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ब्रिक्स बैठक: भारत पूरा मंच चीन के हवाले न करे

२ सितम्बर २०१७

अगर भारत चाहता है कि ब्रिक्स की बैठक सिर्फ उम्मीद के वाहकों का महज रस्मी समागम बन कर न रह जाये तो उसे इस बड़े मंच को पूरी तरह मेजबान चीन के हवाले नहीं कर देना चाहिए.

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Symbolbild Neue BRICS-Bank eröffnet
तस्वीर: picture-alliance/dpa/BRICS/SCO Photohost/K. Kallinikov

शियामेन में हो रहा ब्रिक्स शिखर सम्मेलन चीन के लिए फिर एक ऐसा मौका है जिसके जरिये वह अपनी अहमियत और शान ओ शौकत दिख सकता है, घरेलू मोर्चे पर भी और पूरी दुनिया को भी. और वह भी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस से ठीक पहले.

नाजुक मुद्दों को इस बैठक के एजेंडे से बाहर रखा गया है क्योंकि चीन अपने राजनीतिक नेतृत्व में होने वाले अहम फेरबदल से पहले किसी भी तरह का झमेला नहीं चाहता. इसकी बजाय, सदस्य देश शायद आम सहमति वाले विषयों पर ध्यान केंद्रित करेंगे जिनमें मुक्त व्यापार, जलवायु परिवर्तन और साइबर सिक्योरिटी शामिल हैं. डिजिटाइज्ड अर्थव्यवस्था की चुनौतियां भी लगातार एजेंडे पर बनी हुई हैं जो पिछले साल ब्रिक्स अध्यक्ष के तौर भारत के कार्यकाल का मुख्य मुद्दा था.

हालांकि बड़े मंच और एकता के इस प्रदर्शन के जरिए भी इस तथ्य को नहीं छिपाया जा सकता है कि चीन ब्रिक्स संगठन के बुनियादी विचार से अब बहुत दूर चला गया है. अन्य चीजों के अलावा वह अपनी खुद की 'वेल्ट और रोड पहल' को आगे बढ़ा रहा है और अपने प्रभाव का विस्तार करना चाहता है.

उम्मीद से निराशा की तरफ

सच बात तो यह है कि ब्रिक्स को लेकर शुरू में जो उम्मीदें पैदा हुई थीं, अब वे लगभग खत्म हो रही हैं. सदस्य देशों में सरपट रफ्तार से होती आर्थिक वृद्धि अब अतीत की बात लगती है.

इसके पांचों सदस्यों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका को कभी उभरती आर्थिक महाशक्तियों के तौर पर देखा जा रहा था. ऐसा लगा था कि बस कुछ ही समय में वे मुश्किल हालात का सामना कर रहीं पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ देंगे.  लेकिन ब्रिक्स को लेकर उम्मीदें का ज्वार अब ढल चुका है.

Indien Brics-Treffen in Benaulim
पिछले साल ब्रिक्स देशों की बैठक गोवा में हुई थीतस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

ब्रिक्स की समूची जीडीपी का दो तिहाई हिस्सा चीनी अर्थव्यवस्था पर टिका है. उसकी तेज रफ्तार आर्थिक तरक्की भी अपनी लय खो रही है. दो अंकों वाली आर्थिक वृद्धि को हासिल करना अब उसके लिए सपना है.  2016 में चीन की जीडीपी सिर्फ 6.7 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ी. 2018 में चीनी अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर 6 प्रतिशत रहने का अनुमान है.

इस 'नियंत्रित गिरावट' को देखते हुए चीन अपनी अर्थव्यवस्था को नये सिरे से व्यवस्थित करना चाहता है. निर्यात और सस्ते उत्पादों की बजाय अब चीन अपनी अर्थव्यवस्था को घरेलू मांग और सेवाओं के दम पर बढ़ाना चाहता है.

हालांकि यह अभी तक एक जोखिम भरा काम ही साबित हुआ है. भारी उद्योग में अत्यधिक क्षमताओं, रियल इस्टेट में सट्टेबाजी में तेजी और बेहताशा कॉरपोरेट कर्ज के कारण चीन का विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से घट रहा है.

रूस की हालत तो और खराब दिखती है. तेल के दामों में कमी और यूक्रेन विवाद के चलते पश्चिमी देशों की तरफ से लगाये गये प्रतिबंधों के कारण रूस की अर्थव्यवस्था को बहुत नुकसान उठाना पड़ा है. इसकी वजह से रूबल के मूल्य में भी गिरावट आयी है और मुद्रास्फीति संबंधी दबाव भी बढ़ा है. ऐसे में, राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को सरकारी खजाना में पैसा डालने के लिए सरकारी संपत्तियों को बेचने और उनका निजीकरण करने के लिए मजबूर होना पड़ा.

