माउंट एवरेस्ट पर पहली बार 60 साल पहले झंडा फहराए जाने के बाद से बहुत से पर्वतारोही वहां जा चुके हैं, लेकिन इस पहाड़ का अब तक कोई सटीक नक्शा नहीं बन पाया है. अब एवरेस्ट के सटीक नक्शे के लिए एक खास तरह के विमान पर लगे विशेष तकनीक वाले कैमरे की मदद ली जा रही है. दुनिया की छत तक मोटर वाले ग्लाइडर की मदद से पहुंचना बहुत ही साहसिक कदम माना जा रहा है.
प्रोजेक्ट से जुड़े एयरोनॉटिक्स इंजीनियर पेटर डामन ने बताया, "हिमालय अभियान का मकसद एक साझा प्रोजेक्ट था, जिसके लिए हमें वहां पहुंच सकने लायक एक विमान की जरूरत थी जो नापने के इंस्ट्रूमेंट और कैमरे ले जाने में भी सक्षम हो. हमारे लिए यह एक चुनौती थी और अनोखा मौका भी क्योंकि उसके जरिये हम उड़ान का रास्ता और उड़ने का तरीका पता कर पाए जिसकी इस तरह के अभियान के लिए जरूरत होती है." विमान पर एक 3-डी कैमरा सिस्टम मौजूद था जो सैटेलाइट से ज्यादा सटीक तस्वीरें ले सकता है.
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हिमालय की हिफाजत
हिमालय की नए सिरे से फोटोग्राफी
जर्मन एयरोस्पेस सेंटर (डीएलआर) हिमालय की तस्वीरें ले रहा है. यह पहला मौका है, जब खास 3डी कैमरे से दुनिया की सबसे ऊंची और विशाल पर्वत श्रेणी की तस्वीरें ली जा रही हैं. तस्वीरों से हिमालय क्षेत्र के पर्यावरण में हो रहे बदलावों की जानकारी मिलेगी.
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हिमालय की हिफाजत
विमान में खास कैमरा
कई परीक्षणों के बाद डीएलआर ने यह कैमरा सिस्टम बनाया है. इसके सहारे पूरे इलाके का 3डी मॉडल बनाया जाएगा. कैमरा एक खास कंटेनर में फिट किया गया है. 8,000 मीटर की ऊंचाई और माइनस 40 डिग्री सेल्सियस की ठंड में मशीन खराब होने का खतरा भी रहता है.
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हिमालय की हिफाजत
आंकड़ों का विश्लेषण
कंप्यूटर की मदद से डीएलआर के वैज्ञानिक रंगीन 3डी मॉडल बना सकते हैं. इस तकनीक के सहारे पहाड़ों की ढाल को बेहद सटीक ढंग से दर्शाया जा सकता है. इंसानी आंखें ऐसा नहीं कर पाती हैं. मॉडलों से भूस्खलन और हिमस्खलन के नुकसान का अंदाजा लगेगा.
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हिमालय की हिफाजत
अनोखा मिशन
यह पहला मौका है जब इलाके में एरियल कैमरे इस्तेमाल किए जा रहे हैं. मिशन के लिए डीएलआर के दो मोटर वाले जहाज ने दो हफ्तों तक यूरोप, मिस्र और पाकिस्तान के ऊपर उड़ान भरी. वैज्ञानिकों ने नेपाल के अन्नपूर्णा इलाके में बेस कैंप बनाया.
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हिमालय की हिफाजत
खास ट्रेनिंग
इलाके में विमान उतारना और वहां से उड़ान भरना बेहद मुश्किल है. पायलटों ने वहां जाने से पहले काठमांडू में खास फ्लाइट सिम्युलेटरों पर अभ्यास किया. इससे मदद मिली लेकिन चोटियों के करीब उड़ान भरते समय फुल ऑटोमैटिक कैमरे भी बड़ा सहारा बने.
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हिमालय की हिफाजत
टूरिज्म से नुकसान
हर साल लाखों पर्यटक इन वादियों में आते हैं. नेपाल की अर्थव्यस्था को इससे बड़ा पैसा मिलता है लेकिन इसका खामियाजा कुदरत को भुगतना पड़ता है. पर्वतारोहियों जितने ज्यादा होंगे, कूड़ा भी उतना ही ज्यादा होगा. इससे जमीन और भूजल दूषित होता है.
