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सिर्फ प्रतीक भर नहीं है दोस्ती

शिवप्रसाद जोशी१४ नवम्बर २०१४

नोबेल विजेता मलाला युसूफजई की मुराद पूरी नहीं होगी. भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नोबेल पुरस्कार दिए जाने के मौके पर मौजूद नहीं होंगे. भारत और पाकिस्तान को रिश्तों को सामान्य बनाने के अवसरों का इस्तेमाल करना होगा.

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तस्वीर: Reuters/Imago

मलाला ने बेशक अपनी पारदर्शी मासूमियत में ये उम्मीद जताई होगी. बेशक भारत और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी पुरस्कार समारोह में रहते तो शांति के रास्ते की रुकावटों को दूर करने के लिए ये एक बड़ा प्रतीकात्मक कदम होता. लेकिन भारत पाकिस्तान के संबंधों का कूटनीतिक इतिहास गवाह है कि ऐसी प्रतीकात्मक कोशिशें अतीत में खूब हुई हैं और कुछ देर अपनी रंगीनियां बिखेरकर अंधकार में जा धंसी हैं.

नोबेल शांति विजेताओं की भोली आकांक्षाएं भले ही प्रतीकात्मक हो लेकिन दोनों देशों के बीच मौजूदा तनाव में ये प्रतीक भी ताजगी का एक झोंका है. और ऐसे प्रतीकात्मक बयान या माहौल तो रहने ही चाहिए क्योंकि इससे अगर कुछ बहुत अच्छा नहीं होगा तो बहुत बुरा होने की आशंकाएं भी न्यून रहेंगी. इन्हें खारिज नहीं करना चाहिए. कई परतों वाली जटिल कूटनीति भी ऐसा नहीं चाहेगी.

लेकिन दोनों देशों के रिश्तों में आई खटास को प्रधानमंत्रियों की सांकेतिक मिलन बेला से मिटाया जा सकता है, ऐसी कोरी उम्मीद पाले रखना भी व्यर्थ है जब तक कि इससे आगे की कार्रवाइयां और कूटनीतियां सुनिश्चित न की जाएं. दुर्भाग्य है कि भारत पाकिस्तान के मामले में ये एक पल को होता दिखता है तो अगले ही पल कंटीले तार, तनाव और गोलीबारी की बाधाएं सामने आ जाती हैं.

नोबेल में जाकर दोनों प्रधानमंत्री कोई बड़ा ऐतिहासिक संबंध सुधार समझौता कर लेते, ये तो किसी को अपेक्षा नहीं होगी. लेकिन यह एक बड़ा संकेत होता शांति के लिए दोनों देशों की प्रतिबद्धताओं का. दोनों प्रधानमंत्रियों की अपनी अपनी व्यस्तताएं, प्रोटोकॉल और पहले से निर्धारित कार्यक्रम हैं. इसलिए अपने अपने देशों के दो विशिष्ट व्यक्तियों के साझा नोबेल पुरस्कार समारोह में न जाने को बहुत तूल नहीं दिया जाना चाहिए. आखिर रिश्ते सुधारने के लिए चंद किलोमीटर की हवाई दूरी पर रहने वाले दो पड़ोसियों को सात समंदर पार मिलने की क्या जरूरत है, अगर उनका वाकई मन है या कोई ठोस इरादा है तो वो इसी उपमहाद्वीप के भूगोल में जब चाहें तब मिल सकते हैं.

कांटा यही है. दोनों देश कला संगीत एकडेमिक्स आदि में भले ही अपने नागरिकों की आवाजाही से कभी परहेज न करने वाले बने रहें लेकिन राजनैतिक नेतृत्व और ब्यूरोक्रेसी और सेना के स्तर पर एक दूसरे की ओर पीठ करके ही खड़े रहने के आदी हो गए हैं. राजनैतिक रिश्तों को सामान्य बनाने के मौके आए लेकिन देखते ही देखते हाथ से निकल गए. पाकिस्तान एक नाजुक राजनैतिक हालात से घिरा रहा है और वहां लोकतंत्र को रोजमर्रा की व्यवहारिकता और नागरिक उदारताओं में ढालने वाली कार्रवाइयां जड़ नहीं पकड़ पाई हैं लिहाजा इसका असर उसकी लीडरशिप और वहां से होते हुए सीमा और सीमा पार दिल्ली तक आता है.

भारत को भी उपमहाद्वीप में बड़े भाई की रौब से निकलना चाहिए. आप अतीत को खुरचते नहीं रह सकते. आप पुराने घावों की राजनीति नहीं करते रह सकते. गरिमा और आत्मसम्मान वाले देश को अपने पड़ोसियों की गरिमा और आत्मसम्मान की फिक्र भी करनी चाहिए. इसीलिए संकेतों और प्रतीकों से ज्यादा शांति के लिए दोनों देशों के ठोस कदमों और साझा आधार बनाने की जरूरत है. अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को बुलाकर भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक प्रतीकात्मक संदेश दिया. लेकिन इस पर बहस बनी हुई है कि नवनिर्वाचित सत्ता का प्रमुख ध्यान रिश्तों की तल्खी मिटाने पर था या अपने लिए दुनिया भर में वाहवाही बटोरने पर.

दोनों देशों को प्रतीकों और मुट्ठी लहराते भाषणों और नकली गलबहियों से निकलकर ठोस राजनैतिक धरातल पर बिखरी हुई चीजों को एक एक कर सही जगह रखना होगा. तीखे बयानों और वार-पलटवार से राजनीति चल सकती है देश और पड़ोस नहीं चल सकते. भारत और पाकिस्तान को तो ये समझना ही होगा. अपने निर्माण और आजादी की 75वीं सालगिरह से पहले दोनों के पास आठ नौ साल हैं. क्या ये समय रिश्तों की गांठ खोलने के लिए कम है?

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