हिटलर की 'फर्जी' डायरी का चक्कर
करीब तीन दशक पहले जर्मन पत्रिका 'डेयर श्टेर्न' ने कुछ ऐसी डायरियां प्रकाशित कीं, जो नाजी तानाशाह अडोल्फ हिटलर की बताई गईं. बाद में पत्रिका के ये दावे गलत साबित हुए और यह कांड जर्मन मीडिया का सबसे बड़ा घोटाला साबित हुआ.
दुनिया भर की नजर हैम्बुर्ग पर
25 अप्रैल 1983 को पत्रिका 'डेयर श्टेर्न' ने अपने हैम्बुर्ग कार्यालय में अंतरराष्ट्रीय प्रेस गोष्ठी रखी. तमाम टीवी कैमरों और विश्व भर से आए पत्रकारों के सामने श्टेर्न के रिपोर्टर गेर्ड हाइडेमन ने बड़े ही गर्व के साथ वे खास डायरियां पेश कीं.
बड़ी स्टोरी की तलाश में
गेर्ड हाइडेमन 1970 के दशक से ही पत्रिका के खोजी रिपोर्टर थे. उन्हें नाजी काल की चीजें इकट्ठा करने का बड़ा शौक था. इसी शौक के चलते उन्होंने भारी कर्ज लेकर हरमन गोएरिंग की यॉट खरीदी. जैसे ही उन्हें पता चला कि कोई बिचौलिया कथित तौर पर हिटलर की डायरी बेचना चाहता है, इसे हाइडेमन ने अपने जीवन का सबसे बड़ा मौका समझा.
गलत साबित हुए विशेषज्ञ
ब्रिटिश इतिहासकार और हिटलर के विषय में बड़े विशेषज्ञ ह्यू ट्रेवर-रोपर और अमेरिकी इतिहासज्ञ गेरहार्ड लुडविग वाइनबेर्ग भी हैम्बुर्ग प्रेस कांफ्रेंस में शामिल हुए. इन्होंने मीडिया को बताया कि वे डायरी असली हैं. मगर कुछ ही दिनों बाद जर्मन विशेषज्ञों ने उनके ये दावे गलत साबित कर दिए.
पर्दाफाश
6 मई 1983 को कई समाचार एजेंसियों में खबर आई कि ये डायरियां झूठी हैं. जर्मन पुलिस के विशेषज्ञों ने साबित कर दिया था कि सभी दस्तावेज नकली थे. ये डायरियां दूसरे विश्व युद्ध के बाद कभी लिखी और जिल्द लगाई गई थीं.
गलत निकले हस्ताक्षर
डायरी पर मिले नाम के पहले अक्षरों को देख कर शक पैदा हुआ. अडोल्फ हिटलर के 'एएच' के बजाए कवर पर 'एफएच' लिखा था. कुछ लोगों का अंदाजा था कि इसका पूरा मतलब 'फ्यूहरर हिटलर' था. बाद में पता चला कि डायरियों का हिटलर से कोई लेना देना ही नहीं था.
घोटाले के पीछे था कौन
मामले का खुलासा होते ही फर्जीवाड़ा करने वाले को पकड़ लिया गया. श्टुटगार्ट के एक पेंटर कोनराड कुयाउ ने एक बिचौलिए के जरिए पत्रकार हाइडेमन से संपर्क साधा था. उसने ही दावा किया था कि उसके पास हिटलर की वे कथित डायरियां हैं जिनकी कीमत आज भी करीब 50 लाख यूरो होती. इस सारे लेनदेन के दौरान पेंटर कुयाउ ने फर्जी नामों का इस्तेमाल किया.
चली सुनवाई
फर्जीवाड़े के इस मामले में कुयाउ और हाइडेमन दोनों पर मुकदमा चला. कुयाउ पर जालसाजी का आरोप साबित हुआ और उसे साढ़े 4 साल की सजा सुनाई गई. हाइडेमन पर पत्रिका से मिले पैसों का गबन करने का आरोप साबित हुआ और उन्हें भी 4 साल 8 महीने की जेल हो गई.
खूब उड़ा मजाक
1992 में आई एक व्यंग्य फिल्म "श्टोंक" में इसी फर्जी डायरी कांड को दिखाया गया. मामले में शामिल लोगों के असली नाम नहीं लिए गए लेकिन पूरी कहानी असली घटनाक्रम से काफी मिलती जुलती थी.
जालसाजी से हुई कमाई भी
पेंटर कुयाउ को स्वास्थ्य कारणों से 3 साल की सजा के बाद ही जेल से रिहा कर दिया गया. बाहर आकर उसने अपने जानेमाने होने का खूब फायदा उठाया. एक नया आर्ट स्टूडियो खोल लोगों को "असली कुयाउ नकल" बेचने लगा. उसकी मौत 12 सितंबर 2000 को श्टुटगार्ट में ही हुई.
बर्बाद हो गया करियर
हाइडेमन को सजा के दौरान किसी अपराधी की तरह सेल में नहीं बल्कि खुली जेल में रखा गया. लेकिन एक पत्रकार के तौर पर उनका करियर तबाह हो गया. 2002 में हाइडेमन और पूर्वी जर्मनी की खुफिया सेवा के बीच संबंधों का भी मीडिया में खुलासा हुआ. हाइडेमन आज भी हैम्बुर्ग में रहते हैं.