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भारत और नेपाल का कितना भला करेगा पंचेश्वर बांध

शिवप्रसाद जोशी
२४ अक्टूबर २०१७

भारत नेपाल सीमा पर पिथौरागढ़ घाटी की काली नदी पर बन रहे पंचेश्वर बांध के खिलाफ पर्यावरणवादी और मानवाधिकार कार्यकर्ता आवाज उठा रहे हैं. स्थानीय लोगों में इस विशाल बांध परियोजना को लेकर भय और आशंका है.

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Indien Eröffnung Staudamm Narmada | Narendra Modi
फोटो प्रतीकात्मक हैतस्वीर: UNI

फिलहाल इस बांध की पर्यावरणीय मंजूरी के लिए जन सुनवाई के दौर चल रहे हैं. इन सुनवाइयों में भी आरोप है कि जनता के सवालों और सरोकारों की अनदेखी की जा रही है.

ये विशालकाय बांध, शिव के प्राचीन पंचेश्वर मंदिर से दो किलोमीटर नीचे सरयु और काली नदियों के संगम पर बनाया जाना है. संगम के बाद इस नदी को नेपाल में महाकाली और भारत में शारदा के नाम से जाना जाता है. 22 हजार करोड़ रुपये वाली पंचेश्वर बहुउद्देश्यीय जल बिजली परियोजना, भारत और नेपाल के बीच 1996 में हुई महाकाली नदी संधि के तहत प्रस्तावित है. साढ़े छह हजार मेगावाट बिजली उत्पादन के लक्ष्य वाला, 311-15 मीटर की प्रस्तावित ऊंचाई और 116 वर्ग किलोमीटर जलाशय क्षेत्र वाला ये दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा रॉक-फिल बांध होगा और आकार में टिहरी बांध से करीब तीन गुना अधिक होगा. इसका डूब क्षेत्र भी व्यापक है.

पनबिजली परियोजना के खिलाफ तेज होती आवाजें

फरक्का बांध वरदान है या अभिशाप?

आरोप है कि जनसुनवाइयों में पुनर्वास की बातें उठाकर स्थानीय लोगों का ध्यान मुआवजे और धनराशि की ओर मोड़ा जा रहा है जबकि बांध निर्माण से होने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय नुकसान के बारे में उन्हें अंधेरे में रखा गया है. अलग अलग स्तरों पर जनसंगठन, लेखक-पत्रकार और राजनीतिक कार्यकर्ता परियोजना का यह कहकर विरोध करते आ रहे हैं कि इससे भूगोल ही नहीं बल्कि स्थानीय संस्कृति भी छिन्नभिन्न हो जाएगी.

टिहरी बांध का उदाहरण भी दिया जाता है और नर्मदा का भी, जहां विस्थापित आबादी अपनी मिट्टी से उखड़कर दरबदर है. पुनर्वास के नाम पर एक विराट सरकारी अभियान जरूर चला लेकिन विकास की एक बहुत बड़ी कीमत विस्थापितों ने चुकायी है. टिहरी बांध से 2400 मेगावाट बिजली का वादा किया गया था. अभी तक इसकी जो टरबाइनें चल पायी हैं उनसे 1000 मेगावाट बिजली ही निकल पा रही है. उत्तराखंड के हिस्से में 12 फीसदी बिजली आती है.

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सरकारें और निर्माण एजेंसियां पंचेश्वर को विकास की एक अभूतपूर्व परियोजना के रूप में पेश कर रही हैं. उनकी दलील है कि पर्यावरणवादी और मानवाधिकार कार्यकर्ता जानबूझकर तबाही का डर फैला रहे हैं जबकि बांध पिछड़े इलाकों के पानी को दिन रात की समृद्धि में तब्दील कर देने वाला है. सरकार की दलील की रोशनी में टिहरी का अनुभव तो कुछ और ही कहता है जो न सिर्फ भूगर्भीय लिहाज से कमजोर हुआ है बल्कि पारिस्थितिकीय असंतुलन का शिकार हो गया है.