ब्राजील के हालात और भी मुश्किल हैं. राजनीतिक और आर्थिक रूप से, उम्मीदों का वाहक यह लातिन अमेरिकी देश संकट में घिरा है. उसकी आर्थिक गिरावट की भी एक वजह तेल के दामों में कमी है. ब्राजील के लोग कम चीजें खरीद रहे हैं और बेरोजगारी बढ़ रही है. मौजूदा राजनीतिक संकट को छोड़ भी दें तो भी ब्राजील की सरकार कुछ समय से वित्तीय मुश्किलों का सामना कर रही है. 2014 में वहां हुए फुटबॉल विश्प कप के दौरान भी यह बखूबी देखने को मिला था.

ब्रिक्स में अफ्रीका से शामिल दक्षिण अफ्रीका भी आर्थिक मोर्चे पर जूझ रहा है.  पिछले पांच साल के दौरान उसकी वृद्धि की रफ्तार बहुत धीमी पड़ी है, व्यापार असंतुलन लगातार ऊंचाई छू रहा है और सरकारी कर्ज संवेदनशील स्तर पर पहुंच गया है.  लचर आर्थिक हालात ही नहीं बल्कि राजनीतिक अस्थिरता और खराब प्रशासन भी विदेशी निवेशकों को डरा रहे हैं जबकि दक्षिण अफ्रीका को इन निवेशकों की सख्त जरूरत है.

उम्मीद की किरण

इस सिलसिले में, ब्रिक्स के भीतर भारत ही अकेली उम्मीद की किरण दिखायी पड़ता है. अन्य सदस्य देशों के मुकाबले उसकी अर्थव्यवस्था की हालत बेहतर है, हालांकि हालिया तिमाहियों में उसकी रफ्तार भी कम हुई है.

सरकारी आंकड़ों के अनुसार जून में खत्म होने वाली तिमाही में भारत की जीडीपी की वृद्धि दर 5.7 प्रतिशत रही. जनवरी-मार्च 2014 के बाद से यह सबसे कम है. फिर भी, सर्विस सेक्टर में मजबूत वृद्धि और पूंजी का निवेश देखने को मिलता है जो एशिया की इस तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में मजबूत वापसी की संभावनाओं की तरफ इशारा करता है.

अक्सर दो अंकों में रहने वाली मुद्रीस्फीति दर भी नियंत्रण में है. भारत में विदेशी निवेशकों की दिलचस्पी बढ़ रही है, खासकर वे क्षेत्र भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोले जा रहे हैं जो अब तक बंद थे.

इसके अलावा, 29 राज्यों वाले इस देश में बहुत से नियमों को एक जैसा बनाने से आर्थिक वृद्धि की राह में आने वाली नौकरशाही की अड़चनों के भी कम होने की उम्मीद है.

Indien Goa Benaulim BRICS Gipfel - Narendra Modi und President Xi Jinping
भारत और चीन के बीच हाल में डोकलाम मुद्देपर खासा तनाव रहातस्वीर: Reuters/D. Siddiqui

इस सब से बड़ी उम्मीदें पैदा होती हैं. हालांकि भारत भी कई चुनौतियों का सामना कर रहा है. कम से कम उसकी दो तिहाई आबादी देश में आयी नयी संपन्नता के दायरे से बाहर है. 1970 के दशक से तुलना करें तो अब गांवों में रहने वाले 80 करोड़ लोगों के लिए भोजन की उपलब्धता कम हुई है. यह स्थिति अच्छी नहीं है, खासकर ब्रिक्स समूह के एक सदस्य के लिए.

आपसी सहयोग

ब्रिक्स में भारत एक अहम भूमिका निभा रहा है. लेकिन अगर ब्रिक्स चाहता है कि वह प्रभावशाली बने तो उसे ऐसे मजबूत साझा मुद्दों की जरूरत है जो हर सदस्य को एक साथ लायें. यह भारत और चीन के बीच हालिया तनाव को कम करने का भी एक अच्छा तरीका हो सकता है.

भारत को इसके लिए ब्रिक्स को एक रफ्तार देनी चाहिए और इस मंच को पूरी तरह चीन के हवाले नहीं कर देना चाहिए, जो अपनी बेल्ट रोड प्रोजेक्ट और अन्य पहलों के जरिए अपना प्रभुत्व बढ़ाना चाहता है. जहां कहीं भी चीन का दबदबा ब्रिक्स के अन्य सदस्य देशों के हितों से टकराये और जहां बेल्ट रोड प्रोजेक्ट सिर्फ चीन का प्रभाव बढ़ाने का काम करे, वहां भारत को भी चौकस हो जाना चाहिए.