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श्टाइनबर्ग: सऊदी राजघराने का विकल्प नहीं

डेनिस श्टूटे/एमजे३१ जनवरी २०१५

सऊदी अरब दुनिया के सबसे निरंकुश देशों में गिना जाता है, लेकिन फिर भी पश्चिमी लोकतांत्रिक देश आखिर उसकी लल्लो चप्पो क्यों करते हैं. इसका जवाब पश्चिम एशिया विशेषज्ञ गीडो श्टाइनबर्ग ने डॉयचे वेले को इस इंटरव्यू में दिया है.

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तस्वीर: picture-alliance/EPA/Saudi Press Agency

सऊदी अरब दुनिया के सबसे निरंकुश देशों में गिना जाता है, लेकिन फिर भी पश्चिमी लोकतांत्रिक देश आखिर उसकी लल्लो चप्पो क्यों करते हैं. इसका जवाब पश्चिम एशिया विशेषज्ञ गीडो श्टाइनबर्ग ने डॉयचे वेले को इस इंटरव्यू में दिया है.

डॉयचे वेले: अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, रूस के प्रधानमंत्री दिमित्री मेद्वेदेव और बहुत से दूसरे राज्य सरकार प्रमुख सऊदी राजा अब्दुल्लाह के शोक समारोह में मौजूद थे. विश्व राजनीति के चोटी के सभी नाम. सऊदी अरब इतना महत्वपूर्ण क्यों है?

गीडो श्टाइनबर्ग: सबसे महत्वपूर्ण है दुनिया के तेल भंडार के एक चौथाई का मालिक होना. यह सस्ते में निकाला जाने वाला तेल और महत्वपूर्ण होता जाएगा, भले ही आने वाले सालों में तेल बाजार का जैसा भी विकास हो. हालांकि अब अमेरिका और यूरोप को बहुत कम मात्रा में निर्यात किया जा रहा है, यह मुख्य रूप से पूर्व एशिया को जा रहा है, लेकिन कुल मिलाकर बाजार के लिए यह महत्वपूर्ण है. यदि सऊदी अरब सीरिया की तरह अस्थिर हो जाएगा और उसके निर्यात का एक हिस्सा भी बाधित होता है, तो उसका विश्व अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर होगा.

फिर पश्चिमी देश सुधार विरोधी सऊद घराने का समर्थन क्यों कर रहे हैं? इस नजरिए से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सऊदी अरब में मौजूदा घराने का शासन है या किसी और का, क्योंकि हर सरकार विश्व बाजार में तेल बेचेगी.

यह एक खतरनाक अवधारणा है, क्योंकि मौजूदा सरकार का या जारी रहने वाली अस्थिरता का कोई स्वीकार्य विकल्प नहीं है. सऊदी अरब में एक मजबूत सलाफी विपक्ष है जिसके संबंध मुस्लिम ब्रदरहुड, आतंकी संगठन अल कायदा और इस्लामिक स्टेट से है. और देश के पूरब में ताकतवर शिया विपक्ष है. इस बात का डर है कि यदि सऊद घराना देश पर अपना नियंत्रण खो देता है तो नई सरकार नहीं आएगी बल्कि देश क्षेत्रीय और धार्मिक आधार पर तीन चार हिस्सों में बंट जाएगा.

Arabischer Frühling und die Herausforderungen
गीडो श्टाइनबर्गतस्वीर: DW/S. Amri

तो एक और विफल राज्य के बदले पिछड़ा तानाशाह ही सही?

स्पष्ट है कि यही राजनीति है. सचमुच देश में कोई नामलेवा ताकत नहीं है जो किसी तरह से विपक्ष की भूमिका निभा सके. इसकी वजह सरकार की नीति है जो सालों से शांतिपूर्ण विकल्प बनने को रोक रही है. इससे यह हकीकत नहीं बदलती कि एक विफल राज्य सऊदी अरब का मतलब प्रलय होगा, सबसे बढ़कर खुद सउदी अरब के नागरिकों के लिए.

पश्चिमी नजरिए से सऊदी अरब इलाके की राजनीति में क्या भूमिका निभा रहा है?

सऊदी अरब सालों से विश्वसनीय सहयोगी है, 1979 से अमेरिका की राजनीति में एक तय कारक है, ईरान से दुश्मनी. इसमें अमेरिका सऊदी के साथ एकमत है और ईरान ने 1990 के बाद से साझा दुश्मन सोवियत संघ की जगह ले ली है. ज्यादातर दूसरे क्षेत्रीय मुद्दों पर भी सऊदी अरब सहयोग के लिए तैयार है.चाहे वह सीरिया में आईएस के खिलाफ संघर्ष हो, जहां सऊदी अरब हवाई हमलों में भाग ले रहा है. इसके विपरीत अमेरिकी और यूरोपीय राजनीतिज्ञ सऊदी अरब के घरेलू मुद्दों को उतना महत्वपूर्ण नहीं मानते. जर्मन सरकार ने भी, जो गेरहार्ड श्रोएडर के शासनकाल से सऊदी समर्थक हो गई है, इन मुद्दों के लिए कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है.

