सजा सुनाने का मतलब मौत नहीं
२८ मई २०१५मानवाधिकारों की सीमा को मृत्युदंड के खात्मे तक ले जाने की बहस वैसे तो भारत में जारी है. विधि आयोग इसकी सिफारिश भी कर चुका है. लेकिन सरकार के स्तर पर इस दिशा में कोई आधिकारिक पहल नहीं की गई है. फिर भी न्यायपालिका मौत की सजा सुनाने और इसे देने के मामले में अत्यधिक सतर्कता बरतने की ताकीद करती है. इसके लिए भारतीय कानून में मौजूदा प्रावधान मानवाधिकारों की लक्ष्मणरेखा का यथासंभव सम्मान करते हैं. साथ ही अदालतों में न्याय प्रक्रिया में इसका पालन भी सजगता से किया जाता है लेकिन निचली अदालतों की लचर प्रक्रिया मौत की सजा पर संवेदनहीनता के पैबंदों को गाहे ब गाहे उजागर कर देता है.
मौजूदा मामले में निचली अदालत ने एक प्रेमी युगल को मौत की सजा सुनाए जाने के बाद इसे लागू करने की प्रक्रिया की विहित समयसीमा को नजरंदाज कर फांसी देने के आदेश पर मुहर लगा दी. सजा सुनाए जाने के बाद से सजा देने के बीच कम से कम 30 दिन का समय कानून में प्रक्रिया के पालन हेतु मुकर्रर है. निचली अदालत ने इसका पालन किए बिना ही सजा देने की प्रक्रिया शुरु करने की जेल प्राधिकारियों को अनुमति दे दी. सुप्रीम कोर्ट ने अदालत के इस रवैये को दुखद बताते हुए इसे मानवाधिकारों के खिलाफ भी बताया. अदालत ने कहा कि मौत की सजा सुनाए जाने का मतलब यह नहीं है कि दोषी के जीवित रहने का अधिकार खत्म हो गया. अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 21 और 32 का हवाला देते हुए कहा कि प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार जीवन की अंतिम संभावना के जीवित रहने तक कायम रहता है. किसी भी दोषी को सजा सुनाए जाने के बाद भी उसके पास राज्यपाल और राष्ट्रपति से क्षमादान का अधिकार होता है. तीस दिन की अवधि इसी हेतु दोषसिद्ध व्यक्ति को अपने जीवन के अधिकार को बहाल रखने के लिए दी जाती है. कानून का मकसद जीवन के अधिकार को अंतिम क्षण तक बहाल करवाने की हरसंभव कोशिश करना है.
अदालत के फैसले अपनी जगह हैं. लेकिन सजा ए मौत को खत्म करने की बहस को अंजाम तक पहुंचाने की मंशा एक अलग विषय है. यह सही है कि इसमें सरकार की निर्णायक भूमिका होती है लेकिन अदालतों के फैसले और विधि आयोग की सिफारिशें सरकार को निर्णायक दौर में पहुंचाने में मददगार जरुर साबित होते हैं. यह सही है कि भारत की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के लिहाज से इस विषय का व्यवहारिक पहलू मंजिल से कदम दर कदम दूर हो रहा है. अपराध का लगातार बढ़ता ग्राफ और शिक्षा की धीमी विकास दर सरकारों को मौत की सजा को खत्म करने के फैसले पर ठिठकने पर मजबूर कर देते हैं. साथ ही ताजा मामले में शबनम और सलीम के मामले में निचली अदालतों का ऐसा रवैया भी इस बहस को ठेस पहुंचाने वाली साबित होता है.
ब्लॉग: निर्मल यादव