'आजाद कश्मीर' की 'आजादी' का ख्वाब
१९ जुलाई २०१६पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के शहर मीरपुर का यासिन नाम का किशोर जब भारतीय कश्मीर में लड़ते हुए मारा गया था तो हम लोग उदास नहीं खुश थे. सब ने यासीन के भाई को मुबारकबाद दी थी. यासीन स्कूल में हमारा सीनियर था और उस का भाई मेरे ही कक्षा में पढ़ता था. आजाद कश्मीर का खयाल वादियों में बड़ी उम्मीद के साथ तैरा करता था. मुझे आज भी याद है कि जब 1987 में मैंने स्कूल में पहली बार भाषण दिया तो उस का विषय था मकबूल भट. कश्मीरी आजादी का नायक मकबूल भट. स्कूल का वक्त याद आता है तो अब भी 'कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी जंग रहेगी' का नारा ही जेहन में गूंजता है. 'चिनार शोले उगल रही है' का तराना आज भी सुनकर आंसू उतर जाते हैं.
उस वक्त तक भारतीय कश्मीर में लड़ने के लिए जाने वाले सब 'मुजाहिद' यानि स्वतंत्रता सेनानी होते थे. लाइन ऑफ कंट्रोल के पाकिस्तानी तरफ के कश्मीर में उन दिनों स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और जिहादियों में कोई फर्क नहीं होता था. एलओसी के करीब ट्रेनिंग कैंप होते थे जो दोस्त वहां ट्रेनिंग के लिए गए वो बताते थे कि पाकिस्तानी आर्मी के लोग भी ट्रेनिंग देते थे. जिहादी तंजीमें पैसे जमा करने के लिए कैंप लगाती तो सब लोग दिल खोल कर चंदा दिया करते थे. भारतीय कश्मीर जाने वाले पाकिस्तानी भी होते थे लेकिन कश्मीरी भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते थे. फिर कुछ समय बाद मैंने नीलम घाटी के स्थानीय कश्मीरियों को जिहादियों के खिलाफ सड़कों पर निकलते हुए भी देखा. 1980 और 1990 के दशकों का 'जिहाद' नई सदी शुरू होते ही ठंडा पड़ गया.
'आजाद कश्मीर' के लोग पाकिस्तान पर कश्मीर की आजादी के लिए भरोसा करते रहे थे. लेकिन जैसे जैसे राष्ट्रवादी कश्मीरियों की जगह धार्मिक जिहादियों ने ले ली कश्मीरियों का विश्वास भी पाकिस्तान से जाता रहा. उन्हें लगा कि उनके आजादी के आंदोलन को हाइजैक कर लिया गया है.
पाकिस्तानी कश्मीर में मकबूल भट की जगह हाफिज सईद को कश्मीरियों का रोल मॉडल या हीरो बनाने की मुसलसल पाकिस्तानी कोशिश आखिरकार तकरीबन नाकाम हो चुकी है. ऐसी सोच पैदा होने में पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान की जिहादी सोच का काफी अमल दखल है. 9/11 के बाद की दुनिया में अब एलओसी के इस तरफ भी लोगों में यह एहसास पैदा हो चुका है कि 'राष्ट्रवाद' की जगह 'जिहादवाद' लाने से कश्मीर को कितना नुकसान हो चुका है. इस तरफ के कश्मीर को भारत पर तो कभी भरोसा था ही नहीं. लेकिन पाकिस्तान पर से भरोसा उठ जाने की भी कई वजह हैं.
मिसाल के तौर पर कश्मीरी किशोर, हाशिम और अशरफ ने जब 1971 के शुरू में गंगा प्लेन का अपहरण कर के लाहौर में उतारा था तो पाकिस्तान और पाकिस्तानी कश्मीर में इन दोनों का हीरो की तरह स्वागत हुआ. साल के अंत में जब मशरकी पाकिस्तान बांगलादेश बन गया तो इन्हीं दोनों को भारतीय ऐजेंट करार दे कर जेल में डाल दिया गया था.
राष्ट्रवादी कश्मीरियों को पाकिस्तान और भारत दोनों ने अपना दुश्मन समझा है. कश्मीरियों का दिल जीतने की कोशिश ना तो पाकिस्तान ने की और ना ही भारत ने. आज के पाकिस्तानी कश्मीर में अगर जनमतसंग्रह होता है तो लोगों की बहुतायत ना तो पाकिस्तान के साथ रहना चाहेगी और ना ही भारत के साथ. हाशिम कुरैशी तो वापस अपने वतन भारतीय कश्मीर चले गए और राजनीतिक पार्टी भी बना ली. उस पीढ़ी को तो समझ आ चुका है कि कश्मीर का मसला चरमपंथ से नहीं बल्कि बातचीत से ही हल हो सकता है. लेकिन बुरहान मुजफ्फर वानी की मौत लाइन ऑफ कंट्रोल के इस तरफ के नौजवान कश्मीरियों के लिए एक नया दौर शुरू कर सकती है.
पेशे से पत्रकार शमशीर हैदर पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर से आते हैं और डॉयचेवेले उर्दू के लिए काम करते हैं.