स्वच्छता अभियान में आत्मा को भी जोड़िए
३० अक्टूबर २०१५टॉप डाउन नजरिए के साथ शुरू होने वाले कार्यक्रमों का ऐसा ही हश्र होता आया है. एक साल के दौरान ये अभियान आम से खास के बीच जागरूकता फैलाने के बजाय नाटकीयता का शिकार हुआ और झाड़ू हाथ में लेना महज एक फोटोऑप बन कर रह गया. इस एक साल में मीडिया में जो इस अभियान से जुड़ी तस्वीरें आई हैं उनमें आपने नोट किया होगा कि समाज, राजनीति, फिल्म आदि के दिग्गज और दूसरी सुर्खीवादी शख्सियतें लंबे लंबे झाड़ू लिए पहले से साफ जगह पर अपने हाथ में थामे झाड़ू से कुछ हरकत करती हुई दिखती हैं. गोया उन्हें मालूम भी न हो कि इस झाड़ू से करते क्या हैं.
तो जैसे सब के सब मिलकर झाड़ू के साथ तस्वीरों के कोलाज को संदेश की तरह समाज में बांट रहे हैं. समाज के साधारण लोगों को, गरीबों को, निचले तबकों को और इसी बहाने अघाए हुए मध्यवर्ग के लोगों को कुछ रोमांच कुछ सनसनी, कुछ तस्वीर, कुछ झलकी तो सौंप दी जाती है लेकिन ये बताने वाला या ये करने वाला कोई नहीं कि गंदगी और कूड़े के ढेर और यहां वहां बिखरे मलबे को ठिकाने लगाने की क्या तरतीबें उपलब्ध हैं.
दूसरी बात ये कि आखिर ये इतने बड़े पैमाने पर मलबा इकट्ठा क्यों हो रहा है और तीसरी बात मलबे का क्या वर्गीकरण कर दिया गया है कि कीचड़ और गंदगी और कूड़े का ढेर ही मलबा है, फिर वो मलबा कैसे मान्य या स्वीकृत है या उस पर कोई कुछ बोलने से हिचकता है जो बड़े पैमाने पर निर्माण सेक्टर की कार्रवाइयों से जमा हो रहा है. जमीन माफिया, बिल्डर माफिया, निर्माण कंपनियां, सरकारी अर्धसरकारी सिस्टम के कारिंदे सब मिलकर जैसे देश को एक महाकाय कंक्रीट में तब्दील कर देना चाहता है. वो टनों धूल, लोहे, गारे, सीमेंट और पत्थर का मलबा, जो उतना ही जानलेवा है जितना कि अन्य किसी तरह का मलबा, इकट्ठा कर रहा है और उस पर भी करोड़ों का कारोबार अदृश्य ढंग से संचालित है, और इस सोने से भी कीमती मलबे पर कोई कुछ नहीं बोलता.
कूड़े के प्रबंधन से ज्यादा स्वच्छता अभियान अनदेखे अनजाने आयामों के जरिए कूड़े की राजनीति और कूड़े की अर्थनीति का अभियान बन जाता है. और ये कोई ऐसी अर्थनीति नहीं है जिसका संबंध आम देशवासियों के कल्याण से है, इसका संबंध आखिरकार चुनिंदा कॉरपोरेट हितों के पोषण से है. इसीलिए स्वच्छता का अभियान अपनी कितनी ही गहरी सदाशयता का दावा कर ले, लेकिन ये नैतिक तौर पर इसलिए फीका नजर आने लगा है क्योंकि आम जनमानस तो इससे जुड़ाव महसूस ही नहीं कर पा रहा है. लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक अधिकारी जुड़ाव पैदा करने के लिए कुछ कर भी नहीं रहे.
और अगर आप मध्यवर्ग को देखें तो उसका एक बड़ा हिस्सा जिस तरह से उदासीन और स्वार्थी रवैये के साथ सामाजिक व्यवहार करता है, उसमें कूड़े और गंदगी को हटाने के प्रति उसकी कोई निजी दिलचस्पी नहीं रह जाती है, भावना की बात तो छोड़ ही दीजिए. तो ये भावना देश में कैसे बन सकती है. जाहिर है ऐसे फर्राट तरीकों से तो नहीं जहां चमकदार पोशाकों, और बनीठनी भंगिमाओं में कैमरे के आगे झाड़ूओं का मद्धम समूह-नृत्य किस्म का चलता है.
आपने ये भी पाया होगा कि सफाई को लेकर शहरी समाज के एक बड़े हिस्से में कोई जिम्मेदारी या नैतिकता नजर नहीं आती है. वो बस अपनी गंदगी से पीछा छुड़ाना चाहता है, उसकी जागरूकता एक सीमित सफाई तक बल खाती है फिर जैसे ही दोचार घर आगे चलकर बीड़ा उठाने की बात आती है तो जागरूकता सोने चली जाती है.
असल में स्वच्छता अभियान हो या कोई भी दूसरा सामाजिक जवाबदेही वाला अभियान, वो तब तक कारगर नहीं हो सकता जब तक उसमें ईमानदारी और पारदर्शिता की भावना निहित न हो. वो इसलिए भी व्यर्थ रह जाता है क्योंकि कुल समाज में एक आवश्यक नागरिक चेतना का अभाव है. यह चेतना स्वयं नहीं आएगी, उसके लिए प्रयास जरूरी है. यह प्रयास राजनीतिक और सामाजिक संगठनों को करना होगा. हम लोग जब तक नागरिक बिरादरी नहीं बनेंगे, जब तक अपनी तमाम सांस्कृतिक लड़ाइयों को समझने में असमर्थ रहेंगे, जब तक हम धर्म और जाति की हुंकारों और हिंसाओं से लिपटे हुए रहेंगे, जब तक हम मनुष्यता के मर्म को अनदेखा करते रहेंगे, तब तक किसी भी ऐसे अभियान की सफलता संदिग्ध है जिसका संबंध सफाई और स्वच्छता से है फिर वो घर की हो या बाहर की अपनी आत्मा की.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी
आपका क्या कहना है? हमसे साझा करें अपनी राय, नीचे टिप्पणी कर के.