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सत्ता के लिए दलित बनाम सवर्ण का ध्रुवीकरण

२२ जुलाई २०१६

बीएसपी प्रमुख मायावती के खिलाफ असभ्य बयान देकर बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह चौतरफा घिर गए हैं. उनकी पार्टी ने उनसे किनारा कर लिया है तो मायावती के समर्थकों का गुस्सा उबाल पर है. सत्ता की चाह में समाज का ध्रुवीकरण हो रहा है.

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तस्वीर: UNI

तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं मायावती के समर्थक प्रांत में बीजेपी के उपाध्यक्ष रहे दयाशंकर सिंह की गिरफ्तारी की मांग कर रहे हैं. गिरफ्तारी तक धरना प्रदर्शन टाल दिया गया है लेकिन जल्द ही ये मियाद भी पूरी होने वाली है. इसके बाद समर्थक फिर सड़कों पर उतरेंगें. इस बीच दयाशंकर सिंह की पत्नी स्वाति सिंह ने बीएसपी कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाया है कि वे उनके और उनकी 12 साल की बेटी के प्रति भी हिंसक टिप्पणियां कर रहे हैं, कोई इसे देखने सुनने वाला नहीं. मानसिक उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए स्वाति सिंह ने मायावती और उनके समर्थकों को कटघरे मे खड़ा करने की कोशिश की है. लेकिन ये भी सही है कि इन दिनों राजनैतिक दलों के कार्यकर्ताओं में ऐसे मौकों पर अनुशासन या नैतिक आचरण का बोध रहता होगा, कहना कठिन है.

हाल की घटनाएं गवाह हैं कि कैसे एक बयान के आधार पर कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आते हैं और समाज में अशांति फैलाने की कोशिश में चाहे अनचाहे भागीदार भी बन जाते हैं. लव जिहाद से लेकर गोरक्षा के नाम पर अफवाहे मंडराती रहीं हैं और इन अफवाहों पर फसाद और यहां तक कि हत्याएं भी कर दी गई हैं. ऐसा करने वाले लोग किसी न किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक होते ही हैं. पकड़े जाने पर भले ही राजनैतिक दल उनसे किनारा कर लें लेकिन ये सच्चाई है कि शक्ति प्रदर्शन और दबंगई की ओर इन दलों का एक पिछला दरवाजा खुलता है जहां धूल उड़ाती एक फौज हमेशा तैयार खड़ी नजर आती है.

भारत की मुख्यधारा की राजनीति में इतनी गिरावट आ गई है कि अब नेता सरेआम कुछ भी किसी दूसरे नेता या पार्टी के खिलाफ बोल देते हैं और अपने बयान को तोड़मरोड़कर पेश करने का मीडिया पर आरोप मढ़कर नैतिक जवाबदेही से बरी होने की कोशिश करते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ अनर्गलताओं का एक भयावह सिलसिला सोशल मीडिया में इधर दिखता ही रहा है. पश्चिम बंगाल में वामंपथी कैडर और तृणमूल कैडर और उधर केरल में लेफ्ट और आरएसएस कैडर के हिंसक झगड़े आए दिन की बातें हो गई हैं. कैडर और उनके राजनैतिक आकाओं के लिए तो भले ऐसा होगा लेकिन आम नागरिकों के बीच दहशत का माहौल बनता जा रहा है. लोग घरों से निकलने से डरते हैं. खासकर महिलाओं को अपनी हिफाजत की चिंता खुद करनी पड़ रही है. ऐसे मौकों पर प्रशासन या पुलिस बेबस या नाकाम ही नजर आती है. वो या तो एक कमजोर कार्रवाई करती है या मुंह फेर लेती है.

देश के विभिन्न हिस्सों में एक किस्म के कबीलाई घमासान सरीखा माहौल बन गया है. जैसे हम एक आधुनिक और विकसित समय में नहीं बल्कि कई सौ साल पुराने किसी रक्तरंजित बर्बर युग में रह रहे हैं. इधर जो राजनैतिक कार्यकर्ताओं में अनुशासनहीनता, असहिष्णुता और अधीरता का बोलबाला होता जा रहा है, इन भावनाओं के स्रोत आपको उनके राजनैतिक दलों या उन दलों के दबंग नेताओं में मिलेंगे. राजनैतिक दल कोई भी हो, एक नेता अपने धन और बाहुबल के आधार पर उभरता है और देखते ही देखते अपने इलाके का राजा या सामंत हो जाता है. उसकी दबंगई के आगे नतमस्तक हो जाने वालों की एक फौज भी उभर कर आ जाती है. इस तरह ये राजनैतिक कार्यकर्ता, निजी सेनाओं में तब्दील हो जाते हैं. बिहार का वो कुख्यात दौर कौन भूल सकता है जब जातीय दबदबे वाली निजी सेनाओं का सिक्का चलता था और लाशें गिराई जाती थीं.

अपने नेता या अपने नायक नायिकाओं के अपमान पर क्षुब्ध हो जाना या आक्रोश में आकर सड़क पर उतर आना बहुत आम हो गया है. बीएसपी कार्यकर्ताओं ने भी यही किया. उनका विरोध करना जायज है लेकिन अगर अभियुक्त की पत्नी के आरोप सहीं हैं तो ये जायज नहीं हो सकता कि उसके परिवार को भी निशाने पर लिया जाए. ये भी उतनी ही बड़ी हिंसा है जैसी हिंसा उनके नेता के प्रति बोलकर की गई है. अब सवाल यही है कि आखिर अत्यधिक जोश में अगर कार्यकर्ता या समर्थक होश खो देंगें तो उन्हें काबू करने की जिम्मेदारी किसी होगी, कौन उन्हें समझाएगा या कौन उन्हें शालीनता का पाठ पढ़ाएगा? जाहिर है कहने को तो ये दायित्व उनके नेता का ही है. पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को अपने कार्यकर्ताओं की क्लास लेनी चाहिए.

यहां दांव पर सिर्फ किसी महिला की साख या किसी राजनैतिक दल की नैतिकता नहीं है, दांव पर तो यूपी की राजनैतिक सत्ता लगी है जिसके लिए कोई भी दल पीछे हटने को तैयार नहीं दिखता. सारा माला एक सोची समझी राजनैतिक चाल का हिस्सा लगता है जिसका लक्ष्य यूपी में वोटों का ध्रुवीकरण करने का है. ये सारे सवाल उठ रहे हैं. क्योंकि एक ओर मायावती को अपशब्द बोले गए, उधर गुजरात में दलितों की पिटाई का वीडियो आ गया, एक महीने पहले महाराष्ट्र में अंबेडकर भवन जैसी महत्त्वपूर्ण इमारत को गिराने की कार्रवाई की गई. क्या ये सब संयोग है या इन सब घटनाओं का सूत्र, सत्ता राजनीति के खेल से जुड़ता है. अगर हम यूपी की घटना को ही आंकें तो ये देखते हैं कि किसी न किसी बहाने मुद्दा दलित बनाम सवर्ण की टकराहट बनाने का है. इससे राजनैतिक दलों को तो शायद फायदा हो जाए लेकिन सामाजिक तानाबाना तो बिखर ही जाएगा.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी