दुनिया के बच्चों के हाल पर यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट उन भयावह स्थितियों के नतीजों के रूप में उभरे कुछ आंकड़ों को पेश करती है जो सदी दर सदी इस दुनिया पर काबिज हैं. ये स्थितियां हैं बच्चों की अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और शोषण की जो बद से बदतर हुई जाती हैं.
यूनिसेफ के मुताबिक 2030 तक पांच साल तक के दुनिया के करीब सात करोड़ बच्चे ऐसी बीमारियों से मारे जा सकते हैं जिनका इलाज संभव है. करीब 17 करोड़ बच्चे गरीबी की चपेट में आकर दम तोड़ सकते हैं और 75 करोड़ बच्चियां को शादी के नाम पर एक नरक में होम किया जा सकता है. ये अनुमान हवाई नहीं हैं, वर्षों के अध्ययन, शोध और दशकों से उभरते पैटर्न के आधार पर ये आकलन किए गए हैं. और अब तो इसे विडंबना कहना भी जैसे इस चिंता को हल्का करना है कि इतनी अत्यधिक वैश्विक प्रगति और प्रतिस्पर्धा में आखिर ये बच्चे कैसे छूटते जा रहे हैं और उनके खिलाफ अमानवीयता का दायरा लगातार फैलता क्यों जा रहा है?
यूनिसेफ की इस रिपोर्ट के हवाले से अगर भारत के हाल पर नजर डालें तो यहां के हालात भी कम डराने वाले नहीं. नारों, वादों, नीतियों, कार्यक्रमों और अभियानों के लंबे और कमोबेश अंतहीन सिलसिले के बाद अब ये देश ऐसे मुकाम पर है जहां आए दिन मन की बात होती है लेकिन ये भी एक रस्म की तरह सद्वचनों वाली नैतिक पुस्तक की तरह पेश की जा रही है. समाज और आर्थिकी के सूरतेहाल जबकि बिगड़े ही हैं.
यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत भी उन पांच देशों में शामिल है जहां 2015 में हुई करीब छह करोड़ बाल मौतों में से आधी मौतें हुई हैं. अन्य देश हैं- डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो, इथियोपिया, नाइजीरिया और पाकिस्तान. लेकिन ये देश अर्थव्यवस्था और ताकत के मामले में भारत के नजदीक नहीं ठहरते हैं. फिर भी बीमारियों से होने वाली मौतों में भारत इनके बराबर आ खड़ा हुआ है. रिपोर्ट भी यही दिखाती है कि भारत जैसे देश वैश्विक आर्थिक वृद्धि की राह पर तो सरपट दौड़ लगा रहे हैं लेकिन बाल मृत्यु दर में कटौती के मामले में पिछड़े हुए हैं. इसका अर्थ क्या है? जाहिर है इसका अर्थ यही है कि विकास की डुगडुगी बजाना अलग बात है, विकास के दृश्यों का निर्माण अलग बात है और विकास का समाज के हर हिस्से की बहुस्तरीय तरक्की के साथ संबंध बना पाना अलग बात है. आज भारत जिस विकास का मुकुट सजाए बैठा है उसके पीछे करोड़ों चीखें दबी हुई हैं. गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, हिंसा और शोषण से घिरे वंचित समाज की चीखें.
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भारत में बाल मजदूरी
जोखिम वाले काम पर रोक
भारत का मौजूदा कानून 14 साल से कम उम्र के बच्चों को 18 तरह के जोखिम वाले काम करने से ही रोकता है पर अब 18 साल तक के बच्चे भी इस तरह के काम नहीं कर पाएंगे. लेकिन घर पर चल रहे काम खतरनाक हैं या नहीं, इसे कौन तय करेगा?
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भारत में बाल मजदूरी
हुनर का सवाल
कुटीर उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि पारंपरिक हुनर कम उम्र में ही सिखाना जरूरी है. अगर संसद ने बाल श्रम कानून बदल दिया तो भारत द्वारा वर्ष 2016 तक बाल श्रम के उन्मूलन के द हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में किए गए वायदे का क्या होगा?
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भारत में बाल मजदूरी
बढ़ेगी बाल मजदूरी
बाल अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि अगर बाल श्रम पर नया कानून अस्तित्व में आया तो भारत के मौजूदा सवा करोड़ से भी ज्यादा बाल श्रमिकों की संख्या और बढ़ जाने की आशंका है.
