हिंद महासागर में विनाशकारी सूनामी के वे भयावह नजारे दस साल बाद भी लोगों के जेहन में जस के तस हैं. इस तबाही में भारत के लिए भी सबक छिपे थे. लेकिन मुस्तैद आपदा प्रबंधन इस देश में अब भी दूर की कौड़ी है.
दस साल पहले आई सूनामी से लेकर जम्मू कश्मीर में इसी साल आई भीषण बाढ़ की घटना तक प्राकृतिक विपदाओं का सिलसिला बना हुआ है, तबाहियां कम नहीं हुई हैं लेकिन आपदा प्रबंधन की कमजोरियां भी बनी हुई हैं. विपदाएं जितनी ज्यादा है उतना ही बड़ा विस्थापन भी है और पुनर्वास का पूरा सिस्टम नाकाम नजर आता है.
आखिर ऐसा क्यों है? विज्ञान, तकनीक, मौसम पूर्वानुमान और उपग्रह विज्ञान में लंबी छलांगे लगा रहे देश में आखिर विपदा से बचाव और राहत के पैरामीटर बदले क्यों नहीं है? ये कुछ सवाल हैं जो आज सूनामी के दस साल बाद लाजिमी तौर पर उठते हैं. जबकि प्राकृतिक विपदाओं के लिहाज से भारत एक संवदेनशील क्षेत्र है. देश का 55 फीसदी भूभाग भूकंप, 68 फीसदी सूखे, 12 फीसदी बाढ़ और आठ फीसदी चक्रवात की आशंकाओं और अवश्यंभाविताओं से घिरा है. लू, शीत लहर और कुछ खतरनाक तूफान जो हैं सो अलग.
ये सही है कि अतीत में कुदरती आफतों से निपटने के लिए जहां मशीनरी, सोच और तैयारी का नितांत अभाव रहता था वहां अब स्थिति में थोड़ा सुधार है. और सरकारें ऐसी आफतों से लड़ने के लिए एक दीर्घकालीन रणनीति के साथ काम करती भी देखी गई हैं. खासकर बाढ़ और चक्रवात को लेकर उड़ीसा जैसे राज्यों ने अपनी मशीनरी को पहले से मुस्तैद बनाया है और जानमाल के नुकसान को कम किया है. लेकिन ये चंद उदाहरण ही हैं. बड़े फलक पर नजर डालें तो भारत का आपदा प्रबंधन तंत्र दुनिया के अन्य कई देशों के मुकाबले लचर ही माना जाएगा.
इसकी मिसाल पिछले साल उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में आई भीषण अतिवृष्टि, बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं हैं जिनमें हजारों लोगों की जानें गईं और लाखों लोग बेघर हुए. हिमालयी सूनामी कही जाने वाली इस तबाही में, अगर बचाव और राहत के काम में सेना के जवान, उपकरण, विमान न उतरते तो कोई नहीं जानता कितना भारी नुकसान होता. करीब एक महीने तक चला, आजाद भारत के इतिहास में सेना का ये सबसे बड़ा राहत ऑपरेशन बताया गया था. देश के भीतर ऐसी नाजुक स्थितियों में सेना के उतरने के बारे में कहा जाता है “लास्ट टू कम फर्स्ट टू लीव.” लेकिन यहां तो उलटा ही हो रहा है. क्योंकि सरकारों का आपदा प्रबंधन तंत्र शिथिल रहता है लिहाजा सेना सबसे पहले पहुंच जाती है और आखिर तक रहती है.
बेशक आपदाओं से लड़ने के लिए एक नीतिगत पहल के तहत 2005 में एक कानून के जरिए राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन का एक बड़ा ढांचा खड़ा कर दिया गया है. प्रधानमंत्री की अगुवाई में एक राष्ट्रीय प्राधिकरण काम करता है जिसकी राज्यों में यूनिटें भी हैं. एक बहुत लंबा चौड़ा अमला है. राहत टीम और अपना एक सुरक्षा बल भी है. लेकिन 2006 के बाद आई कई आपदाओं में जब इसके इम्तहान का वक्त था तो ये आखिरकार एक अफसरशाही से घिरी हुई बोझिल संस्था ही जान पड़ी.
इस मामले में एक कमजोर बिंदु और है. आपदा प्रबंधन की तैयारियों का स्तर केंद्र और राज्यों के स्तर पर असमान है. आपदा प्रबंधन के बुनियादी तत्व हैं बचाव, न्यूनीकरण, तैयारी, रिस्पॉन्स, राहत और रिकवरी यानी पुनर्वास. लेकिन राज्यों के पास जो सिस्टम है उसमें इन तत्वों में आपस में न कोई समन्वय नजर आता है न ही उनमें एक समान कुशलता दिखती है. यानी बचाव और राहत के काम गड्डमड्ड हो जाते हैं, न्यूनीकरण विफल रह जाता है, पुनर्वास के उपाय धरे के धरे रह जाते हैं.
न्यायसंगत पुनर्वास के मामले में केंद्र हो या राज्य सरकारें, दोनों ही सवालों के कटघरे में हैं. इस तरह आपदा से विस्थापित हुए लोगों के सामने पलायन के सिवा कोई चारा नहीं रह जाता. बड़े पैमाने पर देश में आंतरिक पलायन जारी है. इस पलायन को रोकने में आपदा प्रबंधन तंत्र की कोई भूमिका नहीं रखी गई है. आप अंदाजा लगा सकते हैं कि इसका समाज और आर्थिकी पर कैसा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष असर पड़ता है और नतीजे कितने भयावह हो सकते हैं.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी