1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

'सीने में जलन'-एक शायर का जन्म

१९ अक्टूबर २०१०

शहरयार ने गालिब, मीर ताकी मीर, सौदा और जौक के उलट आसान लफ़्ज़ों वाली शायरी का उर्दू में आगाज किया. डायचे वैले' के लिए शहरयार से सुहेल वहीद की बातचीत के अंश.

https://p.dw.com/p/PhEw
'कहीं कुछ कम है'तस्वीर: DW

'....सचमुच ऐसा हो जाता तो अच्छा नहीं होता '

' सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है- इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है '. इस ग़ज़ल के बाज़ार में आते ही अचानक शहरयार का नाम सुर्ख़ियों में आ गया. बाद में उमराव जान में जब उनकी ग़जल ' दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये ' आई तो शहरयार शोहरत की बुलंदियों तक पहुँच गए. उनकी शायरी का लगभग सभी भारतीय भाषाओं के साथ जर्मन, फ्रेंच, तुर्क, रुसी, अंग्रेजी समेत सात विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है.

अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से प्रोफ़ेसर शहरयार 1996 में 30 साल की लंबी नौकरी के बाद रिटायर हुए. अलीगढ में 1948 से ही रह रहे शहरयार की तालीम इसी शहर में हुई. 16 जून 1936 को उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले में पैदा हुए शहरयार उर्दू में फिराक गोरखपुरी, कुर्रतुल ऐन हैदर और अली सरदार जाफरी के बाद चौथे साहित्यकार हैं जिन्हें भारतीय ज्ञान पीठ सम्मान दिया गया. उनके दो दर्जन से ज्यादा काव्य संग्रह के अलावा समग्र ' हासिले सैरे जहाँ' भी आ चुका है.

Mirza Ghalib
मिर्ज़ा ग़ालिब

फिल्मों में कैसे पहुँच गए और ये कैसा तजुर्बा रहा. मुंबई में ज्यादा टिके भी नहीं.

ज़िन्दगी में जैसे और बहुत कुछ इत्तेफाक से हुआ वैसे ही फिल्मो में भी जाने का इत्तेफाक हुआ. दरअसल मुज़फ्फर अली अलीगढ यूनिवर्सिटी में मेरे काफी जूनियर थे. वह यहाँ बीएससी कर रहे थे. उन दिनों वह पेंटिंग के शौकीन थे और पेंटर के तौर पर ही जाने जाते थे. वह मेरी शायरी भी काफी पसंद करते थे. मेरा पहला काव्य संग्रह ' इसमें आज़म' उनके पास था. बाद में वह बंबई चले गए. वहां से एक रोज़ फोन करके बताया कि आपकी दो ग़ज़लें ' सीने में जलन' और 'अजीब हादसा मुझ पर गुज़र गया यारों.....' अपनी फिल्म में ले रहा हूँ. बस ये थी फिल्मो में जाने कि कहानी.

उसके बाद उमराव जान....आपने किसी और डायरेक्टर के साथ काम नहीं किया.

देखिये ये भी इत्तेफाक है. गमन के बाद मुज़फ्फर अली ने एक रोज़ मुझसे कहा कि लखनऊ के कल्चर पर एक फिल्म बनाना चाहता हूं. क्योंकि शतरंज के खिलाड़ी में श्याम बेनेगल ने वहां के कल्चर के साथ बड़ा भद्दा मजाक किया है. उन दिनों मै यूनिवर्सिटी में उर्दू फिक्शन पढ़ा रहा था. मिर्ज़ा रुसवा का नावेल ' उमराव जान' मुझे भी बड़ा अपील करता था. मैंने उनसे इस पर फिल्म बनाने कि बात की. बस काम शुरू हो गया. हम लोगों ने उसमे काफी काम किया. उसके बाद मैंने यश चोपड़ा की ' फासले ' भी की. वो पहली फिल्म थी जिसमे मैंने पहली बार धुन पर गाने लिखे. लेकिन वो नहीं चली फ्लॉप हो गई. मज़े की बात ये है कि अभी भी यश जी मुझे किसी से मिलवाते हैं तो कहते हैं के ' ये हैं उमराव जान के गीतकार.'

आपकी शायरी के लिए कहा जाता है के पूरी कि पूरी शायरी ' सहले मुम्तना' से करीबतर है. यानी आसान शब्दों में गंभीर बात कहना. क्या सही है यह बात.

