ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि असली दुनिया में जैसे जैसे सख्ती हो रही है, आतंकी समूह कोड वाले संदेश भेजने और नये रंगरूटों की भर्ती के लिए इंटरनेट का खूब इस्तेमाल कर रहे हैं. ऐसे में बेव पर आतंक को रोकने के लिए क्या कुछ किया जा रहा है, देखिए.
कैसे रोकती हैं फेसबुक, ट्विटर जैसी कंपनियां
कट्टरवादी वीडियो और आतंक फैलाने वाली सामग्री को इंटरनेट के माध्यम से फैलने से कैसे रोका जाए. इंटरनेट कंपनियां इसके लिए काफी सारी तकनीक और कुछ इंसानों की टीम का इस्तेमाल करती हैं. कंपनी के यह लोग समीक्षक के तौर पर काम करते हैं और किसी आपत्तिजनक पोस्ट के दिखने पर पहले उसे फ्लैग करते हैं और फिर आतंक का समर्थन करने वाली ऐसी पोस्ट मिटा देते हैं.
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हैकरों के पंसदीदा टारगेट
1. फाइनेंस और इंश्योरेंस
हैकरों का सबसे पसंदीदा निशाना बैंक, इनवेस्टमेंट एजेंसी और बीमा कंपनियां हैं. साइबर सिक्योरिटी फर्म सिमैनटेक के मुताबिक 2015 में हैकरों ने 35 फीसदी हमले इन्हीं पर किये. हैकरों ने न्यू यॉर्क फेडरल रिजर्व में सेंध लगाकर बांग्लादेश के बैंक के 8.1 करोड़ डॉलर उड़ा दिये.
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हैकरों के पंसदीदा टारगेट
2. सर्विस सेक्टर
सर्विस सेक्टर भी हैकरों को खूब लुभाता है. ऑनलाइन सेवाएं लेने वाले ग्राहकों का डाटा चुराकर हैकर विशेष लोगों को निशाना बनाते हैं. बीते साल 22 फीसदी हमले सर्विस सेक्टर पर हुए.
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हैकरों के पंसदीदा टारगेट
3. मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर
डिजायन, तकनीक या फिर कंपनी की रणनीति की चोरी करने में भी हैकर बड़े सक्रिय हैं. कुछ मामलों में कंपनियां ही दूसरी कंपनी में सेंध लगाने के लिए हैकरों को पैसा देती हैं.
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हैकरों के पंसदीदा टारगेट
4. परिवहन क्षेत्र
परिवहन क्षेत्र में सेंधमारी की खबरें दुनिया भर में फैलती हैं. 2015 में कुछ बड़ी एयरलाइन कंपनियां 24 से 48 घंटे तक ठप हो गईं. हैकरों ने एयरपोर्ट के कंप्यूटरों पर भी निशाना साधा.
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हैकरों के पंसदीदा टारगेट
5. होलसेल सेक्टर
2015 में 9 फीसदी हमले होलसेल सेक्टर पर हुए. अब जी-7 देशों ने साइबर फाइनेंशियल क्राइम के खिलाफ मिलकर काम करने की योजना बनाई है.
रिपोर्ट: ओंकार सिंह जनौटी
उदाहरण के लिए, गूगल का कहना है कि उसने अपने प्लेटफॉर्म का गलत इस्तेमाल करने वालों को रोकने के इस काम में हजारों लोगों को लगाया हुआ है. फेसबुक, ट्विटर, माइक्रोसॉफ्ट और यूट्यूब ने 2016 के अंत में एक साथ मिल कर साझा इंडस्ट्री डाटाबेस बनाने पर सहमति बनायी. इसमें ऐसे लोगों के डिजिटल फिंगरप्रिंट, तस्वीरें और वीडियो रखे जाएंगे, जो आतंकी गुटों का समर्थन करते हैं. मार्च में लंदन के आतंकी हमले के बाद गूगल और अन्य तकनीकी कंपनियों ने भी आतंकवादरोधी समूह बनाने का फैसला किया.
ट्विटर का कहना है कि उसने 2016 की आखिरी छमाही में कुल 3,76,890 अकाउंट ब्लॉक किये. यह सब आतंक का समर्थन करने वाले थे. इनमें से दो-तिहाई की पहचान ट्विटर के अपने टूल से हुई. केवल दो फीसदी अकाउंट ही किसी सरकार के कहने पर हटाये गये. फेसबुक कहता है कि वह किसी आने वाले खतरे का अंदेशा होने पर इसके बारे में सुरक्षा अधिकारियों को सूचित कर देता है.
क्या करने से मना करती हैं कंपनियां
2015 में कैलिफोर्निया के सेंट बैर्नाडिनो में हुई सामूहिक गोलीबारी की घटना के बाद और मार्च 2017 में लंदन के वेस्टमिंस्टर हमले के बाद - अमेरिकी और ब्रिटिश सरकारों ने कुछ लोगों के पासवर्ड से सुरक्षित अकाउंट्स जानने चाहे थे. वे हमले को अंजाम देने वाले आतंकियों और उनके साथियों के बीच हुई बातचीत पढ़ना चाहते थे. लेकिन एप्पल और व्हाट्सऐप कंपनियों ने उनके अकाउंट इनक्रिप्टेड होने के कारण ऐसा करने से मना कर दिया. हालांकि दोनों सरकारों ने किसी तरह यह जानकारी हासिल कर ली. लेकिन टेक कंपनियां इनक्रिप्शन वाले मामलों में किसी भी यूजर की डाटा सुरक्षा को जोखिम में नहीं डालना चाहतीं. बैंक अकाउंट, क्रेडिट कार्ड से लेन देन इन सभी कामों में इनक्रिप्शन का इस्तेमाल होता है.
