निर्भया कांड: तीन साल में हमने क्या सीखा?
१६ दिसम्बर २०१५जब आप विदेश में रहते हैं, तो लोगों के सामने आप ही को अपने देश का प्रतिनिधित्व करना पड़ता है. अखबारों में खबरें पढ़ने के बाद लोग आपसे ही पूछने आते हैं कि खबर में कितनी सच्चाई है. तीन साल पहले जब निर्भया का मामला सामने आया, तब कभी टैक्सी वाले ने, तो कभी सब्जी वाले ने पूछा कि ये आपके यहां क्या चल रहा है. दुनिया भर में मीडिया ने सड़कों पर हुए प्रदर्शनों की तस्वीरें दिखाईं. रेप और मर्डर की जो खबरें कभी लोकल अखबारों के छठे या आठवें पन्ने पर छपा करती थीं, अब वे अंतरराष्ट्रीय अखबारों के पहले पेज पर दिखने लगी थीं. आज तीन साल बाद भले ही वे धीरे धीरे खिसकती हुई तीसरे, पांचवें, सातवें या नवें पेज पर पहुंच गयी हों लेकिन आज भी लोगों के वो सवाल वहीं के वहीं हैं.
एक नजर आंकड़ों पर
हाल ही में देश में अपराध दर पर एक रिपोर्ट आई है जो बताती है कि पिछले दस साल में नाबालिगों द्वारा किए गए संज्ञेय अपराधों में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. जहां 2003 में नाबालिगों द्वारा किए गए अपराध के 17,819 मामले दर्ज किए गए, वहीं 2014 में यह संख्या बढ़ कर 38,586 हो गयी. दस साल पहले रेप के 466 मामले सामने आए थे, जबकि पिछले साल दर्ज हुए मामलों में 2,144 बलात्कार के हैं. अकेले दिल्ली में ही संख्या 140 रही.
इन बढ़ते आंकड़ों को ले कर अक्सर कहा जाता है कि अपराध दर नहीं, रिपोर्ट दर्ज कराने वालों की संख्या बढ़ी है. अगर इसे मान भी लिया जाए, तो क्या यह कहना ठीक होगा कि अभी तक हमने सिर्फ अपराध की रिपोर्ट करना ही सीखा है, उससे निपटना, उसे समाज से हटाना नहीं? जिनके साथ अपराध हो रहा है वे जागरूक हो रहे हैं, लेकिन प्रशासन का क्या?
भारत के युवा का सच
इस बात पर ध्यान देना बेहद जरूरी है कि अधिकतर नाबालिग अपराधियों की उम्र 16 से 18 के बीच है. निर्भया के साथ दुष्कर्म करने वाला एक लड़का भी इसी उम्र का था. आज, तीन साल बाद उसकी रिहाई की बात चल रही है. चार दिन बाद उसे एक एनजीओ के सुपुर्द कर दिया जाएगा. कुछ लोग उम्मीद जता रहे हैं कि वह एक अच्छे नागरिक में तब्दील होगा, तो कुछ अपराधी को छोड़ दिए जाने पर नाराज हैं. इस उम्मीद और इस नाराजगी के बीच बहस लगातार जारी है.
भारत की लगभग 40 फीसदी आबादी 18 की उम्र से कम है. हम बहुत गर्व से कहते हैं कि भारत एक युवा देश है, भारत में बहुत संभावनाएं हैं, ये युवा ही भारत को विकासशील से विकसित बनाएंगे. लेकिन ये युवा वर्ग अगर इस तरह से अपराधों से घिरा रहा, तो क्या वाकई ऐसा कुछ मुमकिन हो पाएगा?
बातें करना सीखा है!
पिछले तीन साल में खूब बहस हुई है, कानून बने हैं, फंड दिए गए हैं. ऐसा नहीं है कि कोशिशें नहीं हुई. लेकिन सोच नहीं बदल पाई है. रात को घर से निकलते हुए एक लड़की को जो डर लगता है, वो वैसे का वैसा है. किसी लड़की को सड़क पर अकेला देख लड़कों का उसे छेड़ना भी नहीं बदला है. बेटी अगर देर तक घर ना लौटे, तो मां बाप के दिल में जो पहला ख्याल आता है, वो भी तो नहीं बदला है.
इन तीन सालों में हमने बातें करना जरूर सीखा है, हमने प्रदर्शन करना सीखा है, कैंडल लाइट मार्च करना सीखा है, फेसबुक पर लंबी लंबी पोस्ट डालना सीखा है, ट्विटर पर हैशटैग इस्तेमाल करना सीखा है. लेकिन समाज को बदलना, अपराध का सफाया करना, क्या ये भी हमने सीखा है?
ब्लॉग: ईशा भाटिया