बिल्कुल सहले मुम्तना ही है , उसके करीबतर होने की बात का क्या मतलब, मेरी शायरी में कहीं कोई पेचीदगी नहीं मिलेगी आपको. कोशिश होती हैं की लोगों तक पहुंचे. दरअसल सम्प्रेषण की एक अलग ही भाषा होती है. जिसमे कोई बाधा न हो. गद्य से करीबतर लेकिन गद्य नहीं, हां इतना ज़रूर हो कि लोगो तक बात पहुँच जाए. शेर की बनावट और शब्दों को उसमें पिरोने , उसे तैयार करने में पद्य का सहारा लेना चाहिए. तब सब कुछ फितरी लगता है और तभी शायरी भी अच्छी लगती है.

इतनी सहल और आसान शायरी करने का ये गुण क्या खुद ब खुद मिला.

नहीं, मैंने इसके लिए बाकायदा अपने जेहन की तरबियत की. या यूँ कहिये कि ऐसा ही जेहन मिला. मेरे दोस्त और उस्ताद मशहूर शायर खलीलुररहमान आज़मी का भी असर कहा जा सकता है. वैसे भी जितने अच्छे शायर हैं, सभी के यहाँ ये खूबी पाई जाती है. दरअसल शेर पढने वाले पर हर शेर का असर होता है. शेर ऐसा हो कि उसमें दिल दिमाग को झझकोर देने की ताकत होनी चाहिए. सुनने वाले में एक करंट सा दौड़ जाए. ये तभी मुमकिन है जब बात उस तक पंहुचे जिसके लिए कही जा रही है, और जाहिर है कि बात आसान लफ़्ज़ों में ही पहुँच सकती है. मैं ये नहीं कहता कि मैंने कुछ दरयाफ्त किया है, लेकिन मैंने सच का दामन नहीं छोड़ा है. मेरे पास ऐसा कुछ नहीं है जो दूसरों का सच न हो. मैंने जिंदगी को बर्दाश्त करने , उसे बरतने कि ताक़त पैदा करने और उसे महसूस करने का जो एक सिस्टम होता है उसे हमेशा ताजा रखने की अपनी जुबां और इजहार के जरिये कोशिश की है. ताकि सच सच रहे और अच्छे बुरे की तमीज बाकी रहे.

अपनी शायरी के बारे में आप खुद क्या कहना चाहेंगे. कैसे रहे शायरी और जिंदगी के तजुर्बे.

मैंने बनावटी जुबान के बजाए अपने कुदरती लहजे में बात करने की कोशिश की है और ये भी कोशिश की है के हम भी वाही सोचें जो किसी और की सोच का हिस्सा बन सके. या वो मेरी तरह सोच सके. मेरी तरह महसूस कर सके.

भीड़ का हिस्सा हो जाता मै तनहा नहीं होता, सचमुच ऐसा हो जाता तो अच्छा नहीं होता...

अगर ऐसा होता तो मर चुका होता. कुछ लोग इसको महसूस नहीं कर पाते हैं. ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा है. कुछ को यही नहीं पता है के वो अजगर की तरह जी रहे हैं या कीड़े मकोड़े की तरह. उन्हें किसी तरह का अहसास ही नहीं है. लेकिन मैंने ज़िन्दगी को बड़े सलीके से गुजारने की कोशिश की है. मैंने कभी अपने आप को धोखे में नहीं रखा, अपने आप से कभी झूठ नहीं बोला. खुद को धोखे में रखना और खुद से झूठ बोलना सबसे ज्यादा तकलीफदेह होता है. अफ़सोस है कि ज्यादातर लोग इसी में मुब्तिला हैं.

अपने समकालीन शायरों में सबसे ज्यादा किसको करीब पाते हैं.

सभी करीब हैं.

मीर और ग़ालिब की मुश्किल तरकीबों और इज़फतों वाली शायरी के बारे में क्या कहेंगे.

देखिये मै किसी के खिलाफ नहीं, सबकी अपनी ज़रूरतें होती हैं. तरकीबें और इज़ाफतें कोई ऐब नहीं. ये तो आप पर निर्भर करता है कि आप शामे फिराक कहते हैं या फ़िराक की शाम

उर्दू के भविष्य के बारे में आपकी क्या राय है.

बहुत बेहतर है क्योंके ये जो शहरों का बासव हो रहा है, वहां का जो कल्चर है. वही तो उर्दू का कल्चर है.

आपके पसंदीदा शेर कौन कौन से हैं.

मैंने आज तक कोई ख़राब शेर कहा ही नहीं. और ये बात दूसरे लोग कहते हैं. और वो कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे.

रिपोर्टः सुहैल वहीद

संपादनः एमजी