राष्ट्रीय सुरक्षा बड़ी या निजी सुरक्षा
सवाल यह है कि क्या इनक्रिप्टेड डाटा का खुलासा करने के लिए टेक कंपनियों पर दबाव डाला जाना चाहिए. साइबर सुरक्षा के कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि इनक्रिप्शन को कमजोर करने से आम लोग ज्यादा असुरक्षित हो जाएंगे. जबकि आतंकवादी तो अपने संवाद के लिए कहीं और गहरे साइबर स्पेस में चले जाएंगे या किसी और साधन का इस्तेमाल करेंगे. वहीं कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि युद्ध जैसी स्थिति में सरकारों को निजी अधिकारों का उल्लंघन करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा का काम करने देना चाहिए.
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ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर
खुद पर काबू नहीं?
विश्व की लगभग आधी आबादी तक इंटरनेट पहुंच चुका है और इनमें से कम से कम दो-तिहाई लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं. 5 से 10 फीसदी इंटरनेट यूजर्स ने माना है कि वे चाहकर भी सोशल मीडिया पर बिताया जाने वाला अपना समय कम नहीं कर पाते. इनके दिमाग के स्कैन से मस्तिष्क के उस हिस्से में गड़बड़ दिखती है, जहां ड्रग्स लेने वालों के दिमाग में दिखती है.
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ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर
लत लग गई?
हमारी भावनाओं, एकाग्रता और निर्णय को नियंत्रित करने वाले दिमाग के हिस्से पर काफी बुरा असर पड़ता है. सोशल मीडिया इस्तेमाल करते समय लोगों को एक छद्म खुशी का भी एहसास होता है क्योंकि उस समय दिमाग को बिना ज्यादा मेहनत किए "इनाम" जैसे सिग्नल मिल रहे होते हैं. यही कारण है कि दिमाग बार बार और ज्यादा ऐसे सिग्नल चाहता है जिसके चलते आप बार बार सोशल मीडिया पर पहुंचते हैं. यही लत है.
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ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर
मल्टी टास्किंग जैसा?
क्या आपको भी ऐसा लगता है कि दफ्तर में काम के साथ साथ जब आप किसी दोस्त से चैटिंग कर लेते हैं या कोई वीडियो देख कर खुश हो लेते हैं, तो आप कोई जबर्दस्त काम करते हैं. शायद आप इसे मल्टीटास्किंग समझते हों लेकिन असल में ऐसा करते रहने से दिमाग "ध्यान भटकाने वाली" चीजों को अलग से पहचानने की क्षमता खोने लगता है और लगातार मिल रही सूचना को दिमाग की स्मृति में ठीक से बैठा नहीं पाता.
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ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर
क्या फोन वाइब्रेट हुआ?
मोबाइल फोन बैग में या जेब में रखा हो और आपको बार बार लग रहा हो कि शायद फोन बजा या वाइब्रेट हुआ. अगर आपके साथ भी अक्सर ऐसा होता है तो जान लें कि इसे "फैंटम वाइब्रेशन सिंड्रोम" कहते हैं और यह वाकई एक समस्या है. जब दिमाग में एक तरह खुजली होती है तो वह उसे शरीर को महसूस होने वाली वाइब्रेशन समझता है. ऐसा लगता है कि तकनीक हमारे तंत्रिका तंत्र से खेलने लगी है.
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ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर
मैं ही हूं सृष्टि का केंद्र?
सोशल मीडिया पर अपनी सबसे शानदार, घूमने की या मशहूर लोगों के साथ ली गई तस्वीरें लगाना. जो मन में आया उसे शेयर कर देना और एक दिन में कई कई बार स्टेटस अपडेट करना इस बात का सबूत है कि आपको अपने जीवन को सार्थक समझने के लिए सोशल मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रिया की दरकार है. इसका मतलब है कि आपके दिमाग में खुशी वाले हॉर्मोन डोपामीन का स्राव दूसरों पर निर्भर है वरना आपको अवसाद हो जाए.
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ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर
सारे जहान की खुशी?
दिमाग के वे हिस्से जो प्रेरित होने, प्यार महसूस करने या चरम सुख पाने पर उद्दीपित होते हैं, उनके लिए अकेला सोशल मीडिया ही काफी है. अगर आपको लगे कि आपके पोस्ट को देखने और पढ़ने वाले कई लोग हैं तो यह अनुभूति और बढ़ जाती है. इसका पता दिमाग फेसबुक पोस्ट को मिलने वाली "लाइक्स" और ट्विटर पर "फॉलोअर्स" की बड़ी संख्या से लगाता है.
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ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर
डेटिंग में ज्यादा सफल?
इसका एक हैरान करने वाला फायदा भी है. डेटिंग पर की गई कुछ स्टडीज दिखाती है कि पहले सोशल मी़डिया पर मिलने वाले युगल जोड़ों का रोमांस ज्यादा सफल रहता है. वे एक दूसरे को कहीं अधिक खास समझते हैं और ज्यादा पसंद करते हैं. इसका कारण शायद ये हो कि सोशल मीडिया की आभासी दुनिया में अपने पार्टनर के बारे में कल्पना की असीम संभावनाएं होती हैं.
रिपोर्ट: एमएल/आरपी
आप ही बताइए कि क्या किसी व्यक्ति की निजता उसकी जान से भी बड़ी हो सकती है. आप नीचे कमेंट बॉक्स में अपनी टिप्पणी लिख सकते हैं.
आरपी/एमजे (एपी)