सामान्य खुफिया सेवा है बीएनडी
२० अगस्त २०१४एक संभावित जानलेवा खतरा है अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद जो धार्मिक कट्टरपंथ से निकला है और जिसने अमेरिका में 11 सितंबर 2001 के हमलों के साथ नया आयाम ले लिया है. तब से अलग अलग कारणों से न केवल सिर्फ कट्टर दुश्मनों पर संदेह किया जा रहा है बल्कि लंबे समय से सहयोगी देश और दोस्त रहे देशों पर भी. इसके कारण वो न्यूनतम आपसी भरोसा भी खत्म हो गया है जो साझेदारी और दोस्ती को संभव बनाता है.
स्वाभाविक रूप से सबको एक सीढ़ी पर नहीं रखा जा सकता. दुश्मनों से बुरे से बुरे की आशंका होती है. लेकिन साझेदारों पर भी अविश्वास है क्योंकि शायद वे राष्ट्रीय और वैश्विक सुरक्षा के लिए बहुत कम प्रयास कर रहे हैं. अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) आतंकी हमलों से बचाव के लिए इस्लामी आतंकियों पर नजर रखती है. और उन्होंने अंगेला मैर्केल की भी जासूसी की. आखिर क्यों? क्योंकि चाहे कोई भी राष्ट्रपति हो, उन्हें आशंका है कि जर्मनी में फिर से 11 सितंबर जैसे हमलों की योजना बनाई जा सकती है? साजिश करने वालों ने उस हमले की योजना हैम्बर्ग में बनाई थी.
चुप्पी का खेल
इस तरह के परिदृश्य कितने भी अतार्किक लगें लेकिन वह प्रमुख खुफिया अधिकारियों और नेताओं की आतंकवाद निरोधी नीति का अहम हिस्सा लगता है. इसमें वे लंबे समय के दोस्ताना संबंधों को आसानी से और स्थायी रूप से बर्बाद करने का जोखिम भी उठाते हैं. जर्मन अमेरिकी संबंधों में एडवर्ड स्नोडेन के खुलासे के बाद यह हकीकत है. और अब जर्मन तुर्की संबंधों में भी. जर्मन खुफिया सेवा बीएनडी की सैनिक रूप से महत्वपूर्ण नाटो पार्टनर की व्यवस्थित रूप से जासूसी की बात जर्मन सरकार ने न तो स्वीकार की है और न ही इंकार किया है.
साबित होने तक इस तरह की चुप्पी का खेल एक ही नतीजा निकलता है कि मीडिया में छपी तुर्की की जासूसी की रिपोर्टें सही हैं. पहले से ही तनावपूर्ण जर्मन तुर्की संबंधों पर बुरा असर हो सकता है. अंकारा पहले से ही जर्मनी और चांसलर अंगेला मैर्केल पर आरोप लगा रहा है कि वह यूरोपीय संघ में तुर्की की सदस्यता को हर हाल में रोकना चाहती हैं. इसके अलावा अभी तक अनसुलझा एनएसयू की नस्लवादी हत्याकांड वाला मामला भी है, जिसमें मुख्य रूप से जर्मनी में रहने वाले तुर्क लोगों की हत्या की गई थी. हालांकि दोनों मुद्दों का एक दूसरे से लेना नहीं है लेकिन सब मिला कर राजनीतिक और आपसी स्तर पर पारस्परिक भरोसे को नुकसान पहुंचा है.
सोच बदलने की जरूरत
फिर से विश्वास बनाने में लंबा समय लगेगा. और इसमें संदेह ही है यदि खुफिया सेवाएं आगे भी ऐसा ही करती रहे और हर दल के नेता उसे स्वीकार करते रहें. यह बात अमेरिका के साथ जर्मनी की नो स्पाई समझौते की पहल दिखाती है. वॉशिंगटन ने इससे मना कर दिया है. इतना नहीं अमेरिका आगे भी जासूसी की मदद से साथी देशों की तस्वीर बनाना चाहता है. इस तरीके से दोस्त निश्चित तौर पर नहीं बनेंगे.
एक बात साफ हैः खुफिया सेवाओं का व्यवहार नैतिक मूल्यों पर नहीं आंका जा सकता. इसका मतलब ये नहीं होना चाहिए कि सरकार को जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए. पहले से कहीं जरूरी है कि वह पारदर्शी तरीके से खुफिया सेवाओं के काम के बारे में बताएं और उसे उचित ठहराएं. यह जानना जनमत का अधिकार है और साथी देश भी यह उम्मीद कर सकते हैं. अगर सब कुछ पहले जैसा रहेगा तो अविश्वास और बढ़ेगा. अविश्वास से दूरियां बढ़ती हैं. और दोनों ही लोकतंत्र को स्थायी नुकसान पहुंचाएंगे, जर्मनी, अमेरिका, तुर्की और हर जगह.
समीक्षाः मार्सेल फुर्स्टेनाऊ/एएम
संपादनः महेश झा