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भारत में बाल मजदूरी
परिवार की मदद
पिछले साल ही बाल मजदूरों को बंधुआगिरी कराने वालों के शिंकजे से निकालने का अभियान चला रहे भारत के कैलाश सत्यार्थी को नोबेल पुरस्कार दिया गया. उनके देश में कॉपी-किताबों की जगह होगी बच्चों के लिए मां बाप की दुकान.
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भारत में बाल मजदूरी
कैसे रुके बाल मजदूरी
दुनिया भर में सवा सौ करोड़ बाल श्रमिक हैं. बच्चों को पढ़ने लिखने का और बेहतर जिंदगी का मौका देने की तो बहुत बात होती है लेकिन इस समस्या को जड़-मूल से नष्ट करने का कोई ठोस हल अब तक नहीं निकला है.
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भारत में बाल मजदूरी
सिर्फ बस्ते का भार
ढाबा, होटल, दुकान, खान या फैक्ट्री में काम नहीं, हमारे लिए तो कंधे पे बस्ते का भार है सही. बच्चों को परिवार चलाने की जिम्मेदारी नहीं पढ़ने लिखने और व्यक्तित्व का विकास करने की संभावना चाहिए.
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भारत में बाल मजदूरी
गरीबी का बोझ
बाल श्रम से निजात पाने के लिए स्कूल के बाद काम की बेड़ियां नहीं खेलों और पुस्तकों की ज़रुरत है. पर लोग करें भी क्या? उद्योग में नए रोजगार बन नहीं रहे और बढ़ती आबादी और बच्चों का लालन पालन भी तो सब से बड़ी परेशानी है.
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भारत में बाल मजदूरी
हंसी की तलाश
"घर से है मंदिर बहुत दूर, चलो यूं कर लें, एक रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए.” लेकिन कितने लोग हैं जो यह तय कर पाते हैं. इन बच्चों की हंसी में बेहतर जिंदगी की उम्मीद ठहाके लगा रही है लेकिन बहुत से बच्चों की उम्मीद पूरी नहीं होती.
रिपोर्ट: जसविंदर सिंह
एक और आंकड़ा देखिए. भारत में समय से पूर्व प्रसव और प्रसव काल से जुड़ी जटिलताएं बच्चों की मौत की सबसे बड़ी वजह बताई गई हैं. इनकी दर है 39 फीसदी. न्यूमोनिया से करीब 15 फीसदी बच्चे, डायरिया से करीब 10 फीसदी और सेप्सिस से करीब आठ फीसदी बच्चे अकाल मृत्यु के शिकार बनते हैं. यूं भारत में पांच साल से कम बच्चों में मृत्यु दर में गिरावट आई है. 1990 में प्रति हजार जन्मे बच्चों में ये संख्या 126 की थी और अब ये घटकर 48 रह गई है. यूनिसेफ के मुताबिक भारत में 2015 में ढाई करोड़ बच्चे पैदा हुए. दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में भारत की स्थिति अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बाद सबसे बुरी हैं. नेपाल और बांग्लादेश में पांच से कम की आयु में इन तीनों देशों से कम मृत्यु दर है. भारत में यूं तो 94 फीसदी आबादी के पास पीने का साफ पानी है लेकिन टॉयलेट सुविधाएं सिर्फ 40 फीसदी लोगों को ही उपलब्ध है. उचित पोषण, टीकाकरण, संक्रमणों से बचाव, पीने का साफ पानी, ये सब चीजें ऐसी है जो बच्चों को मौत से बचा सकती है. अगर लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया जाए तो दक्षिण एशिया में बच्चों की मृत्यु के मामलों में भारी कमी आ सकती है. जाहिर है शिक्षा भी एक बहुत बड़ा फैक्टर है.
बुनियादी चिंता की बात यही है कि साल दर साल इस तरह की रिपोर्टें आती रहती हैं लेकिन न तो राजनैतिक दलों के घोषणापत्रों और न ही सरकारों के एक्शन प्लान में नौनिहालों के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा का मुद्दा शामिल हो पाता है. ये एक पुरानी समस्या है और आधुनिक परिवेश में इसे नये सिरे से देखे जाने की जरूरत है. इसके लिये सामाजिक क्षेत्र में और अधिक निवेश और एक समन्वित नीति नियोजन और उस पर ईमानदारी से अमल जरूरी है. ‘राजनैतिक स्तर पर इच्छाशक्ति में कमी' की बात अब तोतारटंत हो गयी है. मन की बातें भी कितने दिन सुहाएंगी. लिहाजा करें तो कुछ ऐसा करें कि आमूलचूल बदलाव नजर आने लगे, एकदम एक्शन में आ जाएं, वरना बिना नौनिहालों के उस दूर समय का क्या होगा जिसे भविष्य कहने का चलन है.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
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बच्चे नहीं, मजदूर
बच्चे नहीं, मजदूर
हर साल 12 जून को बाल श्रम विरोधी अंतरराष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है. लेकिन दुनिया भर में अब भी करीब 17 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. 1999 में विश्व श्रम संगठन (आईएलओ) के सदस्य देशों ने एक संधि कर शपथ ली कि 18 साल के कम उम्र के बच्चों को मजदूर और यौनकर्मी नहीं बनने दिया जाएगा.
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बच्चे नहीं, मजदूर
मेड इन इंडिया तौलिये
दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु में बाल मजदूर. इस फैक्ट्री में तौलिये बनाए जाते हैं. मजदूरी करने वाला यह बच्चा करोड़ों बाल मजदूरों में एक है. आईएलओ के मुताबिक एशिया में ही 7.80 करोड़ बच्चे मजदूरी कर रहे हैं. पांच से 17 साल की उम्र की युवा आबादी में से करीब 10 फीसदी से नियमित काम कराया जाता है.
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बच्चे नहीं, मजदूर
स्कूल से कोई वास्ता नहीं
पढ़ाई लिखाई या खेल कूद के बजाए ये बच्चे ईंट तैयार कर रहे हैं. भारत में मां-बाप की गरीबी कई बच्चों को मजदूरी में धकेल देती है. भारत के एक ईंट भट्टे में काम करने वाली इस बच्ची को हर दिन 10 घंटे काम करना पड़ता है, बदले में मिलते हैं 60 से 70 रुपये.
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बच्चे नहीं, मजदूर
सस्ते मजदूर
भारत की जनगणना रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1.26 करोड़ बाल मजदूर हैं. ये सड़कों पर समान बेचते हैं, सफाई करते हैं, या फिर होटलों, फैक्ट्रियों और खेतों में काम करते हैं. व्यस्क मजदूरों की तुलना में बाल मजदूर को एक तिहाई मजदूरी मिलती है.
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बच्चे नहीं, मजदूर
अमानवीय हालात
आईएलओ की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक 50 फीसदी बच्चे खतरनाक परिस्थितियों में काम करते हैं. कई रात भर काम करते हैं. कई बच्चों को श्रमिक अधिकार भी नहीं मिलते हैं. उनकी हालत गुलामों जैसी है.
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बच्चे नहीं, मजदूर
मेड इन बांग्लादेश
बांग्लादेश में बाल मजदूरी काफी प्रचलित है. यूनिसेफ के मुताबिक देश में करीब 50 लाख बच्चे टेक्सटाइल उद्योग में मजदूरी कर रहे हैं. टेक्सटाइल उद्योग बांग्लादेश का सबसे बड़ा एक्सपोर्ट सेक्टर है. यहां बनने वाले सस्ते कपड़े अमीर देशों की दुकानों में पहुंचते हैं.
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बच्चे नहीं, मजदूर
महानगर में अकेले
कंबोडिया में प्राइमरी स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या सिर्फ 60 फीसदी है. स्कूल न जाने वाले ज्यादातर बच्चे अपने माता-पिता के साथ काम करते हैं. हजारों बच्चे ऐसे भी है जो सड़कों पर अकेले रहते है. राजधानी नोम पेन्ह की ये बच्ची सामान घर तक पहुंचाती है.
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बच्चे नहीं, मजदूर
लंबी है सूची
हालांकि दुनिया भर में सन 2000 के बाद बाल मजदूरों की संख्या गिरी है लेकिन एशिया के ज्यादातर देशों में हालात नहीं सुधरे हैं. बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, कंबोडिया और म्यांमार में अब भी ज्यादा पहल नहीं हो रही.
रिपोर्ट: एस्थर फेल्डेन/ओएसजे