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लोकतंत्र पर खतरे के बादल

मारिया जॉन सांचेज
१२ जनवरी २०१८

पिछले सात दशकों में भारतीय राजनीति और नौकरशाही ने लगातार जिस तरह से आम नागरिक के भरोसे को ठेस पहुंचाई है, उसके बाद उसका भरोसा सिर्फ न्यायपालिका में ही बचा है. तो क्या अब जजों ने ही उस भरोसे पर सवाल उठा दिया है?

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Indien Justizsystem Pressekonferenz Richter am Obersten Gerichtshof
तस्वीर: Reuters

 न्यायपालिका भी उस भरोसे की रक्षा तभी तक कर सकती है जब तक वह निष्पक्ष ढंग से स्थापित परंपराओं का निर्वाह करते हुए अपनी जिम्मेदारी को अंजाम दे और कार्यपालिका यानी सरकार से स्वयं को दूर रखे. लेकिन यदि न्यायपालिका का कामकाज ही ठीक ढंग से न चल रहा हो और उसकी निष्पक्ष भूमिका के प्रति स्वयं न्यायाधीशों को ही संदेह होने लगा हो, तो यह न्यायपालिका के लिए ही नहीं स्वयं लोकतंत्र के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा है.

Indien Justizsystem Pressekonferenz Richter am Obersten Gerichtshof
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. Qadri

 10 जनवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे ने अपने एक लेख में देश के सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज की समीक्षा करते हुए यह सवाल उठाया था कि क्या देश के प्रधान न्यायाधीश कानून के ऊपर हैं या किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह कानून के अधीन हैं. उनके जैसे अनुभवी और वरिष्ठ विधिवेत्ता को यह सवाल उठाना पड़ा, इसी से यह स्पष्ट हो गया था कि सुप्रीम कोर्ट में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. दो दिन बाद 12 जनवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक कदम उठाकर दवे की चिंताओं को पुष्ट कर दिया. स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ जब किसी भी न्यायाधीश ने संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया हो. लेकिन इस बार एक नहीं, सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों ने बाकायदा संवाददाता सम्मेलन बुलाकर देशवासियों को संबोधित किया और बताया कि प्रधान न्यायाधीश को इस बात के लिए समझाने में असफल रहने के कारण वे यह असाधारण कदम उठा रहे हैं कि वे कामकाज की स्थापित परंपराओं और प्रणाली का पालन करें.

उन्होंने सात पृष्ठों का एक बयान भी जारी किया और प्रधान न्यायाधीश पर मनमाने ढंग से केस खंडपीठों के पास भेजने का आरोप लगाया. जाहिर है कि न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर पर इस प्रकार के खुले विद्रोह के न्यायपालिका और लोकतंत्र, दोनों के लिए दूरगामी परिणाम निकालेंगे क्योंकि बिना कहे ही इन चार न्यायाधीशों ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रधान न्यायाधीश सरकार और सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी के प्रति निष्पक्ष रवैया नहीं अपना रहे. उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि प्रधान न्यायाधीश समान सहयोगियों के बीच प्रथम है और उसकी कुछ विशेष जिम्मेदारियां भी हैं, लेकिन वह अपने सहयोगियों से हकीकत में या कानूनी नजरिये से श्रेष्ठतर नहीं है.

दरअसल सुप्रीम कोर्ट में प्रधान न्यायाधीश को मिलाकर पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों का एक कॉलेजियम होता है जो न्यायधीशों की नियुक्ति, प्रोन्नति और मामलों को खंडपीठों को आवंटित करने जैसे काम मिलजुल कर आम सहमति के आधार पर करता है. बहुत पहले से कॉलेजियम प्रणाली के असफल होने की बात कही जाती रही है लेकिन अब तो यह पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है कि यह प्रणाली नाकाम हो चुकी है क्योंकि पांच में से चार सदस्य  प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के खिलाफ विद्रोह कर गए हैं. ये चार जज हैं, न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ. इनकी शिकायत यह है कि वरिष्ठ न्यायधीशों की अनदेखी करके मुकदमे मनमाने ढंग से खंडपीठों को आवंटित किये जा रहे हैं, और एक ख़ास किस्म के मामले एक खास किस्म के खंडपीठ को मिल रहे हैं. सीबीआई जज बी. एच. लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में मृत्यु का मामला भी उन कारणों में शामिल है जिन्होंने चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों को विद्रोह करने पर मजबूर किया. लोया उन हत्याओं की जांच कर रहे थे जिनमें भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भी आरोपी हैं.

इस विद्रोह के बाद का रास्ता बेहद जोखिम भरा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और वित्तमंत्री अरुण जेटली समेत अनेक केंद्रीय मंत्री और भाजपा नेता पिछले वर्षों में कई बार न्यायपालिका को चेतावनी दे चुके हैं कि वह अपने अधिकार क्षेत्र में रहे और लक्ष्मण रेखा को न लांघे. न्यायपालिका के सर्वोच्च स्तर पर हुए विद्रोह को वह न्यायपालिका में हस्तक्षेप करने का बहाना भी बना सकती है और उस पर अंकुश लगाने की कोशिश कर सकती है. अन्य राजनीतिक दल भी इस विवाद में कूदकर इसे और अधिक मटमैला बना सकते हैं. कुछ लोग प्रधान न्यायाधीश पर तो कुछ अन्य इन चार विद्रोही न्यायाधीशों पर महाभियोग चलाने की मांग भी कर सकते हैं. सरकार पहले से ही कॉलेजियम प्रणाली से असंतुष्ट चल रही थी. वह इसकी जगह अपनी पसंद की प्रणाली लागू करने की कोशिश भी कर सकती है. फिलहाल तो सब कुछ अनिश्चित लग रहा है.