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समाप्त किए जाएं सेना के विशेषाधिकार

कुलदीप कुमार१३ नवम्बर २०१४

भारतीय सेना ने दो अफसरों समेत सात सैनिकों को आजीवन कारावास की सजा देकर सिद्ध कर दिया है कि मानवाधिकार उल्लंघन के प्रति वह गंभीर रुख अपना रही है. सेना के अधिकारी भी अब इस घटना से सबक ले कर अपनी मनमानी पर अंकुश लगाएं.

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तस्वीर: Reuters

सेना यह संदेश दे रही है कि मुठभेड़ के नाम पर निर्दोष लोगों की जानबूझकर हत्या करने वालों को माफ नहीं किया जाएगा, चाहे वे कोई भी क्यों न हों. आज जिन सैनिकों को सजा सुनाई गई है, उन पर 2010 में जम्मू-कश्मीर के कुपवाड़ा जिले में माछिल नामक स्थान पर तीन निर्दोष लोगों की नकली मुठभेड़ में हत्या करने का आरोप था. इनमें एक कर्नल और एक मेजर भी शामिल थे.

जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. सेना और अर्ध-सैनिक बलों पर किसी भी समय नागरिकों के घरों में घुस कर तलाशी लेने, जरा से संदेह के आधार पर गिरफ्तार करने और झूठे मामलों में फंसाने के आरोप लगते रहे हैं और इसके कारण पैदा होने वाले असंतोष और आक्रोश को अलगाववादी ताकतें अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इस्तेमाल करती रही हैं. सेना को विशेषाधिकार देने वाला कानून निश्चय ही बेहद दमनकारी है और किसी भी लोकतंत्र में ऐसे कानून को विशिष्ट परिस्थितियों में केवल कुछ समय के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकता है. लेकिन जम्मू-कश्मीर में 1989 में हिंसक अलगाववादी आंदोलन शुरू होने के बाद से ही सेना के हाथ में अनेक ऐसे कानून सौंपे गए हैं जिनका मनमाना इस्तेमाल किया जाना अवश्यंभावी है. उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी दशकों से यही स्थिति बनी हुई है और जम्मू-कश्मीर की तरह ही वहां भी सेना को विशेषाधिकार देने वाले कानूनों की समाप्ति नागरिक अधिकार संगठनों की एक प्रमुख मांग है.

पिछले दिनों ही सेना ने जम्मू-कश्मीर में तीन किशोरों की गलती से हत्या करने की बात को स्वीकार किया है. अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार सैन्य प्रतिष्ठान की आपत्तियों पर अधिक ध्यान दिये बगैर स्वतंत्र रूप से इस बात का अध्ययन करे कि क्या सेना को विशेषाधिकार देने वाले कानून की आज भी कोई जरूरत है? यदि जरूरत न समझी जाए, तो उन्हें तत्काल समाप्त किया जाए.

शत्रु से निपटें, नागरिकों से नहीं

एक ओर यह शिकायत की जाती है कि जम्मू-कश्मीर के लोग देश की मुख्य धारा से न जुड़कर स्वायत्तता और आजादी की मांग उठाते रहते हैं और अलगाववादी ताकतों को मजबूत बनाते हैं, और दूसरी ओर सरकार की ओर से उन्हें शेष देश के साथ भावनात्मक रूप से जोड़ने की कोई कारगर कोशिश भी नहीं की जाती. यदि सैनिक और अर्ध-सैनिक बल राज्य के नागरिकों को पाकिस्तानी या पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादियों की दहशत से मुक्त करके सुरक्षा देने के बजाय खुद उनमें दहशत फैलाने का काम करेंगे, तो फिर किस तरह से अलगाववादी मानसिकता को खत्म किया जा सकेगा?

केंद्र सरकार को इस मुद्दे पर भी विचार करना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर से सेना को क्रमशः हटाने की प्रक्रिया कब और कैसे शुरू की जाए. सेना को शत्रु के साथ निपटने का प्रशिक्षण दिया जाता है, अपने ही देश के नागरिकों के साथ निपटने का नहीं. नागरिक क्षेत्रों या कार्यों में उसकी तैनाती बहुत कम वक्त के लिए की जाती है. लेकिन जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में सेना दशकों से तैनात है और उसके हाथ में अबाध अधिकार हैं. जाहिर है कि इन अधिकारों का दुरुपयोग भी होता है जिसे रोके जाने की जरूरत है. इन राज्यों में सामान्य स्थिति बहाल करने की दिशा में यदि सही राजनीतिक पहल की जाए, तो ऐसी स्थिति बन सकती है जिसमें सेना के इस्तेमाल की जरूरत खुद-ब-खुद कम होती जाए. सेना के नागरिक क्षेत्रों में हस्तक्षेप की समाप्ति तक सामान्य स्थिति बहाल होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. आशा है कि सेना के अधिकारी भी इस घटना से सबक लेंगे और अपनी मनमानी पर अंकुश लगाएंगे.