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समस्या का राजनीतिक समाधान जरूरी

२९ अगस्त २०१५

भारत में माओवादी आंदोलन 40 साल पुराना है. इस बीच उसने देश के एक तिहाई जिलों को अपनी चपेट में ले लिया है. प्रभाकर का कहना है कि देश के विभिन्न राज्यों में पसरी माओवाद की समस्या का राजनीतिक समाधान जरूरी है.

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तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Seelam

बंदूक के जरिए माओवादी समस्या को हल नहीं किया जा सकता, यह बात कई बार केंद्र और राज्य सरकारें भी कबूल कर चुकी हैं. बावजूद इसके अगर छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडीशा जैसे राज्यों में माओवाद की समस्या पहले की तरह सिर उठाए खड़ी है तो इसके लिए सरकारी नीतियां ही जिम्मेदार हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सत्ता में आने के बाद माओवाद की समस्या सुलझाने का दावा किया था. और वह काफी हद तक अपने इस दावे पर खरी उतरी हैं. राज्य के तीन जिलों—पश्चिम मेदिनीपुर, बाकुंड़ा व पुरुलिया में पांच साल पहले तक माओवाद की समस्या काफी गंभीर थी. साझा सुरक्षा बलों के अभियान के बावजूद माओवादी उस इलाके में समानांतर सरकार चला रहे थे. लेकिन ममता ने सत्ता में आने के बाद एक बेहतर पुनर्वास योजना लागू करने के अलावा इलाके में विकास की नई परियोजनाएं शुरू कर इस समस्या पर काफी हद तक अंकुश लगा दिया है. उनके सत्ता में आने के कुछ दिनों बाद इलाके में माओवादियों के सबसे बड़े नेता किशनजी को एक मुठभेड़ में मार गिराया गया था. उसके बाद से इलाके में शांति है.

लेकिन छत्तीसगढ़, झारखंड व ओडीशा में हालात अब भी जस के तस हैं. केंद्र व राज्य सरकारों की उपेक्षा की वजह से इलाके के आम लोग माओवादियों को शरण व तरजीह देते रहे हैं. इसकी वजह यह है कि माओवादी आम लोगों के हितों से जुड़े मुद्दे उठाते रहे हैं. सुरक्षा बलों के असंवेदनशील रवैए के चलते ग्रामीणों में माओवादियों के प्रति उपजी सहानुभूति अब भी कायम है. बेकसूर गांव वाले माओवादियों व सुरक्षा बलों के बीच पिस रहे हैं. बाहरी राज्यों से माओवादी इलाकों में गए सुरक्षा बलों के जवानों पर न सिर्फ बेकसूर लोगों पर जुल्म ढाने बल्कि आदिवासी महिलाओं के खिलाफ अत्याचार व बलात्कार की शिकायतें सामने आती रहती हैं. माओवादियों के खिलाफ लड़ाई में सुरक्षा बलों की नाकामी की वजह यह भी है कि माओवादी जहां पूरे इलाके से वाकिफ हैं, वहीं सुरक्षा बलों के जवान दूसरे राज्यों से जाते हैं. उन्हें इलाके की भौगोलिक परिस्थिति की उतनी बेहतर जानकारी नहीं होती.

एक के बाद एक केंद्र में सत्ता में आने वाली सरकारें कहती रहीं हैं कि माओवाद की समस्या का समाधान बंदूक से नहीं हो सकता, इसका राजनीतिक समाधान जरूरी है. लेकिन उनकी कथनी व करनी में भारी अंतर है. सत्ता में आने के बाद सरकारें लगातार समस्या की अनदेखी करती रही हैं. यही वजह है कि कई दशकों बाद भी यह समस्या जस की तस है. सरकारों की इच्छाशक्ति व हथियार डालने वाले माओवादियों के लिए जरूरी पुनर्वास पैकेज इस समस्या के समाधान की सबसे प्रमुख शर्त हैं. कोई पांच साल पहले ओडीशा सरकार ने माओवादियो के साथ युद्धविराम जरूर किया था. लेकिन उस पर ज्यादा दिनों तक अमल नहीं हो सका. केंद्र या संबंधित राज्य सरकारों ने माओवादियों के पुनर्वास के लिए अब तक कोई ठोस पुनर्वास फार्मूला ईजाद नहीं किया है. जिन राज्यों में इस पैकेज का एलान किया गया था, वहां भी इस पर अमल नहीं हुआ है. भरोसे की कमी की वजह से माओवादी भी अब तक समस्या के समाधान के लिए बातचीत की खातिर आगे आने से हिचकिचाते रहे हैं. बंगाल में ममता बनर्जी सरकार की ओर से माओवादी कमांडर किशनजी की हत्या इसकी मिसाल है. उसे पहले से पकड़ कर मुठभेड़ के नाम पर मार गिराया गया. इसी तरह छत्तीसगढ़ व झारखंड की जेलों में बंद माओवादियों को भी पूर्व घोषणा के मुताबिक अब तक पुनर्वास पैकेज नहीं मिला है.

माओवाद की समस्या के समाधान के लिए सबसे पहले सरकारों को राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा. इसके अलावा हथियार डालने वाले माओवादियों के लिए बेहतर पुनर्वास पैकेज का एलान करना होगा और सबसे अहम बात यह है कि माओवाद-प्रभावित इलाकों में विकास की नई परियोजनाएं शुरू करनी होंगी ताकि इलाके में रोजगार के नए अवसर पैदा हो सकें. इससे स्थानीय लोगों को माओवादियों से अलग-थलग करने में सहायता मिलेगी. माओवादी कार्यकर्ताओं को राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा में लाने और उनके पुनर्वास के लिये रोजगारपरक विशेष पैकेज जरूरी है. इसके लिए केंद्र व संबंधित राज्य सरकारों के बीच तालमेल का मुद्दा सबसे अहम है. ऐसा नहीं होने तक इस समस्या पर अंकुश लगाना संभव नहीं है.

ब्लॉगः प्रभाकर