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बांध से बनी झील से अत्यधिक सीलन, जैव विविधता का नाश, पेड़ों और मिट्टी की कटान और जलवायु में परिवर्तन मुख्य समस्याएं हैं जिनके दूरगामी दुष्प्रभाव हैं. स्थानीय लोगों को रोजगार के जो सपने दिखाये गये थे उसके तहत कुछेक लोगों को मामूली नौकरियां ही मिल पायीं. लेकिन खुदाई और निर्माण ने जिस ठेकेदारी व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया उससे हिमालयी क्षेत्र में भ्रष्टाचार की नयी संस्कृति का जन्म हुआ.

भूगर्भविज्ञानियों के मुताबिक पंचेश्वर बांध जिस इलाके में प्रस्तावित है वह भूकंप के लिहाज से भी अत्यंत संवेदनशील है. और वे सब समस्याएं जो टिहरी बांध की थीं वे यहां ज्यादा विकराल और ज्यादा बड़े भूभाग में संभावित हैं. ऐसे बांधों की उम्र भी लंबी नहीं बतायी जाती क्योंकि समय के साथ इनमें गाद भरती जाती है जो बांध के ढांचे को कमजोर करती है. क्या सरकारें और उनके विशेषज्ञ इससे अंजान है? ऐसा तो नहीं लगता. फिर इतने बड़े बांध क्यों बनाये जा रहे हैं? जवाब यही है कि विकास के जिस मॉडल को फॉलो किया जा रहा है उसमें बुनियादी गड़बड़ी है. टिकाऊ और समावेशी विकास जनता को लालच नहीं देता, उन्हें भागीदार बनाता है.

ज्यादा बेहतर तो यह होता कि नागरिक आबादी के साथ साथ पर्यावरण और संस्कृति का ख्याल रखते हुए विकास परियोजनाओं का स्वरूप छोटा किया जाता. 100-150 मेगावॉट की छोटी छोटी जल बिजली परियोजनाएं स्थानीय आबादी के हितों का पोषण कर सकती हैं. चेक डैम बनाये जाएं. नदियों का प्रवाह अवरुद्ध न किया जाए. अगर इस अपार जल राशि का दोहन करना ही है तो सिर्फ बड़े बांध ही इकलौता उपाय नहीं हैं. एक बहुत लंबे समय तक एक जीवंत भूभाग को धूल धुएं सीमेंट बजरी और पत्थर गारे के पहाड़ में तब्दील कर देना तो कहीं से तर्कसंगत नहीं लगता.

दुनिया में कई जगह अब बड़े बांधों से तौबा की जाने लगी हैं. पन-बिजली और एटमी ऊर्जा को छोड़कर वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों पर जोर दिया जा रहा है. ये सच है कि दुनिया की 15 फीसदी बिजली पानी से ही आ रही है और पवन चक्की और सौर ऊर्जा सिर्फ चार फीसदी है. लेकिन जर्मनी जैसे देशों ने बड़े बांध न बनाने का निश्चय कर लिया है. भारत और चीन ही इस मामले में अव्वल हैं. यह विडंबना है कि भारत में बड़े बांधों के निर्माण में जो मशीनरी और उपकरण इस्तेमाल हो रहे हैं वे ज्यादातर बड़े देशों की कंपनियों से ही आ रहे हैं.

बांधों को लेकर एक दूरगामी ठोस नीति की जरूरत है. देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू ने भले ही उन्हें भविष्य के मंदिर अपने एक भावनात्मक नजरिए में कह दिया हो लेकिन जो अनुभव हाल के निर्मित और निर्माणाधीन बांधों से जुड़े हैं, उन्हें देखकर इन्हें मंदिर तो नहीं कहा जा सकता. ये दलील भी आगे चलकर टिक नहीं पाती कि विकास के लिए कुछ कुरबानियां देनी ही पड़ती हैं. अगर विकास समावेशी होगा तो इस किस्म की ऊलजुलूल मांग नहीं करेगा.