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सामाजिक समस्या भी है एड्स

शिवप्रसाद जोशी१ दिसम्बर २०१५

भारत में एड्स पीड़ितों की स्थिति में सुधार हुआ है लेकिन किशोरों में हालत चिंताजनक है. शिवप्रसाद जोशी का कहना है कि एड्स सिर्फ बीमारी ही नहीं है बल्कि एक सामाजिक समस्या है जिसके आर्थिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आयाम हैं.

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Blutabnahme für HIV-Test in Südafrika
तस्वीर: picture alliance/dpa/J. Hrusa

1986 में चेन्नई में डॉ सुनीति सोलोमन ने एक महिला यौनकर्मी में एड्स के वायरस की पहचान की थी. इसे भारत में एड्स का पहला मामला माना जाता है लेकिन उसके बाद से एड्स का संकट एक महामारी के तौर पर लगातार बढ़ता जा रहा है. एड्स से ग्रस्त होने वाले व्यक्ति और उसके परिवार पर क्या गुजरती है इसका अंदाजा ही लगाया जा सकता है. एड्स के लिये संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम यूएनएड्स के मुताबिक भारत में करीब 21 लाख लोग एड्स से पीड़ित हैं जो दुनिया में नाइजीरिया और दक्षिण अफ्रीका के बाद तीसरी सबसे बड़ी संख्या है. नेशनल एड्स कंट्रोल ऑरगेनाइजेशन के अनुसार एड्स के मामले महिलाओं से अधिक पुरूषों में देखे जाते हैं. सबसे ज्यादा चिंताजनक बात ये है कि एड्स के 80 % से ज्यादा मामले 15-39 आयु वर्ग के लोगों के बीच में हैं यानी कि समाज का सबसे अधिक क्रियाशील और कामगार तबका इसकी चपेट में है.

यूएनएड्स के मुताबिक भारत में सिर्फ 36 % लोगों को ही एड्स का उपचार मिल पाता है. बाकी 64 % लोगों को इसका उपचार मिल ही नहीं पाता है. कुछ हद तक संतोष की बात ये है कि यूएनएड्स की रिपोर्ट के अनुसार 2005 से 2013 के बीच एड्स से हुई मौतों की संख्या में करीब 38 % की गिरावट आई है. इसकी वजह उपचार के साधनों का विस्तार माना जाता है. एड्स के ज्यादातर मामले पूर्वोत्तर के राज्यों और दक्षिण के राज्यों में हैं. इस बीच बिहार और मध्य प्रदेश में भी एड्स पीड़ितों की संख्या में बढ़ोत्तरी देखी गई है. यौन कर्मियों में भी एड्स के मामले बढ़ते जा रहे हैं. यौन कर्मियों की संख्या करीब 868000 बताई जाती है जिसमें से लगभग 2.8 % एड्स से पीड़ित हैं.

भारत में एड्स की प्रमुख वजह है प्रवासी श्रमिक और दूसरे देशों में जानेवाले नौकरीपेशा लोग, असुरक्षित यौन संबंध और असुरक्षित रक्तदान. हांलाकि भारतीय सेना इसे आधिकारिक तौर पर नहीं स्वीकारती है लेकिन कुछ गैरसरकारी संगठनों और स्वैच्छिक संस्थाओं के अनुसार सेना में भी एड्स के मामले बढ़ते जा रहे हैं. खास तौर पर ऐसे सैनिक जो दूरदराज के इलाकों में तैनात हैं उनमें और उनसे एड्स के फैलने की आशंका रहती है. भारत जैसे देश में जहां कैंसर और डायबिटीज जैसी बीमारियां भी बड़ी चुनौती हैं वहां एड्स के निदान से ज्यादा जरूरी इसकी रोकथाम है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य बजट का करीब पांच प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है. अगर नैको के आंकड़े देखें तो प्राथमिक उपचार से लेकर सेकेंड लाइन ट्रीटमेंट तक एक मरीज के उपचार में करीब 6500 से लेकर 28500 का खर्च आता है. लिहाजा एड्स का इलाज काफी मंहगा है. हांलाकि हाल के वर्षों में भारत में स्थानीय स्तर पर जेनेरिक दवाओं के उत्पादन से भी एड्स की रोकथाम में व्यापक सफलता मिली है.

एड्स की बीमारी और उसके रोकथाम के अलावा इसका सबसे दर्दनाक पक्ष है एड्स से पीड़ित व्यक्ति को जिस तरह से अछूत समझा जाता है और सामाजिक भेदभाव का शिकार होना होता है. स्कूल-कॉलेज से बेदखल होना होता है, नौकरी से निकाल दिया जाता है और यहां तक कि कई बार कैद कर देने और प्रताड़ित भी करने के मामले सामने आए हैं. इसके लिये उपचार और रोकथाम के साथ-साथ एड्स पीड़ित के मानवाधिकार की रक्षा करना भी जरूरी है. इसके लिये समाज को अपना नजरिया बदलना ही होगा.