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स्त्रियों से आखिर ये किस तरह का बदला

२८ दिसम्बर २०१५

निर्भया कांड के तीन साल बाद भले नाबालिग अपराधियों के खिलाफ सख्ती का फैसला लिया गया हो, भारत में बलात्कार के मामले कम नहीं हो रहे. अब बदले की यौन हिंसा की खबरें भी आने लगी हैं. उत्तर प्रदेश में पीड़ित ने आत्महत्या कर ली.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Saurabh Das

निर्भया कांड की तीसरी बरसी बीती भी न थी और उसके एक गुनहगार को नाबालिग होने की वजह से मिली रिहाई को लेकर आक्रोश ठंडा भी न पड़ा था कि यूपी के वाराणसी के पास एक लड़की ने अपनी जान दे दी. उसकी मां ने पिछले दिनों स्थानीय चुनाव में जीत हासिल की थी. विरोधी गुट के दो लोगों को उसकी जीत इतनी खल गई कि बदला लेने के लिए उन्होंने महिला की बेटी को ही अपनी हवस का शिकार बना दिया. वो लड़की शिकायत लेकर पुलिस के पास गई तो उसे खदेड़ दिया गया. अपमान और यंत्रणा का दंश झेलती उस लड़की ने आखिर अपनी जान दे दी.

साल बीतते बीतते दिल दहला देने वाली घटना से चमकते भारत पर फिर से कालिख की एक लकीर खिंच गई. सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्त्री के विरुद्ध दमन कितना सर्वव्यापी, कितना सिलसिलेवार, कितना सुनियोजित होता जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र ने बलात्कार को एक तरह का जनसंहार कहा है. यूएन ने 1948 में मानवाधिकार के सार्वभौम घोषणापत्र को स्वीकार किया था. सत्तर और अस्सी के दशकों में स्त्री अधिकारों पर बहसों और प्रस्तावों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए 1993 में यूएन ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा के खात्मे पर प्रस्ताव को मंजूरी दे दी. इसके तहत ये बताने की कोशिश की गई कि महिलाओं को हिंसा से मुक्ति का अधिकार है जिसमें घरेलू, साम्प्रदायिक, जातीय और राज्य इन तमाम संस्थाओं से प्रायोजित हिंसा को शामिल किया गया था. संयुक्त राष्ट्र की कोशिशें दिखाती हैं कि स्त्रियों को पूरी दुनिया में शोषण के प्रमुख हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है और इस धारणा के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी संघर्ष हो रहा है.

भारत में वैदिक काल की स्त्रीधन जैसी धारणा से लेकर यूरोप, यूनान, अरब और चीन जापान की प्राचीन संस्कृतियों में स्त्रियों को उपभोग और गुलाम के तौर पर ही इस्तेमाल किया जाता रहा था. प्रख्यात जर्मन चिंतक फ्रेडरिक एगेंल्स ने विभिन्न विश्व समाजों में विकास की विभिन्न अवस्थाओं में महिलाओं के शोषण चक्र और परिवार जैसी बुनियादी संस्था में उनकी स्थिति पर एक सघन विश्लेषण किया है और लगता है कि उनका आकलन आज के हालात में खरा बना हुआ हैं जबकि पूरी दुनिया में आजादी और मानवाधिकार की बातें डंके की चोट पर की जाती हैं.

पुरुषवादी वर्चस्व की समाज व्यवस्थाएं और धार्मिक और जातीय रूढ़ियां स्त्रियों को घर और समाज में एक सजी-धजी वस्तु की तरह पेश करती हैं जिसका उपभोग करते रहने की घिनौनी परंपरा चली आ रही है. और इसी में वे सब कुत्सित कर्म शामिल हैं जिन्हें हम शोषण, बलात्कार, बदले और यौन हिंसा के भयावह रूपों के बारे में देखते सुनते और जानते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्डस ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2013 के मुकाबले महिलाओं के विरुद्ध हिंसा में नौ फीसदी की वृद्धि 2014 में देखी गई. कुल मामले आए करीब तीन लाख 38 हजार. इनमें से तैंतीस हजार मामले बलात्कार के पाए गए थे. और इनमें भी 90 फीसदी मामलों में बलात्कार करने वाले रिश्तेदार, पड़ोसी, नियोक्ता और परिचित लोग थे.

एक डराने वाला तथ्य ये भी है कि बलात्कार की शिकार 38 फीसदी वारदातों की शिकार 18 साल से कम उम्र की लड़कियां रही हैं. ये वे आंकड़े हैं जो दर्ज किए हुए मामलों से जुटाए गए हैं. आधिकारिक तौर पर माना जाता है कि वास्तविक मामले इससे कहीं ज़्यादा है. एक सच्चाई ये भी है कि इन मामलों में हिंसा की ठीक ठीक वजह का पता नहीं चल पाता है. दूसरी बात बलात्कार कर बदला निकालने की हिंसक कार्रवाई के मामले भी बढ़े हैं लेकिन इनका भी कोई ठोस आंकड़ा सरकारों के पास नहीं है.

असल में देखा जाए तो स्त्री शरीर पर नियंत्रण और वर्चस्व की दबी कुंठित घिनौनी कामना ही एक तरह का बदला है जो एक कामांध पुरुष एक स्त्री से लेना चाहता है. और ये आज की बनी स्थिति नहीं है, ये सदियों से चली आ रही सामाजिक विषमता है जो अब अपने ज़्यादा खूंखार, ज्यादा जहरीले, ज्यादा पैशाचिक रूप में सामने आ रही है और जिसकी डरावनी मिसालें हम हर उस जगह में देख रहे हैं जहां स्त्रियां आगे बढ़ रही हैं और अपने हक के लिए लड़ रही हैं.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी