मध्याह्न भोजन योजना का उद्देश्य सभी बच्चों को पौष्टिक खाना उपलब्ध कराने के साथ यह भी था कि बच्चे भोजन मिलने की वजह से स्कूल जाने में रुचि दिखाएंगे. भोजन और पढ़ाई को एक साथ जोड़कर देखा गया, किंतु यह पूरा सच नहीं है. सरकारी स्कूलों की शैक्षिक गुणवत्ता में गिरावट के चलते छात्र प्राइवेट स्कूलों की ओर रुख कर रहे हैं. मध्य प्रदेश के स्कूलों में मध्याह्न भोजन को लेकर देश के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक यानी कैग की ताजा रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है.
उपस्थिति में गिरावट
मध्य प्रदेश के स्कूलों में पिछले चार सालों में छात्रों की उपस्थिति में करीब पांच प्रतिशत कमी आयी है. विधानसभा में पेश कैग रिपोर्ट के अनुसार प्राइमरी स्कूलों में 2010-11 के दौरान छात्रों की प्रतिदिन उपस्थिति 80.10 फीसदी थी, जो 2014-15 में घटकर 75.67 प्रतिशत रह गई. इसी तरह मिडिल स्कूलों में 2010-11 में 79.67 प्रतिशत छात्र प्रतिदिन स्कूल आते थे, जो 2014-15 में गिर कर केवल 75 फीसदी रह गई. सरकारी स्कूलों में प्रतिदिन उपस्थिति घटने के साथ नामांकन भी कम होता जा रहा है.
वर्ष 2010-11 में नामांकन 1 करोड़ 11 लाख था, जो 2014-15 में 92 लाख 51 हजार रह गया, जबकि मध्याह्न भोजन योजना का उद्देश्य कमजोर आर्थिक वर्ग के घरों के बच्चों को नियमित रूप से स्कूल आने के लिए प्रेरित करना था. दूसरी ओर प्राइवेट स्कूलों में छात्रों की संख्या में 2011-12 से 2014-15 में 38 प्रतिशत बढ़ी. छात्रों की कमी को लेकर कैग ने पाया कि मुफ्त भोजन की अपेक्षा लोग गुणवत्ता युक्त शिक्षा को प्राथमिकता दे रहे हैं.
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दुनिया भर की कक्षाएं
स्कूल का अर्थ
दुनिया भर में छात्र कैसे सीखते हैं? हर जगज टीचर ब्लैकबोर्ड पर चॉक से लिखते हैं, लेकिन इसके बावजूद कक्षाओं में अंतर दिखता है. कुछ जगह नन्हे छात्र बाहर कामचलाऊ बेंचों पर बैठते हैं, तो कहीं जमीन पर पद्मासन की मुद्रा में और कहीं लैपटॉप के सामने.
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डिजिटल टेक्स्टबुक
दक्षिण कोरिया की शिक्षा प्रणाली में डिजिटल मीडिया का अत्यधिक चलन है. हर कक्षा में कंप्यूटर और इंटरनेट मौजूद होता है. सरकार किताबों की जगह ई-बुक्स इस्तेमाल करना चाहती है. इसे बढ़ावा देने के लिए गरीब से गरीब परिवार को भी टेबलेट पर्सनल कंप्यूटर मुफ्त दिये जा रहे हैं.
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देहाती इलाकों को नुकसान
किताबों और चार्टों को डिजिटलाइज किया जा सकता है लेकिन सीखने का तरीका मानव स्वभाव का हिस्सा है और इसे डिजिटलाइज नहीं किया जा सकता. छह साल तक स्कूली पढ़ाई मुफ्त करने के बाद घाना में अब सारक्षता का स्तर काफी ऊंचा हो चुका है. वैसे तो वहां स्कूल की पढ़ाई नौ साल की है, लेकिन देहाती इलाकों के स्कूली बच्चे पढ़ाई के बावजूद आधिकारिक भाषा अंग्रेजी नहीं बोल पाते हैं.
