सूखे खेतों से कर्ज कैसे चुकाएगी कविता
८ अगस्त २०१७31 साल के वीरामनी की पत्नी को अभी उस कर्ज के बारे में नहीं पता जो उसके पति ने लिया था. कविता खेतों में अपने पति के साथ काम करती थी और उसे साल के आखिर तक अच्छी फसल उगानी है लेकिन तमिलनाडु सूखे की चपेट में है और लगता नहीं कि कुछ अच्छा हो सकेगा. कादंबानकुड़ी गांव में ना तो वह 1.5 एकड़ की जमीन कविता की है जिस पर वह खेती करती है ना ही वह झोपड़ी जिसमें वह रहती है. कविता कहती हैं, "मैं केवल खेती करना जानती हूं लेकिन मेरे पास जमीन नहीं है, इसी वजह से मुझे बैंक से कर्ज या कोई सरकारी लाभ नहीं मिल सकता है. एक बार जमीन की लीज खत्म हो गयी तो मुझे नहीं लगता कि मैं इसे दोबारा ले सकूंगी. परिवार पालने के लिए कुछ और करना होगा."
भारत में तीन चौथाई से ज्यादा ग्रामीण महिलाएं रोजगार के लिए जमीन पर आश्रित हैं जबकि पुरूषों के लिए यह आंकड़ा करीब 60 फीसदी है. इसके पीछे वजह यह है कि खेती में कम कमाई होने के कारण पुरूष नौकरी के लिए शहरों का रुख कर लेते हैं. बावजूद इसके ज्यादातर जमीनें पुरूषों के ही नाम होती हैं. केवल 13 फीसदी महिलाएं ही जमीनों की मालकिन हैं. इसकी वजह से उन्हें सस्ते बैंक कर्ज, फसल बीमा और दूसरी सरकारी लाभ मिल पाते हैं. फेडरेशन ऑफ वूमन फारमर्स राइट्स से जुड़ी बर्नार्ड फातिमा कहती हैं, "महिलाओँ को जमीन का अधिकार लेने से रोका जा रहा है जबकि वे वहां पुरूषों से ज्यादा काम करती हैं."
पारंपरिक रूप से भारत में जमीन से जुड़े सारे फैसले पुरूष ही लेते आये हैं. कौन सी फसल उगाई जाएगी, आमदनी कहां खर्च होगी और लीज पर या जमीन खरीदने का फैसला बिना अपनी बीवियों से पूछे पुरूष खुद करते हैं. जमीन पर फसल उगाने के अलावा विधवाओं और अकेली महिलाओं को नयी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. इनमें कर्ज देने वाले साहूकारों, जमीन के मालिकों और स्थानीय सरकारी अधिकारियों से निबटना भी शामिल है. जब महिलाओं को जमीन पर अधिकार मिल जाता है तो खेती करने के साथ ही, घर समाज में एक दर्जा हासिल कर लेती है, वह खुद फैसले करती हैं, मोलभाव में बेहतर सौदा पाती हैं और उनके जीवन स्तर सुधरता है.
ऐसी महिलाएं पुरूषों की तुलना में खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा देती हैं और अपनी कमाई अगली पीढ़ी पर खर्च करती हैं. परिवार के पुरूष प्रमुख अकसर इस पैसे को शराब और दूसरी खराब आदतों में उड़ा देते हैं. समाजसेवी संगठन एक्शनएड की तमिलनाडु प्रमुख एस्थर मारियासेल्वम कहती हैं, "इनमें से बहुत सी महिलाएं निचली जातियों की हैं और उन्हें अकसर दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है. जब इनके पास जमीन होती है तो जाति की उतनी समस्या नहीं सामने आती." महिलाओं के सामने कई और कानूनी और सामाजिक अड़चनें हैं. जमीन अब भी विरासत में मिलती है और आमतौर पर एक पुरूष से दूसरे पुरूष को जाती है. 2006 में सरकार ने एक योजना बनायी जिसमें भूमिहीन गरीबों को 2 एकड़ जमीन देने का प्रस्ताव रखा. 5 लाख परिवारों को फायदा पहुंचाने के लक्ष्य के साथ इसमें खासतौर पर निचली जातियों के खेतिहर किसान और विधवाओं को प्रमुखता देनी थी. हालांकि सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि केवल कुछ हजार लोगों को ही फायदा हुआ और बाकी सब भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया.
सूखा भूमिहीन महिलाओं के लिए खासतौर पर ज्यादा मुश्किल है. मरियासेल्वम कहती हैं, "आपदा की स्थिति में सबसे पहले और सबसे बड़ा नुकसान महिलाओं का होता है. उन्हें पानी भरना, खाने का इंतजाम करना, मवेशियों की देखभाल और फसलों की चिंता करने होतीहै. ऐसे में ये जरूरी है कि उन्हें जमीन दे कर सक्षम बनाया जाए. उनकी आबादी आधी है, अब वक्त आ गया है कि उन्हें मालकिन बनाया जाए."
विधवाओं के लिए स्थिति थोड़ी और विकट है. भारत में करीब 4.6 करोड़ विधवाएं रहती हैं जो दुनिया में सबसे ज्यादा है. विधवाओं को कई तरह का भेदभाव सहना पड़ता है खासतौर से गांवों में. उन्हें अशुभ माना जाता है और इस वजह से त्यौहारों और दूसरे सामाजिक कार्यक्रमों से उन्हें दूर रखा जाता है. इस वजह से वे अकसर फायदा उठाने की ताक में रहने वाले पुरूषों का शिकार बनती हैं. बहुत सी महिलाएं तो पास के शहरों में जा कर देह व्यापार के लिए मजबूर हो जाती हैं क्योंकि उनके पास पैसा कमाने का और कोई जरिया नहीं होता.
केंद्र सरकार ने तमिलनाडु को सूखे से निपटने के लिए 30 अरब रुपये की रकम दी है. इनमें हर उस परिवार के लिए 3 लाख रुपये का मुआवाजा भी है जिसमें परिवार के मुखिया की मौत हो गयी हो. हालांकि ये पैसा ज्यादातर कर्ज चुकाने में ही खर्च हो जाता है. महिलाओं के अधिकार के लिए चेन्नई में काम करने वाली गीता नारायणन कहती हैं, "कई विधवाओं को तो उनके मृत पति के नाम पर चल रही जमीन की लीज भी नहीं लेने दी जाती. ऐसे में, जाहिर है कि इन महिलाओं के पास बहुत कम ही जमीन है जिसे वे अपना कह सकती हैं.
एनआर/एके (रॉयटर्स)