क्या अब नीति में परिवर्तन के कोई संकेत हैं? जर्मन नेतृत्व सऊदी राजा की शोक सभा में मौजूद नहीं था. इसके अलावा जर्मनी में हथियारों की बिक्री पर रोक लगा दी है.

अब तक जर्मनी की सुरक्षा परिषद के फैसले के बारे में यह समाचार सिर्फ दैनिक बिल्ड में है. मैं अभी इंतजार करूंगा कि इसका क्या मतलब है. लेकिन मैं समझता हूं कि पिछले महीनों में साफ हो गया है कि मौजूदा सरकार में एसपीडी हथियारों की बिक्री के खिलाफ है. इसके अलावा इस बीच ब्लॉगर रइफ बदावी को बर्बर सजा देने की खबर आई है. इसका नतीजा यह हुआ है कि जर्मन सरकार ने किसी को भेजने में संकोच दिखाया है. नीति में परिवर्तन मैं नहीं देख रहा हूं.

सऊदी अरब के लिए एक विवेकपूर्ण नीति क्या हो सकती है?

सऊदी अरब के साथ निकट संबंध से हम बच नहीं सकते. जर्मनी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है और सऊदी अरब सबसे बड़ा तेल उत्पादक है. इसके अलावा सऊदी अरब इस पड़ोसी इलाके का महत्वपूर्ण किरदार है. निकट संबंध बने रहने चाहिए और सुरक्षा सहयोग को और व्यापक बनाने की जरूरत है, इसमें सारी इच्छाएं पूरी किए बिना. लेकिन यदि आप ऐसे सहयोगी को हथियार दे रहे हैं तो यह भी साफ साफ कहना होगा कि देश में क्या ठीक नहीं चल रहा है और कहां बदलाव की जरूरत है. हथियार बेचना और उम्मीद करना कि सऊदी अरब स्थिरता का कारक है, यह अच्छी कूटनीति नहीं है.

Salman bin Abdulaziz Al Saud
किंग सलमानतस्वीर: picture-alliance/dpa/L. Zhang

सऊदी अरब अरबों डॉलर खर्च कर दुनिया भर में वहाबी विचारधारा को फैला रहा है जो बहुत से देशों में सलाफी आंदोलन के रूप में समस्या पैदा कर रहा है. इसके अलावा सीरिया में इस्लामी कट्टरपंथियों की मदद भी है, जिसके नतीजे हमें पता हैं. क्या सऊदी अरब में स्थिरता का कारक देखना गलत नहीं है?

सऊदी अरब दरअसल स्थिरता के लिए बड़े जोखिमों वाला देश है. लेकिन हमने जो सीरिया, लीबिया या अब यमन में देखा है, उसके बाद हमें इलाके में स्थिरता के बारे में फिर से सोचना होगा. यूरोपीय कूटनीति का लक्ष्य होना चाहिए, ऐसी स्थिरता हो जो कि गतिशील हो, जो बदलाव को मुमकिन बनाए. यदि वहां के देश हमारे सहयोगी बनना चाहते हैं तो उन्हें ये बदलाव शुरू करने चाहिए. आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष में मैं सऊदी अरब को सहयोग करने वाला पार्टनर मानता हूं. कोई और देश इतनी सख्ती से आईएस का मुकाबला नहीं कर रहा है जितना सऊदी अरब. दिक्कत यह है कि सऊदी यह नहीं समझ रहे कि अपने तरह के इस्लाम को बढ़ावा देना अंततः चरमपंथ को बढ़ावा देने जैसा है. उनके लिए वह असली इस्लाम है. हमारे लिए वह सलाफी चरमपंथ है और इसके साथ आतंकी संगठनों के बनने का कारण.

आप नए राजा सलमान से क्या उम्मीद रखते हैं?

कुछ भी नहीं. सलमान अत्यंत बूढ़े और बीमार हैं. अगले उत्तराधिकारी प्रिंस मुकरीन के साथ स्थिति दिलचस्प होगी, जिनके बारे में हम बहुत नहीं जानते, इतना ही कि वे ईरान की ओर झुके हुए हैं. क्योंकि वे कभी किसी अहम ओहदे पर नहीं थे, सिर्फ कुछ दिन के लिए खुफिया सेवा के प्रमुख थे. सबसे महत्वपूर्ण खबर यह है कि गृह मंत्री मोहम्मद बिन नइफ अगले युवराज हैं और वे सख्ती से सुरक्षा वाले राज्य और बुद्धिमान घरेलू नीति के पक्षधर हैं, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ हैं. हमें अब पता है कि दूरगामी तौर पर सऊदी अरब में कौन शासन करेगा. 55 साल की उम्र के साथ नइफ अगले 30 साल में भी राजा हो सकते हैं. शासक घराना इसके साथ यह संकेत देना चाहता था कि वह देश में स्थिरता चाहता है.

गीडो श्टाइनबर्ग बर्लिन में विज्ञान राजनीति फाउंडेशन में मध्यपूर्व विशेषज्ञ हैं. 2002 से 2005 तक वे चांसलर कार्यालय में अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद विभाग के प्रमुख थे.