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हिमालय की हिफाजत
प्राकृतिक आपदाओं से बचाव
दुनिया भर में निकल रही ग्रीनहाउग गैसों का असर हिमालय पर साफ दिख रहा है. वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (WWF) के मुताबिक हर साल ग्लेशियर कम से कम 10 सेंटीमीटर पीछे खिसक रहा है. बाढ़ और भूस्खलन गांव के गांव साफ कर दे रहे हैं.
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हिमालय की हिफाजत
ताकि खिलखिला उठे पर्वतराज
डीएलआर की रिसर्च का केंद्र हिमालय के ग्लेशियरों और बर्फ की झीलों पर है. ये आबादी वाले इलाके से बहुत दूर हैं. उम्मीद है कि रिसर्च से हिमालय को उसकी चमचमाती काया को लौटाने में मदद मिलेगी.
रिपोर्ट: राहिल बेग/ओएसजे
विमान पर लगे कैमरे को जर्मन एयरोस्पेस सेंटर डीएलआर के यॉर्ग ब्राउखले ने इस अभियान के लिए डेवलप किया था. डीएलआर के इंजीनियर यॉर्ग ब्राउखले ने बताया, "यह एक एरियल पिक्चर कैमरा सिस्टम है जो खराब मौसम में भी काम करता है. इसमें तस्वीरों के लोकेशन की जानकारी देने वाला नेविगेशन सिस्टम लगा है और इसमें चार कैमरा लेंस लगे हैं जो पहाड़ों की विभिन्न पहलू से तस्वीर लेते हैं. ऊंचाई पर काम करने वाला कंप्यूटर भी है जिसमें रिमूवेबल हार्ड डिस्क लगा है. ताकि हम लैंडिंग के बाद इसे बदल सकें और तुरंत अगली उड़ान शुरू कर सकें."
हिमालय के ऊपर उड़ने के लिए टीम ने विशेष अनुमति ली. ग्लाइडर का टर्बो इंजिन 8,000 मीटर की ऊंचाई तक ही काम करता है. यह माउंट एवरेस्ट के ऊपर उड़ान भरने के लिए पर्याप्त नहीं है. और ऊंचा जाने के लिए पायलट थर्मल अपड्राफ्ट और ग्लाइड करने की क्षमता का इस्तेमाल करते हैं.
हर साल लाखों पर्यटक इन वादियों में आते हैं. नेपाल की अर्थव्यवस्था को इससे बड़ा पैसा मिलता है लेकिन इसका खामियाजा कुदरत को भुगतना पड़ता है. दुनिया भर में निकल रही ग्रीनहाउज गैसों का असर हिमालय पर साफ दिख रहा है. वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के मुताबिक हर साल ग्लेशियर कम से कम 10 सेंटीमीटर पीछे खिसक रहा है. बाढ़ और भूस्खलन के कारण गांव के गांव साफ हुए जा रहे हैं. डीएलआर के इस अभियान के सहारे पहाड़ों की ढाल को बेहद सटीक ढंग से दर्शाया जा सकता है. इंसानी आंखें ऐसा नहीं कर पाती हैं. मॉडलों से भूस्खलन और हिमस्खलन के नुकसान का अंदाजा लगेगा. मकसद है कि रिसर्च से हिमालय को उसकी चमचमाती काया को लौटाने में मदद मिले.
हिमालय के ऊपर पहली उड़ान टीम के लिए भारी कामयाबी है. उड़ान की आदर्श स्थिति ने अद्भितीय तस्वीरें लेने का मौका दिया है. पायलटों के लिए यह कठिन होने के बावजूद कभी न भूलने वाला अनुभव है. पायलट योना क्राएमर अपने रोमांचक अनुभव के बारे में बताते हैं, "ऊंचाई को देखते हुए सबसे बड़ी चुनौती थी, वहां के माहौल को समझना. वहां हवा के ऊपर उठने की गति 200 किलोमीटर प्रति घंटा होती है, जिसका हमें ऊपर जाने के लिए इस्तेमाल करना था. उसके बाद उपलब्ध ऑक्सीजन की जानकारी. हमें हर पायलट को ऑक्सीजन सप्लाई के लिए दो सिस्टमों और एक बैकअप सिस्टम की जरूरत थी. ऊंचाई पर तापमान माइनस 40 डिग्री तक था. इसलिए हमने गर्म जैकेट, जूते और वुलेन अंडरगार्मेंट्स पहन रखे थे."