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मुश्किल शुरूआत
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर प्राथमिक शिक्षा की अनदेखी के आरोप लगते हैं, लेकिन आरोप लगाने वाले भी जानते हैं कि हालात आज भी बहुत ज्यादा नहीं बदले हैं. ग्रामीण इलाकों में प्राइमरी स्कूलों की दशा दयनीय है, ज्यादातर स्कूलों में शौचालय तक नहीं हैं. कई इलाकों में एक से पांचवीं कक्षा तक के छात्रों के लिए सिर्फ एक या दो शिक्षक मौजूद रहते हैं.
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टचपैड पर लिखने की सीख
जर्मनी के इस स्कूल में नन्हे बच्चे पेंसिल से कॉपी पर लिखना नहीं सीखते. यहां लिखने के लिए स्मार्टबोर्ड का इस्तेमाल किया जाता है. कोशिश है कि बच्चे तकनीक के साथ घुलें मिलें.
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औद्योगिक देशों में प्राथमिक शिक्षा
औद्योगिक देशों में स्कूल का मतलब प्राथमिक शिक्षा से कहीं ज्यादा है. अमेरिका के आयोवा में ये चार साल के बच्चे अपने टीचर को ध्यान से सुन रहे हैं. औद्योगिक देशों में 70 फीसदी बच्चे प्राथमिक स्कूल से पहले किंडरगार्डेन में कुछ कुछ सीखना शुरू कर देते हैं. कम आय वाले देशों में 20 में से सिर्फ तीन ही बच्चों को ऐसी सुविधा मिल पाती है.
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पैसे की कमी का असर
केन्या में सभी बच्चों के लिए आठ साल की स्कूली शिक्षा नि:शुल्क है. लेकिन इसके बावजूद सभी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते. कई अभिभावकों के लिए स्कूल की पोशाक, जूते, किताबें, कॉपिया और पेन जुटाना मुश्किल होता है. सरकारी स्कूलों में भारी भीड़ के बावजूद पढ़ाई लिखाई के लिए अच्छा माहौल नहीं है. ठीक ठाक कमाई वाले लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं.
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पढ़ाई स्कूल की यूनिफॉर्म में
इंग्लैंड में ज्यादातर बच्चे यूनिफॉर्म में स्कूल जाते हैं. ऐसा माना जाता है कि यूनिफॉर्म के जरिए बच्चे खुद को स्कूल की पहचान से जोड़ पाते हैं और बेहतर ढंग से सीखते हैं. लेकिन विकास करते देशों में जो लोग अपने बच्चों के लिए यूनिफॉर्म नहीं खरीद सकते, वो सरकारी मदद की आस में रहते हैं.
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खुले में कक्षा
स्कूल तो बच्चे तब जाएंगे जब स्कूल होगा. पाकिस्तान के कुछ इलाकों में बच्चों को सार्वजनिक पार्कों में पढ़ाया जाता है. पाकिस्तान ने शिक्षा पर खर्च घटाया है. देश शिक्षा के बजाए सेना पर ज्यादा खर्च करता है.
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आधारभूत शिक्षा के लिए संघर्ष
अफगानिस्तान की आबादी का अच्छा खासा हिस्सा बिना किसी शिक्षा के बड़ा हुआ है. देश में तालिबान के शासन के दौरान छिड़े गृह युद्ध के चलते ऐसा हुआ. अफगानिस्तान की सिर्फ 25 फीसदी महिलाएं ही साक्षर हैं. पुरुषों में सारक्षता 52 फीसदी है. देश में अब भी पर्याप्त स्कूल, शिक्षक और सामग्री का अभाव है.
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पिछड़ती बेटियां
ऐसे ही हालात दक्षिण सूडान में भी हैं, जहां सिर्फ 16 फीसदी महिलाएं साक्षर हैं. विदेशी मदद संगठन यहां लड़कियों को शिक्षित करने पर जोर दे रहे हैं. लंबे गृह युद्ध का असर यहां के स्कूलों पर पड़ा है. कुछ ही स्कूल सुरक्षित बचे हैं और उनमें भी फर्नीचर का अभाव है. किताबें भी आधे स्कूलों के पास हैं.
