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9/11 से लादेन के जाल में फंसा अमेरिका

११ सितम्बर २०११

9/11 के हमलों को एक दशक पूरा हो गया है. आज भी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में प्लेन के घुसने और ताश के पत्तों की तरह पूरी इमारत के ढह जाने की तस्वीरें लोगों को बखूबी याद हैं. इस दर्द के साथ जिंदा है अमेरिका का ताज छिनने की कहानी.

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अमेरिका ने 9/11 के हमलों का बदला ले लिया है. ओसामा बिन लादेन मार गिराया जा चुका है. लेकिन ऐसा लगता है कि अल कायदा अमेरिका की सुपर पावर वाली छवि खराब करने में सफल रहा है.

नव-दक्षिणपंथी सोच का खेल

समाचार एजेंसी आईपीएस के अनुसार कुछ विदेश नीति के ज्यादातर बड़े जानकारों का यह मानना है कि 11 सितंबर के बाद बुश सरकार की प्रतिक्रिया जरूरत से ज्यादा तीखी थी और अमेरिका अभी तक वही गलती करता जा रहा है. आईपीएस के अनुसार कुछ नव-दक्षिणपंथी दुनिया को यह दिखा देना चाहते थे कि अमेरिका कितना ताकतवर देश है. वे खास तौर से मध्य पूर्व पर अमेरिका की प्रमुखता स्थापित करना चाहते थे.

10 Jahre nach 11. September Oberst Urbach Interview
तस्वीर: DW

बुश सरकार पर गैर सरकारी संस्था पीएनएसी यानी प्रोजेक्ट फॉर द न्यू अमेरिकन सेंचुरी का बहुत प्रभाव था. नव-दक्षिणपंथियों की इस संस्था ने सरकार को हर मुमकिन आतंकवादी खतरे पर सैन्य कार्रवाई करने की सलाह दी. साथ ही इराक में सरकार गिराने और सद्दाम हुसैन को मार गिराने कि सलाह भी इसी संस्था से आई. इन सलाहों ने काम भी किया. अमेरिका दुनिया में सबसे ताकतवर देश की छवि बनाने में कामयाब रहा. पीएनएसी से प्रभावित लेखक चार्ल्स क्राउटहामर ने वॉशिंगटन पोस्ट में लिखा, "सच्चाई तो यह है कि रोमन एम्पायर के बाद इतिहास में दुनिया का कोई भी देश सांस्कृतिक और आर्थिक तौर पर और तकनीकी और सैन्य लिहाज से इतना प्रभावशाली नहीं रहा है जितना अमेरिका."

सबसे बुरा फैसला

पीएनएसी की सलाह पर राष्ट्रपति बुश ने न तो बिन लादेन और अल कायदा के अन्य प्रमुखों को खोजने को प्राथमिकता दी और न ही अफगानिस्तान में सुरक्षा और निर्माण की ओर ध्यान दिया. बजाए इस सब के उन्होंने अमेरिकी सेना और खुफिया एजेंसियों को इराक के खिलाफ लड़ाई की तैयारी में लगा दिया. क्योंकि उस समय उनके लिए सबसे जरूरी था दुनिया को यह दिखाना कि अमेरिका आज भी सबसे ताकतवर देश है. राष्ट्रपति बुश के इस फैसले को आज पूरी दुनिया पिछले एक दशक में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा लिए गए सबसे बुरे फैसले के रूप में देखती है. हालांकि पीएनएसी इस से इत्तिफाक नहीं रखती.

10 Jahre nach 11. September Oberst Urbach Interview
तस्वीर: DW

बुश का यह एक गलत फैसला अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के लिए जिम्मेदार रहा. आज तालिबान से जूझने के लिए अमेरिका हर महीने 10 अरब डॉलर खर्चता है. इस के साथ साथ अमेरिका को यह नुकसान भी हुआ कि 9/11 के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय की जो सहानुभूति उसे प्राप्त हुई थी, वह उस से छिन गई. साथ ही दुनिया भर में हुए कई सर्वेक्षणों के अनुसार दुनिया के अधिकतर मुस्लिमों ने बुश की इराक के खिलाफ लड़ाई को अमेरिका की इस्लाम के खिलाफ लड़ाई के रूप में लिया.

सोवियत संघ की तर्ज पर

इराक के खिलाफ लड़ाई बिन लादेन के लिए बड़ी सफलता भी रही क्योंकि एक तरह से अमेरिका लादेन के बनाए जाल में फंस गया. लादेन यह बात जानता था कि मॉस्को ने सालों तक अफगानिस्तान में जो दखल दिया वह सोवियत संघ के पतन का एक बड़ा कारण बना. अमेरिका के साथ भी वैसा ही हो सकता था. 2004 में बिन लादेन ने एक वीडियो में कहा, "हमने पिछले 10 साल में मुजाहिद्दीन के साथ मिल कर रूस की ऐसी कमर तोड़ी है कि वह दीवालिया हो गया और अंत में उसने खुद ही हार मान ली. अब हम अमेरिका के साथ भी यही रणनीति अपना रहे हैं. अब हमें बस इतना और करना है कि हम दो मुजाहिद्दीन को दूर कहीं पूर्व में भेज दें और उनके हाथ में एक कपड़ा थमा दें, जिस पर लिखा हो 'अल कायदा'. अमेरिका के जनरल उसे देख कर भागते हुए आएंगे और अमेरिका को इस के बाद केवल जान माल का ही नहीं, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक नुकसान भी होगा."

Afghanistan Presse Zeitungen
तस्वीर: AP

लादेन के मन का हुआ

आखिरकार हुआ भी वैसा ही जैसा बिन लादेन ने कहा. अमेरिका को जहां भी अल कायदा का सुराख मिला, वहां सेना तैनात कर दी गई और ड्रोन हमले होने लगे. बुश के कार्यकाल के दौरान अमेरिका के उच्च राष्ट्रीय सुरक्षा अधिकारी रहे रिचर्ड क्लार्क ने डेलीबीस्ट डॉट कॉम पर लिखा, "लम्बे समय तक हम अपने दुश्मन के हाथ की कठपुतली बने रहे. हमने बिलकुल वही सब किया जो वे हमसे कराना चाहते थे, उन्होंने हमसे जो प्रतिक्रिया चाही हमने वही दी और बदले में हमारी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा और पूरे मध्य पूर्व को भी."

Flash-Galerie Afghanistan Helmand Polizei
तस्वीर: Rohullah Elham

अमेरिका की 'आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई' का खामियाजा दूसरे देशों की सरकारों और आम जनता को भी झेलना पड़ा, खास तौर से सोमालिया और यमन में. पाकिस्तान भी इस से अछूता नहीं रहा और अफगानिस्तान में तो आज भी हालात बुरे हैं.

ओबामा भले ही इस बात को डंके की चोट पर कहें कि उन्होंने इराक से सेना वापस बुलवाई है, अफगानिस्तान में उनके कार्यकाल संभालने के बाद दो साल में सेना एक लाख कर दी गई है. अमेरिका अब तक आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में साढ़े चार हजार अरब डॉलर खर्च चुका है. इसके बाद अगर अब अमेरिका बुरे आर्थिक दौर से गुजर रहा है, तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है.

रिपोर्ट: आईपीएस/ईशा भाटिया

संपादन: वी कुमार

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