विशेषज्ञ शिवकुमार विश्वनाथन मानते हैं कि आज चुनाव चिन्ह पार्टियों के लिए ब्रांड बन गया है जिसे बेहतरीन तरीके से जनता के सामने पेश कर भुनाया जा सकता है. विश्वनाथन के मुताबिक, साइकिल गरीब आदमी का साधन है इसलिए ये ज्यादा लोगों को छूता है और साथ ही यह भी बयान करता है कि मैं आपके साथ हूं.
इसी हफ्ते चुनाव आयोग में इस बात पर सुनवाई है कि औपचारिक विभाजन की स्थिति में साइकिल को चुनाव चिन्ह के रूप में कौन इस्तेमाल कर सकेगा. यह देखना भी दिलचस्प होगा कि साइकिल अखिलेश के पाले में आएगी या उनके पिता मुलायम ही इस पर सवार होंगे जो अब भी पार्टी की कमान अपने हाथों में रखना चाहते हैं. लेकिन दोनों पक्षों में कोई सहमति नहीं बनती तो आयोग दोनों ही पक्षों से यह निशान छीन सकता है. तब समाजवादी पार्टी और नए दल को चिन्हों के मौजूदा विकल्पों पर विचार करने को कहा जा सकता है. आयोग का यह फैसला दोनों ही पक्षों को परेशानी में डाल सकता है क्योंकि फिलहाल आयोग के पास हवाई जहाज और कार जैसे विकल्प ही उपलब्ध हैं, जो पार्टी के विचार से मेल नहीं खाते.
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यह पहला मौका नहीं है जब किसी पार्टी को अपने चुनाव चिन्ह के लिए इस तरह की जद्दोजहद से गुजरना पड़ रहा हो. 70 के दशक में जब कांग्रेस का विभाजन हुआ था तब भी नए दल के सामने चुनाव चिन्ह को लेकर कुछ इसी तरह की स्थिति बनी थी. उस वक्त इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के मौजूदा चुनाव चिन्ह पंजे को अपनाया था. हालांकि पार्टी में इस निशान को लेकर मतभेद था क्योंकि कुछ लोगों का कहना था कि लोग इसे ट्रैफिक पुलिस का निशान समझ लेंगे और वोट नहीं देंगे. पर इंदिरा गांधी खुले हाथ को खुलेपन के प्रतीक के तौर पर पेश करना चाहती थीं. जाहिर, वह कामयाब भी रहीं.
एए/वीके (एएफपी)