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दुनिया भर की कक्षाएं
विशाल अंतर
ब्राजील के दूर दराज के इलाकों के स्कूल भी सुविधाओं के अभाव से जूझ रहे हैं. ब्राजील को तेजी से औद्योगिक होता देश कहा जाता है लेकिन इसके बावजूद वहां अमीर और गरीब का फासला फैलता जा रहा है. पूर्वोत्तर ब्राजील में खेती करने वाले आज भी बेहद गरीबी में जी रहे हैं.
रिपोर्ट: वेरा केर्न/ओएसजे
क्रियान्वयन पर भी सवाल
कई राज्यों में इस योजना के क्रियान्वयन पर भी सवाल उठ रहे हैं. खासतौर पर भोजन की पौष्टिकता और गुणवत्ता को लेकर छात्रों एवं अभिभावकों में नाराजगी की रिपोर्ट जब तब सामने आती रहती है. कुछ दिनों पूर्व ही झारखण्ड के लुण्ड्रा विकास खण्ड के कोरिमा में मध्याह्न भोजन खाने के बाद 32 बच्चों सहित दो शिक्षकों की हालत खराब होने की खबर आयी थी. मध्याह्न भोजन से छात्रों के बीमार पड़ने की खबरों में कोई भी राज्य पीछे नहीं है. मध्य प्रदेश के कटनी में मध्याह्न भोजन खाने से 5 साल की बच्ची की मौत की खबर भी ज्यादा पुरानी नहीं हैं. ऐसी सैकड़ों खबरें हैं. इसके अलावा छात्रों को भरपेट भोजन नहीं देने की शिकायतें भी आम हैं.
कैग रिपोर्ट में भी क्रियान्वयन को लेकर अपनायी जा रही अनियमितता का उल्लेख किया गया है. हरियाणा पर कैग रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रांतीय सरकार खाने की गुणवत्ता की जांच के लिए प्रांतीय सरकार किसी प्रयोगशाला को तय करने में विफल रही है. प्राथमिक शिक्षा अधिकारियों को खाने की जांच के निर्देश दिए गए लेकिन उन्होंने निर्देशों का पालन सुनिश्चित नहीं किया. उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता और फंड की कमी पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए मनरेगा की तरह इस कानून का भी विशेष ऑडिट करने की सलाह दी है.
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भाषा सीखते बच्चे
चीनः जितनी जल्दी उतना अच्छा
चीन में तीन साल के बच्चे पहली बार अक्षर देखते हैं और छह साल की उम्र से लिखना शुरू करते हैं. पांचवी कक्षा तक उन्हें 10,000 अक्षर सीखने होते हैं. कड़ी मेहनत का काम. क्योंकि चीनी अक्षर किसी नियम पर नहीं बने हैं. उन्हें बस वैसा का वैसा याद करना पड़ता है.
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भाषा सीखते बच्चे
जापानः स्कूल खत्म होने तक
जापान के स्कूली बच्चों के लिए लिखना सीखने की प्रक्रिया पहली कक्षा में खत्म नहीं होती. नवीं कक्षा तक हर साल नए अक्षर सिखाए जाते हैं. मूल जापानी शब्द लिखना सीखने के लिए उन्हें 2100 अक्षर सीखने पड़ते हैं. रोज अभ्यास जरूरी है नहीं तो याद होना मुश्किल.
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भाषा सीखते बच्चे
मिस्रः एक नई भाषा
मिस्र के बच्चे जब लिखना सीखते हैं तो इसके लिए उन्हें नई भाषा सीखनी पड़ती है. क्योंकि इलाकों में बोली जाने वाली बोली मानक अरबी से बहुत अलग है. सरकारी स्कूलों में हर कक्षा में करीब 80 बच्चे होते हैं, इसलिए हर बच्चा उतने अच्छे से सीख नहीं पाता. कुछ बच्चे तो अच्छे से लिखना और पढ़ना कभी नहीं सीख पाते.