डामन अब तक मिले नतीजों से बहुत संतुष्ट है. उनके मुताबिक ये इस तरह की उड़ान के दौरान मिली एकदम नई और अच्छी जानकारियां हैं. टीम के साथ एक अद्भुत कैमरा सिस्टम बनाना, उसे उड़ान के लायक बनाना और अद्भुत नतीजे पाना सचमुच अनूठा अनुभव रहा है. माउंट एवरेस्ट का सर्वे उड़ान के इतिहास की अनोखी घटना है, और ताजा डिजिटल तकनीक को टेस्ट करने का मौका भी.
एसएफ/आईबी
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
गोपनीय खबर
एवरेस्ट विजय का तार 1 जून 1953 को लंदन पहुंचा, ब्रिटिश महारानी के राजतिलक के समारोह के दिन. हिलेरी और तेनजिंग ने 29 मई को एवरेस्ट की चोटी पर झंडा लहरा दिया था.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
पहला कौन
तेनजिंग और हिलेरी जैसे एवरेस्ट से नीचे लौटे, विवाद छिड़ गया. नेपाल और भारत ने कहा, पहले तेनजिंग चोटी पर पहुंचे. सालों बाद हिलेरी ने कहा कि वे तेनजिंग से कुछ पहले पहुंचे थे.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
सफल पर्वतारोही
आने वाले तीन दशकों में प्रमुख पर्वतारोहियों ने साल के हर मौसम में और हर तरफ से एवरेस्ट की चढ़ाई की. राइनहोल्ड मेसनर और पेटर हाबेलर 1978 में बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढ़े.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
पर्वतारोहियों की कतार
90 के दशक में एवरेस्ट पर जाने की होड़ शुरू हो गई. अब तक 6,000 लोग एवरेस्ट पर गए हैं. जब मौसम साफ रहता है तो दोनों रास्तों पर एवरेस्ट पर चढ़ने वाले पर्वतारोहियों की लाइन लग जाती है.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
चोटी पर मुलाकात
एवरेस्ट पर चढ़ने और उतरने के लिए कम से कम चार दिन साफ मौसम की जरूरत होती है. सभी एक ही मौसम रिपोर्ट का सहारा लेते हैं, इसलिए अक्सर चोटी पर सैकड़ों पर्वतारोही जुट जाते हैं.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
जरूरी हैं शेरपा
शेरपा की मदद के बिना पर्वतारोहियों का बेस कैंप से बाहर निकलना और एवरेस्ट पर चढ़ना मुमकिन नहीं. शेरपा रास्ते की खोज करते हैं, उसे सीढ़ियों और रस्सियों से सुरक्षित भी करते हैं.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
आसान होता रास्ता
हर साल नए रिकॉर्ड बन रहे हैं. इस साल 80 साल के यूचिरो मिउरा 8848 मीटर ऊंची चोटी पर पहुंचे. वे एवरेस्ट पर जाने वाले सबसे बुजुर्ग पर्वतारोही हैं. अमेरिका के 13 वर्षीय जॉर्डन रोमेरा सबसे युवा हैं.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
ऊंचाई पर राहत
2003 में एक हेलिकॉप्टर बेस कैंप पर दुर्घटनाग्रस्त हो गया. दो लोगों की जान गई. दस साल बाद एवरेस्ट की तलछटी पर हेलिकॉप्टरों का उतरना और वहां से उड़ना आम बात हो गई है.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
शेरपा का रिकॉर्ड
आपा शेरपा 21 बार एवरेस्ट की चोटी पर गए हैं. आपा ने 2010 में करियर खत्म करते हुए पर्यावरण को बचाने की मांग की. उनके देशवासी फूर्बा ताशी इस साल उनका रिकॉर्ड बराबर कर लेंगे.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
एवरेस्ट पर मौसमी मार
मौसम का बदलाव एवरेस्ट को भी बख्श नहीं रहा. पिछले 50 सालों में चोटी पर जमा बर्फ 13 प्रतिशत कम हुआ है. नेपाल के मंत्रियों ने 2009 में ऑक्सीजन मास्क पहन कर यहां बैठक की थी.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
एवरेस्ट पर नाज
नेपाल को माउंट एवरेस्ट ने बहुत कुछ दिया है. पर्वतारोहण और पर्वत पर्यटन से उसकी अच्छी खासी आमदनी होती है. 29 मई को नेपाल अंतरराष्ट्रीय माउंट एवरेस्ट दिवस मनाता है.
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माउंट एवरेस्ट चोटी पर पहुंचने के 60 साल
कम नहीं होंगे पर्वतारोही
नेपाल पर्वत पर जाने वालों की संख्या कम करने के प्रस्तावों को मानने को तैयार नहीं.
रिपोर्ट: श्टेफान नेस्टलर/एमजे