स्वास्थ्य के दावों को झुठलाती हकीकत
२९ जनवरी २०१६राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) की ताजा रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है कि विकास व प्रगति के तमाम दावों के बावजूद हकीकत कुछ और ही है. भारत का बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम चार दशक पुराना है और पिछले एक दशक में खर्च में 200 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसके बावजूद भारत में एक हजार बच्चों में से 40 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते. यानि साल भर के भीतर ही उनकी मौत हो जाती है. रिपोर्ट के मुताबिक पांच साल से कम उम्र के बच्चों के पोषण के मामले में बीते एक दशक के दौरान बेहद मामूली सुधार आया है. बच्चों के टीकाकरण के मामले में भी तस्वीर उजली नहीं है. देश के आठ राज्यों में अब भी हर तीसरे बच्चे को पूरा टीका नहीं दिया जाता.
दस साल पहले हुए ऐसे सर्वेक्षण में सामने आया था कि पश्चिम बंगाल के 61 फीसदी बच्चे एनीमिया के शिकार हैं. एक दशक बाद तस्वीर में मामूली सुधार आया है और यह आंकड़ा लगभग सात फीसदी घट कर 54.2 फीसदी तक आया है. लेकिन दूसरे राज्यों के मुकाबले यह तस्वीर बेहतर नहीं है. इन आंकड़ों से साफ है कि राज्य में पांच साल से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा एनीमिया की चपेट में है. इसी तरह राज्य की कुल महिलाओं में से 60 फीसदी और गर्भवती महिलाओं में से 53.2 फीसदी खून की कमी की शिकार हैं.
चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) के पू्र्व क्षेत्रीय निदेशक यतींद्र नाथ दास कहते हैं कि बीते दस वर्षों में इन आंकड़ों में मामूली सुधार आया है. लेकिन अब भी तस्वीर भयावह है. रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्भवती महिलाओं की देख-रेख और नवजात शिशुओं की रक्षा के लिए जरूरी उपायों की गुणवत्ता में भी गिरावट आई है. नतीजतन राज्य में बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है. दास कहते हैं कि यह रिपोर्ट राज्य के बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण के स्तर का संकेत तो देती ही है, इसमें सुधार के लिए सरकारी नीतियों व कार्यक्रमों में सुधार के उपाय भी सुझाती है. राज्य में हर तीसरा बच्चे का वजन औसत से कम है. यह एक चिंता का विषय है.
बेहतर देखभाल जरूरी
विभिन्न वजहों से गर्भवती माताओं का पोषण ठीक नहीं होने की वजह से उनके गर्भ में पल रहे बच्चों पर भी उसका असर पड़ता है. गर्भावस्था के दौरान खासकर ग्रामीण इलाकों की महिलाओं को आयरन व फोलिक एसिड सप्लीमेंट नहीं मिल पाता. इसके साथ ही उनके गर्भस्थ शिशु की भी बेहतर देख-रेख नहीं हो पाती. आंकड़ों से साफ है कि राज्य की महज 28.1 फीसदी महिलाओं ने ही गर्भावस्था के दौरान आयरन व फोलिक एसिड सप्लीमेंट का सेवन किया. दास का कहना है कि इन आंकड़ों से साफ है कि राज्य में गर्भस्थ माओं व नवजात शिशुओं की देख-रेख के स्तर में सुधार की काफी गुंजाइश है.
विशेषज्ञों का कहना है कि मौजूदा आंकड़ों की रोशनी में सरकार को इस दिशा में प्राथमिकता के साथ पहल करनी होगी. इस मामले में गैर-सरकारी संगठनों और महिला संगठनों को साथ लेकर आगे बढ़ना होगा. एक महिला कार्यकर्ता सुनीता फूकन कहती हैं, "ताजा रिपोर्ट चिंता का विषय है. सरकार को इस स्थिति में सुधार के लिए ठोस पहल करनी होगी." विशेषज्ञों के मुताबिक, बच्चों के स्वास्थ्य पर निगाह रखने के लिए सरकार को आंगनवाड़ी केंद्रों को मजबूत करना होगा और उनके विकास की निगरानी के लिए एक मजबूत तंत्र बनाना होगा.