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भाषा सीखते बच्चे
मोरक्कोः सिर्फ अरबी नहीं
कुछ समय पहले तक मोरक्को में बच्चे सिर्फ अरबी भाषा सीखते थे. 2004 से वहां पहली कक्षा में बैर्बर भाषा तामाजिघ्थ सिखाई जाने लगी है. इस कारण बैर्बर इलाके में निरक्षर लोगों की संख्या कम हुई है. 2011 से यह भाषा आधिकारिक बना दी गई है.
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भाषा सीखते बच्चे
पैराग्वेः आदिवासियों की भाषा
लैटिन अमेरिका में आदिवासियों की भाषा को आगे बढ़ाया जा रहा है. पैराग्वे के बच्चे स्पैनिश तो सीखते ही हैं साथ गुआरानी भी सीखते हैं. लेकिन मुख्य भाषा के तौर पर एक ही चुनी जा सकती है. किसी जमाने में सुंदर लिखना ही सबसे अच्छा था लेकिन आज बच्चों को प्रिंट वाले अक्षर भी सीखने पड़ते हैं.
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भाषा सीखते बच्चे
कनाडाः नियमों पर नहीं
कनाडा में हर जगह इंग्लिश ही नहीं है यहां एक भाषा इनूक्टिटूट भी है. यह उत्तरी नूनावुट में एस्किमो लोगों की भाषा है. सही शब्द लिखना इसमें कोई मुश्किल नहीं. क्षेत्रीय बोलियों को समझना भी आसान है. जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा जाता है.
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भाषा सीखते बच्चे
इस्राएलः मदद की जरूरत
इस्राएली बच्चों को हिब्रू सीखना आसान बनाने के लिए अक्षरों की मदद ली जाती है. पहली कक्षा के बच्चों को व्यंजन के साथ कौन सा स्वर लगेगा बताने के लिए अलग अलग स्वरों की तस्वीर बना कर इन्हें अक्षरों के रूप में काट लिया जाता है. फिर इन्हें व्यंजनों के साथ जोड़ना बताया जाता है. लेकिन यह सब सिर्फ पहली कक्षा तक.
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भाषा सीखते बच्चे
ग्रीकः कई स्वर
कौन सा आई लिखना है... ग्रीस में पहली क्लास के बच्चे अक्सर ये सवाल पूछते हैं. आई स्वर के लिए ग्रीक में छह अलग अलग वर्ण हैं. ई और ओ भी दो तरीके से लिखे जाते हैं. इसके लिए कोई नियम नहीं हैं. इन्हें रटना ही पड़ता है. इसलिए शुरुआती कक्षाओं में शुद्ध लिखना अलग से सिखाया जाता है.
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भाषा सीखते बच्चे
सर्बियाः एक भाषा, दो लिपियां
सर्बियाई भाषा किरील लिपी में लिखी जा सकती है और लैटिन में भी. बच्चों को दोनों ही सीखनी पड़ती हैं. पहली कक्षा में बच्चे किरील लिपी सीखते हैं और दूसरी कक्षा में लैटिन. कुछ समय बाद बच्चे खुद तय करते हैं कि वह कौन सी लिपी में लिखना चाहते हैं.
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भाषा सीखते बच्चे
भारतः कई भाषाएं कई लिपियां
भारत की राष्ट्रीय भाषा भले ही हिन्दी हो लेकिन हर राज्य की अपनी अलग भाषा है और अलग लिपी भी. इसलिए पहली कक्षा में बच्चे को हिन्दी, इंग्लिश और राज्य की भाषा सिखाई जाती है. ये जरूरी नहीं कि बच्चे की अपनी मातृभाषा भी इन तीनों में से एक हो. भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं.
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भाषा सीखते बच्चे
पाकिस्तानः दाएं से या बाएं से
किस तरफ से लिखना है, दाएं से या बाएं से. पाकिस्तान में बच्चे दोनों तरफ से लिखना सीखते हैं. क्योंकि पहली कक्षा में उर्दू और इंग्लिश दोनों सिखाई जाती हैं. बच्चों को अंग्रेजी लिखने में परेशानी आती है.
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भाषा सीखते बच्चे
ईरानः फारसी
ईरान में कई भाषाएं बोली जाती हैं. बच्चे स्कूल में फारसी लिखना सीखते हैं. फारसी मातृभाषा होने पर भी इसे लिखना मुश्किल हो सकता है. इसे इंडो जर्मन भाषा कहा जाता है. सबसे पहले बच्चे सीधी रेखा, वक्र रेखा और तिरछी लकीरें खींचना सीखते हैं इसके बाद शुरू होता है अक्षर ज्ञान.
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भाषा सीखते बच्चे
जर्मनीः सुन कर लिखें
20 साल पहले जर्मनी में सुन कर लिखने की परंपरा कई स्कूलों में शुरू हुई थी जिस पर काफी बहस है. पहली कक्षा में अक्षरों के साथ एक तस्वीर होती है, जो उस अक्षर का उच्चारण बताती है, ठीक अंग्रेजी के ए फॉर एप्पल जैसी... जर्मन में एफ तो उच्चारण में एफ होता है लेकिन वी का उच्चारण फ जैसा और जे का य जैसा.. इस कारण शब्दों का उच्चारण भी बदल जाता है, हिज्जे भले ही अंग्रेजी जैसे लगे.
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भाषा सीखते बच्चे
पोलैंडः शुरू से शुरू
पोलैंड में पहली कक्षा से नहीं बल्कि शून्य कक्षा से स्कूल शुरू होता है, यानी एक तरह का किंडरगार्टन. इस क्लास में जाना बच्चों के लिए अनिवार्य है. यहां ये खेल खेल में अक्षरों से पहचान करते हैं. औपचारिक तौर पर लिखने की शुरुआत पहली कक्षा में होती है.
रिपोर्ट: योहाना वेह आभा मोंढे
अंग्रेजी स्कूल के प्रति आकर्षण
टैक्सी चालक सुदेश सिंह अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देना चाहते हैं. बेहतर शिक्षा से उनका मतलब अंग्रेजी माध्यम के स्कूल से है. उनकी समझ में उनका बच्चा हिंदी या मराठी माध्यम के स्कूल में पढ़ कर तरक्की नहीं कर सकता. लगभग यही समझ शिक्षित समझे जाने वाले “शिक्षक-समुदाय” की भी है. एक सरकारी स्कूल के शिक्षक नाम ना बताने की शर्त पर कहते हैं कि कोई भी सरकारी शिक्षक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भर्ती नहीं कराना चाहता है. जो अभिभावक थोड़े सी भी अच्छी आय वाले हैं, उनके बच्चे प्राइवेट अंग्रेजी स्कूलों में ही शिक्षा प्राप्त करते हैं. संपन्न अभिभावक अपने बच्चों को बड़े कॉन्वेंट स्कूलों में भेजना चाहते हैं. अंग्रेजी माध्यम के सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूल भी ठीक ठाक चल रहे हैं.
सरकारी स्कूलों को लेकर सामान्यतः अभिभावकों के मन में अच्छी धारणा नहीं है. इसके बावजूद आज भी देश में 66 प्रतिशत बच्चे सरकारी या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों में पढ़ते है. उदारीकरण और वैश्वीकरण के इस दौर ने भी भारतीय अभिभावकों के मन में अंग्रेजी प्रेम बढ़ाया है. अंग्रेजी शिक्षा को अवसर का पर्याय मानने वाले अभिभावकों के बच्चे हिंदी और क्षेत्रीय भाषी सरकारी स्कूलों से पलायन कर रहे हैं. अभिभावकों की इस मजबूत होती धारणा को बदलने के लिए अब तक सरकार की तरफ से कोई ठोस उपाय नहीं किया गया है.