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साफ सफाई से इतना परहेज आखिर क्यों

११ जुलाई २०१५

स्वच्छता के मामले में भारत की स्थिति अत्यन्त शोचनीय है. यूएन के सहस्त्राब्दी लक्ष्यों में स्वच्छता भी शामिल है. लक्ष्य 2015 का था लेकिन भारत अपने पड़ोसियों नेपाल और पाकिस्तान से भी अभी इस मामले में पीछे चल रहा है.

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तस्वीर: Lalage Snow/AFP/Getty Images

भारत सरकार ने सबके लिए स्वच्छता का नारा 90 के दशक में शुरू किया था, इस दावे के साथ कि 2012 तक सबको सैनिटेशन का लक्ष्य पूरा कर लिया जाएगा. अभियानों और कार्यक्रमों, नीतियों और ऐलानों की झड़ी लगा दी गई लेकिन नतीजे अभी तक नहीं आए हैं. इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि पिछली यूपीए सरकार को कहना पड़ा था कि 2022 तक ये लक्ष्य पूरा किया जा सकता है. लेकिन देश में सरकारी कार्यक्रमों, अफसरशाही के रवैये, जागरूकता और जिम्मेदारी के अभाव को देखते हुए और अपने अध्ययनों और सर्वे रिपोर्टों के आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनीसेफ जैसी विशेषज्ञ संस्थाओं का मानना रहा है कि 2052 से पहले तो ये काम पूरा होने से रहा. इसमें भी भारतीय राज्य ओडीशा की हालत सबसे चिंताजनक है. विशेषज्ञों का आकलन है कि वहां तो अभी डेढ़ सदी और लग जाएगी. यानी 2160 से पहले तक वहां ये काम हो पाना नामुमकिन है.

संयोग से एक ताजा रिपोर्ट का आकलन क्षेत्र भी ओडीशा के गांव रहे हैं. जहां स्थितियां स्वच्छता के लिहाज से बदतर पाई गई हैं और इसका सीधा असर गर्भवती महिलाओं और शिशु जन्म पर पड़ रहा है. गर्भवती महिलाओं का मामला तो इस विराट समस्या का सिर्फ एक पक्ष है, बड़े पैमाने पर बीमारियां, स्वास्थ्य की रोजाना की समस्याएं, बच्चों की शिक्षा और पूरी सामाजिक और सांस्कृतिक गुणवत्ता पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है. एक आकलन के मुताबिक भारत को स्वच्छता में कमी रखने की वजह से अरबों रुपए की सालाना चपत लगती है. इस तरह से अपर्याप्त स्वच्छता के गहरे आर्थिक निहितार्थ हैं और इसका संबंध देश की आर्थिक वृद्धि से बन जाता है.

देश के विकास में एक बड़ी बाधा के रूप में परिलक्षित होने के बावजूद स्वच्छता का मुद्दा क्यों एक नारे से आगे नहीं बढ़ पाया. आज क्यूबा जैसा देश मां से बच्चे तक एचआईवी संक्रमण को रोकने में सफलता पा लेने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है लेकिन भारत जैसा दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाला और परमाणु हथियार और अन्य आर्थिक और सामरिक ताकतों से लैस हुआ देश, समाज की बेहतरी के इन छोटे छोटे उपायों में अभी भी क्यों पिछड़ा हुआ है. कहीं तो कोई भारी गड़बड़ है. नीतियों में पारदर्शिता का अभाव एक बड़ी वजह है. नीतियों को अमल में लाने की जो इच्छाशक्ति है उसका भी अभाव है, लेकिन सबसे बड़ा अभाव है सदाशयता और मंशा का. नीतियों से लेकर अनुपालन तक हम एक सदाशय समाज नहीं रह गए हैं. हम झांकियों, उत्सवों, नारों और रौनकों पर मुग्ध हो जाने वाला समाज हैं तभी तो झाड़ू हाथ में लेकर सफाई का एक नाटकीय वितंडा बना लेते हैं लेकिन उसके मर्म को समझने का वक्त आता है, तो पीछे हट जाते हैं.

इस ब्लॉग के लेखक ने अपने जर्मन प्रवास के दौरान लोगों में सफाई को लेकर सजगता ही नहीं एक जिद और जुनून भी नोट किया. क्या सिर्फ इसलिए कि जर्मनी जैसे देश संसाधनों से लैस अमीर देश हैं, वहां आबादी कम है इसलिए व्यवस्थाएं बन जाती हैं- क्या सिर्फ इन्हीं दलीलों के आधार पर हम अपनी गंदगी को ढोते रहेंगे या उस जुनून को अपनी आदत में लाएंगे जो एक देश के निर्माण और एक समाज की बेहतरी से जुड़ी होती है.

नीतियां और कार्यक्रम बेशुमार हैं, लेकिन अफसरशाही की जो सीढ़ी ऊपर से नीचे उतरती है वो अपने साथ फाइलों का अंबार और निर्देशों की झड़ी तो लाती है लेकिन पारदर्शिता, ईमानदारी, निष्ठा और कार्यक्षमता नहीं लाती. सत्ता तंत्र के पास यूं तो सारे औजार हैं लेकिन वो औजार न जाने क्यों वो विकसित नहीं कर पाई जिनसे समाज में चेतना आती है और हर आम और हर खास आदमी जागरूक बनता है और स्वच्छता को लेकर सचेत होता है.

ये देश चुनिंदा लोगों का नाम फोर्ब्स की अति अमीरों की सूची में हर साल आते रहने से इतराता है. लेकिन समृद्धि के पैमाने को कभी स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दों से जोड़ नहीं पाता है. ये सारे सवाल असल में जवाब ही हैं और निदान भी. स्वच्छता को सरकारी काम मत समझते रहिए. ये अधिकार भी है और कर्तव्य भी.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी